शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

हे ज्वर! तुम कितने अच्छे हो.....है न !


   प मौन रहते हैं किन्तु आपके चेहरे पर एक लिखावट हमेशा ही उभरती और मिटती रहती है. मैं इस मौन भाषा की लिखावट  को अच्छी तरह पढ़ सकती हूँ . एक मौन लिपि  .....जो सीधे ह्रदय में जाकर अर्थों का भण्डार उड़ेल देती है. 
     इस लिपि के अक्षरों के एक मात्र रचयिता हैं आप ...जब मैं इसे पढ़ती हूँ तो ....
    अच्छा, इन मौन शब्दों का जादू सीखा कहाँ से आपने ! सम्मोहन का अदृश्य जाल सा फैलता जाता है ......
    आपके इन शब्दों से फूल, तितली, नदी, पर्वत, झरना.......नहीं ....ऐसा कोई भी चित्र नहीं बनता. जो बनता है वह पता नहीं क्या होता है ....अमूर्त मूर्त .....
   सम्मोहन का भी कोई आकार होता है भला !
   कोई खुशबू सी उगती है ! 
   स्पष्ट तो वह भी नहीं ..पर हाँ ! कुछ-कुछ.....लगता है जैसे अगरबत्ती से धुंआ निकल रहा हो .....नहीं धुंआ नहीं ...खुशबू सी उग रही हो ...धुएं की टेढ़ी-मेढ़ी लकीर के साथ उगती हुयी खुशबू  .... 
   किसी खुशबू का क्या नाम हो सकता है भला ! 
  आपके मौन शब्द स्पर्श करते हैं मुझे ....एक फ़ीदरी टच...जैसे कोई चेहरे पे चूजे के पंख घुमा रहा हो .....इस स्पर्श को क्या नाम दूँ !
  लोग कहते हैं कि भावनाएं सागर की तरह होती हैं. मैंने सागर की लहरों को देखा है....ज़रा भी स्थिर नहीं ....आती हैं शोर के साथ ...जाती हैं खामोशी के साथ ....जैसे कोई पराजित सिपाही .......पर थोड़ी ही देर में फिर शोर .......एक निरंतर यात्रा ....
   इस यात्रा को क्या नाम दूँ !
   लोग ज्वर से इतना क्यों डरते हैं ? मैं तो और भी क्रिएटिव हो जाती हूँ ........जब भी ज्वर आता है .....अपने साथ न जाने कैसी-कैसी क्रियेटिविटी लाता है ..
   नहीं... मुझे दवा नहीं खानी......ज्वर ठीक हो गया तो ये क्रियेटिविटी भी ख़त्म हो जायेगी...
   सुनिए ! आपने कुछ खाया या नहीं .......मैं खिचड़ी बना दूँ आपके लिए ?
   नहीं......., ................मैं बना सकती हूँ ....आप मेरी चिंता मत कीजिये. मैं ठीक हूँ ......लगता है कि ज्वर की स्थिति में कविता अच्छी तरह लिखी जा सकती है. 
   कोई है जो मुझे कागज़-पेन देदे. आज तो बहुत अच्छी कविता बन पड़ेगी .....
   मैं सो भी रही हूँ ...जाग भी रही हूँ ...स्वप्न भी देख रही हूँ .....चिंतन भी ...और ...
   सुनिए ! गुड़िया स्कूल से आने वाली होगी....उसे दूध दे देना....
   हे ज्वर! तुम कितने अच्छे हो.....स्वप्न से भी अधिक अच्छे .....समाधि का तो पता नहीं ....पता नहीं कैसा लगता होगा उस स्थिति में ....पर अभी मुझे जो लग रहा है वह किसी समाधि से कम है क्या ! 
   अच्छा बताओ, आभास का भी कोई रंग होता है क्या ? 
   नहीं होता ? 
   ...होता है ..होता है ...ज़रा ध्यान से देखिये तो दिखेगा ...नीला या फिर काला. ऐसा ही होता है आभास. हाँ! हाँ! मुझे अच्छी तरह पता है ..लाल, पीला या हरा तो बिलकुल ही नहीं होता......हो भी नहीं सकता ....आभास तो नीले या काले रंग का ही हो सकता है. गहरा काला नहीं ...हल्का सा या फिर स्लेटी सा. गहरा काला रंग तो सिर्फ नर्क का होता है. 
   अरे ! नर्क की बात पर आप यूँ हँस क्यों रहे हैं ? अच्छा .....हाँ ...मैं तो भूल ही गयी थी ...आप तो नर्क के अस्तित्व में विश्वास ही नहीं करते न ! पर मैं कहती हूँ कि नर्क होता है और उसका भी  रंग होता है ...गहरा काला .... स्वर्ग का भी होता है ...एकदम सफ़ेद भक्क ..... आप मानें या न मानें पर यह सच है. हर चीज़ का रंग होता है ......यहाँ तक कि भावनाओं का भी. 
  देखो, हँसना मत....पर मुझे तुम्हारे सम्मोहन और ब्रह्मांड के कृष्ण विवर में बड़ी साम्यता लगती है.....गज़ब का आकर्षण है दोनों में. है न ! ........
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2 टिप्‍पणियां:

  1. भावनाएं, आभास और संवेदनाओं का भी रंग होता है... न काला - न सफ़ेद.. ये रंग होता है धुएं और धुंद के रंग जैसा... न काला - न सफ़ेद.. दूर से काला दिखता है करीब से धूसर और जब उसे समा लो अपने अंदर तो सब सफ़ेद हो जाता है..!

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  2. क्या बात है सलिल भैया जी ! छक्का मार दिया आपने तो ...क्या लोजिक है रंगों का ....

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.