शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

फिलहाल अवतार लेने का प्रोग्राम केंसिल ...


    क्षीरसागर में शेष नाग की शैय्या पर अपने सम्पूर्ण गात को खुजाते हुए विकल भाव से विष्णु जी चिंतामग्न बैठे थे. मन में किंचित क्रोध भी था - इन मनुष्यों के लिए कितना भी करो पर ये तो मुझे भी नहीं छोड़ते आजकल. यूरिया वाला नकली दूध क्षीर सागर में चढ़ा-चढ़ा कर पूरा सागर ही सत्यानाश कर दिया. अब हो गयी न मुझे भी डर्मेटाइटिस .....अश्विनी कुमारों की कोई दवा भी लाभ नहीं कर रही....वहाँ भी तो खाद डाल-डाल कर सब विषाक्त कर रखी हैं सारी वनस्पतियाँ और औषधियाँ ..... 
लक्ष्मी जी ने मेड इन ज़र्मनी वाला एक होम्योपैथिक इम्पोर्टेड मलहम उनके शरीर पर लगाते हुए पूछा-
"तो उस बारे में आपने क्या सोचा ?"
"किस बारे में ?"
"वही....... यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ......."  
"देवी ! जाना तो पडेगा ही .....भारत में पापाचार सारी सीमाएं लांघ चुका है ....पूरे कुएं में भांग डाल दी है किसी ने.  भारत का मनुष्य स्वशासित और आत्मनियंत्रित होता तो क्या बारम्बार अवतार लेना पड़ता मुझे........."
जगत के पालनकर्ता विष्णु ने बड़े ही दुखी मन से लक्ष्मी जी को अपनी व्यथा सुनायी. 
"देखो ! अन्ना और रामदेव से मैंने कहा था कि कुछ प्रयास करें...उन्होंने लोगों को एक सूत्र में बांधने का किंचित प्रयास किया भी पर ......."
विष्णु जी भारी मन से चुप हो गए तो लक्ष्मी जी ने पूछा- 
"पर क्या स्वामी ?"
एक ठंडी सांस लेकर प्रभु बोले -
".....पर सब टायं टायं फिस्स हो गया....भ्रष्टाचार लेश भी कम नहीं हुआ ....लोकपाल बिल की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हैं लोग ? क्या नियंत्रण की वल्गा खींचे बिना और दंड का अनुशासन थोपे बिना भ्रष्टाचार समाप्त नहीं किया जा सकता ? भ्रष्ट कौन है ? क्या केवल  सिब्बल, चिदंबरम और राजा आदि लोकतंत्र के देवगण ही ? जन साधारण को सत्य मार्ग पर चलने की आवश्यकता नहीं ?...
देवी ! मैं तो देख रहा हूँ कि भारत का जन-जन भ्रष्ट हो चुका है ......जन साधारण इस भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा पोषक हो गया है. कोई इसे समाप्त नहीं करना चाहता ..न जनता ...न कांग्रेस  ...न भाजपा ...सब बनाए रखना चाहते हैं इसे ......जो विरोध कर भी रहे हैं...वे भ्रष्टाचार का नहीं ..बल्कि केवल सत्ता दल का ...अन्यथा ये दुग्ध्स्नात भाजपा वाले कुशवाहा को अपनी मांद में घुसने ही क्यों देते ?"
लक्ष्मी जी मुस्करायीं -
" हे दयानिधि ! इतने चिंतित मत हों. तृषित को अपना मार्ग अन्वेषित करने दें ....यह भारत है ..यहाँ का जन समुदाय बड़ा ही ढीठ और विचित्र है. यहाँ तो विरोध मात्र इसलिए किया जाता है कि वह स्वयं अवसर से वंचित है. लोग किसी बात का विरोध तब तक ही करते हैं जब तक कि कोई अलभ्य लाभ उसे प्राप्त नहीं हो जाता. प्राप्त होते ही विरोध समाप्त हो जाता है. यहाँ लोग उत्कोच का विरोध देते समय करते हैं लेते समय नहीं ......है न विचित्र ....  मैं तो यही समझ सकी हूँ कि आपको भ्रष्टाचरण के प्रति नहीं अपितु भारतीयों के विचित्राचरण के प्रति चिंतित होना चाहिए प्रभु !"
