मंगलवार, 24 जनवरी 2012

...इसलिए चुराई पत्थरों ने धूप



पर्शुकाओं के प्राचीर में दबे हृदय की पीड़ा को सुनते रहने का अभ्यस्त हूँ .....इसलिए सोचा चलो......आज पत्थरों की धड़कन सुनते हैं और पता लगाते हैं क्यों चुराते हैं ये पत्थर ज़रा सी धूप ? किन्तु पहले इस नगर को देखिये ......यह है कलचुरी वंश के राजाओं की राजधानी कांकेर. इसी नगर के पार्श्व में स्थित है गढ़िया पहाड़ जहाँ आज मैं जा रहा हूँ .....पत्थरों से बातें करने ....उनकी धड़कनों को सुनने....


गढ़िया पहाड़ से कांकेर नगर का विहंगम दृश्य 


.........तो मैं पहुँचा इन पत्थरों के पास........ बैठकर बहुत देर तक गुफ़्तगूं की.....कुछ उनकी सुनी ...कुछ अपनी कही.....कान लगाकर उनकी धड़कने भी सुनीं .....धड़कनें क्या सुनीं, मैं तो हैरान रह गया...उफ्फ़ ! इतना दर्द .....
लीजिये,  आप भी सुनिए,  इन धड़कनों ने क्या कहा मुझसे ....  
"मेरी आँखें ...मेरा शरीर ....सब कुछ पाषाण हो गया है .....सब देख-देख और सह-सह कर. किन्तु आश्चर्य ! हृदय भर पाषाण नहीं हो पाया...वह भी हो जाता तो इस पीड़ा से मुक्ति मिल जाती मुझे. मनुष्य मनुष्य के प्रति इतना कठोर और निर्मम कैसे हो जाता है ...यह हम पत्थर आज तक नहीं समझ पाए. राजतंत्र में राजाओं की निरंकुशता ...उनकी कठोरता...निर्ममता और अत्याचारों के प्रमाण जो अंकित हो चुके हैं हमारे शरीर पर वे क्या मिट सकेंगे कभी ? ...काश मिट पाते कभी ! ......आज भी हमारे हृदय पटल पर अंकित हैं वे सारे दृश्य ......अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए राजबंदियों की निर्ममतापूर्वक हत्याओं के न केवल साक्षी रहे हैं हम अपितु भागीदार भी रहे हैं ......."
मैंने आश्चर्य से पूछा- "आप और हत्याओं के भागीदार ...?"
उस विशाल काले पत्थर ने एक दीर्घ निःश्वास लेकर कहा -"हाँ ....हत्याओं के भागीदार .....किन्तु सच मानिए ....यह भागीदारी हमारी विवशता थी ...हमने कभी ऐसी निर्ममता का समर्थन नहीं किया .....न चाहकर भी हमें न जाने कितने राजबंदियों की यातनापूर्ण मृत्यु का कारण बनना पड़ा है................."
गढ़िया पहाड़ मौन हो गया .....उसका मौन पूरे पहाड़ पर पसर गया .....जैसे कोई घायल रोगी कराहते-कराहते अचानक मूर्च्छित हो गया हो .....
मैंने बूढ़े शैल खंड से पूछा ".....किन्तु आप मृत्यु के कारण कैसे बन गए  .....?"
उसने कहा -"उधर देखो ...उस शैल खंड को देख रहे हो .....न जाने कितनी बार ...न जाने कितने राज बंदियों को वहीं से नीचे फेके जाने का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ मैं ......नीचे कठोर पत्थरों से टकराकर उनकी भयानक चीखों को सुना है मैंने ....... उनके शरीर से बहते हुए लहू से हमारे भी हाथ रंगे हुए हैं .............भय से आँखें फाड़-फाड़ कर मैंने देखा है उन्हें तड़पकर मरते हुए .......राज सैनिक तो फेक कर जीवित राजबंदी को चले जाते थे अपने घर .....और मैं देखता रहता था उन्हें तड़पता हुआ ...मरता हुआ ....."
मैंने कहा  - "किन्तु मैं तो धूप चुराने की बात पूछ रहा था आपसे ..."

बूढ़े ने कहा- " हाँ मैं भी वही बात कह रहा हूँ ....तुम समझते हो कि हम धूप चुराते हैं......नहीं .....हम प्रायश्चित करते हैं उस निर्मम पाप में अपनी सहभागिता के पाप का प्रायश्चित ....रोज कुछ देर के लिए धूप को अपने पास बुला लेते हैं ....उसकी किरणों के ताप से अपने मन के संताप को निर्मल करने का प्रयास भर करते हैं हम ......बस और कुछ नहीं ...और आप समझते हैं कि हम धूप को चुराते हैं .......... "
बूढ़े पहाड़ की बातों से मुझे अपनी सोच पर हीनता का अनुभव हुआ ......पहाड़ कठोर होते हुए भी कितने निर्मल होते हैं ......

यही है वह शिलाखंड जहाँ से राजबंदियों को जीवित ही नीचे फेक दिया जाता था .......
यहाँ से फेके जाने के बाद कोई भी राजबंदी जीवित बच सकता है भला ! 