विष्णु जी हतप्रभ हुए ...आज देवी ने यह कौन सी नयी समस्या का विमोचन कर दिया .........प्रकट में बोले -
"विचित्राचरण कैसा देवी !"
देवी पुनः मुस्करायीं, उनकी मुस्कराहट में एक आकर्षण था ....एक सम्मोहन था ....एक रहस्य था. प्रभु कई बार इस मोहनी के भंवर में पड़ कर अपना संतुलन खो चुके थे. देवी ने कहना प्रारम्भ किया -
" जैसे कि आप कुछ  जानते ही नहीं .......अभी ही देख लीजिये न .....चुनाव की बेला आते ही लोग एक-दूसरे के छिद्रान्वेषण में जुट जाते हैं...प्रजा को एक दिन आभास होता है कि यह वाला ठीक है वह वाला भ्रष्ट है...अगले ही दिन आभास होता है नहीं यह वाला भी भ्रष्ट है यह तीसरा वाला ठीक है ...और इस तरह वह एक अनंत भूल भुलैया में फंस कर रह जाता है. सब एक से एक छलिये. मायावती की यात्रा एक झोपडी से प्रारम्भ होकर स्कूल मास्टरनी से होते हुए राज सिंहासन तक पहुँच गयी ..इस बीच यह मायाविनी स्त्री कोटि कोटि मुद्रा की स्वामिनी बन गयी. यह कौन सी जनसेवा है जिसे करते करते लोग इतने संपन्न हो जाते हैं कि सेवा पाने वाला तो वहीं का वहीं रहता है और सेवा करने वाला देव लोक के समस्त सुखोपभोग का अधिकारी हो जाता है. किन्तु नहीं ...यह मुझे नहीं कहना चाहिए यह तो विचित्राचरण वाली भारतीय प्रजा को सोचना और पूछना चाहिए ...."
प्रभु बोले-
"आप का कथन सर्वथा सत्य है प्रिये ! तृषित को जलाशय का मार्ग स्वयं अन्वेषित करना चाहिए ....बारम्बार अवतार लेकर कहीं मैंने भी तो उन्हें मक्कार और पराश्रयी नहीं बना दिया ?"
दो सेंटीमीटर वाले स्मित हास्य से लक्ष्मी जी ने कहा -
" अब आपका चिंतन सही मार्ग की ओर हो रहा है प्रभु ...आपका संदेह सत्य है ...बारम्बार अवतार लेकर आपने भारतीयों को मक्कार बना दिया है ...शेष कुछ क्रियाशीलता रही भी होगी तो उसे  भारतीय संविधान के आरक्षण ने निष्क्रिय कर दिया. देखिये न प्रभु ! दुबई में तो इतना भ्रष्टाचार नहीं है .....कौन गया था सुधारने ? अमेरिका और यूरोप में भी तो भारत जितना नहीं है न ! वहाँ तो कभी नहीं गए आप...किसने सुधारा ......स्वनियंत्रण और आत्मानुशासन वहाँ के लोगों ने कैसे सीखा ......? हे प्रभु ! भारत के प्रति आपके मोह ने ही इन लोगों को बिगाड़ कर रख दिया है ......अब कभी मत जाइयेगा वहाँ......"
प्रभु मुस्कराए -
"ठीक है..... मैं वचन तो नहीं देता ...किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आपके तर्कों का सम्मान किया जाना चाहिए."
" तो प्रभु ! क्या मैं इसका अर्थ  यह लगा सकती हूँ कि अभी फिलहाल अवतार लेने का प्रोग्राम केंसिल ...?" 
प्रभु मुस्कराए, "देवी ! यह इम्पोर्टेड मलहम कब मंगवाया ? लगाते ही लाभ होने लगा .....अश्विनी कुमारौ ऐसा मलहम क्यों नहीं बना पाते ?"           
      

2 टिप्‍पणियां:

  1. सही कह रही हैं देवी, हम सुविधाभोगी लोगों ने सब चीज भगवान पर छोड़ रखी है।
    मलहम तो बना दें अश्विनी कुमार बंधु, लेकिन जब तक बाहर की रिकमेंडेशन न होगी, खरीदेगा कौन?

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.