यह रहा इसका प्रमाण ....


इन सब प्रमाणों को एकत्र करते समय सारा ध्यान कैमरे और दृश्य पर होने के कारण एक बार यहाँ उगी इस सूखी घास पर से संतुलन बिगड़ने के कारण गिरते-गिरते बचा.....बच गया ..पता नहीं कैसे .....सूखी घास पर आपके जूते फिसल सकते हैं ...शायद यही बताने के लिए.... 



............यदि गिरता ...............................तो नीचे ये शैल समूह हमारे स्वागत के लिए तैयार बैठे थे. 
इसके बाद तो पूर्ण विराम लगना ही था. 

15 टिप्‍पणियां:

  1. जर्रे जर्रे की एक कहानी होती है। हम जो सुन पायें..हम जो समझ पायें।

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  2. ओह - कितना दर्दनाक मंज़र - कैसे सहते होंगे ये पत्थर - यह दर्द, यह अपराधबोध !!! :(

    एक वह होते हैं जिनपर गुज़रती है ( वे कैदी), एक वह - जो इसका निर्णय लेते हैं ( वह राजा) , फिर वह सिपाही जो इस निर्णय को पूरा करने के कर्त्तव्य को {सहज भाव से / या अपराधबोध के साथ / या फिर शायद कोई कोई तो इसमें आनंद लेते हुए भी } इस कर्त्तव्य को निभाते होंगे ...... किन्तु हम सब तो मानव हैं | जो भी दर्द है - उससे करुणा मई मृत्यु आकर छुटकारा दिला देती है | सारे भय, अपराध बोध, दर्द -सब कुछ मिट जाता है अधिक से अधिक ६०-७० सालों में |

    - किन्तु ये बेचारे पत्थर - इन्हें तो विरोध करने तक का अधिकार न दिया गया है | न ही मृत्यु की ममतामयी गोद, जिसमे छुप कर ये इससे छूट सकें ! अच्छा है के ये पत्थर हैं, न तो इस दर्द से अब तक शायद टूट टूट कर बिखर गए होते....
    ..................
    और कौशलेन्द्र सर, आप भी ध्यान रखा कीजिये, ऐसी जगह पर ऐसी एक भी गलती जानलेवा हो सकती है |

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    1. लगता है कि मैंने और आपने एक ही वेवलेंग्थ पर पत्थरों से बातें की हैं और उस ज़माने के दृश्यों को मन की आँखों से देखने प्रयास किया है.
      डर तो बाद में मुझे भी लगा...पर रोमांच का भी एक नशा होता है. अब ऐसी भूल दोबारा नहीं होगी, ऐसी जगह पर जूते उतार कर ही जाना बेहतर है...

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    2. जी सर, मैं अक्सर पत्थरों से, नहरों में बहते पानी से, धूप की टुकड़ों से, पेड़ों की जड़ों में उसी घास से , बल्कि हर ज़र्रे से , बातें करती हूँ |

      इनकी भाषा भी हम जैसी ही है - अबोले बोल | यह भाषा किसी भाषाज्ञान की मोहताज नहीं, न शब्द की, न आकाश की | यह मन से मन की बातें हैं :) | और इनकी बातें कितनी सारी, कितनी न्यारी, और कितनी प्यारी होती हैं |

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    3. खुदा खैर करे! इतिहास का एक क्रूर अध्याय। अगली बार ऐसी जगहें सावधान होकर जाइये, और दूर से ही देखिये/दिखाइये।

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    4. जी अनुरागी बंधु ! डर तो लगता है पर रोमांच का भी एक अपना ही लोभ है......

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  3. गूगल भी न...
    इतनी अच्छी टिप्पणी लिखी थी...खा गया!

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    सिर्फ शायर देखता है क़हक़हों की असलियत
    हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होती नहीं
    -दुष्यंत

    आपके पत्थरों की दास्तान सुन कर यही ध्यान आया कि कितने लोग इतने इतमीनान से पत्थरों की कहानी सुनेंगे...आजकल तो इंसान की बात सुनने के लिए लोग फुर्सत नहीं निकालते। आपने बेहद सुंदर और मार्मिक चित्रण किया है।

    भगवान का शुक्र है कि आप बच गए। युद्धस्थल, फांसी वाली जगहें या अत्महत्या करने के प्रचलित स्थलों पर काल की परछाई मंडराती रहती है...बहुत भीषण भंवर सा होता है जो दुर्घटना के सालों बाद भी लील जाने को तत्पर रहता है। इन जगहों पर खास सावधानी की जरूरत होती है। उम्मीद है आप आगे से अपना ध्यान रखेंगे।

    ब्लॉग का लेआउट अब पढ़ने में बेहद सुविधाजनक और सुंदर है। शुक्रिया। :)

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    1. जी मैम ! आगे से ध्यान रखूंगा .....( पूजा जी ! इस प्रतिटिप्पणी को पढ़ते वक़्त कल्पना कीजिये कि यह एक ऐसे बच्चे का उत्तर है जो पहले से ही बहुत डरा हुआ है..... टीचर जी की समझाइश से बेचारा और भी सहम गया है और अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फाड़ कर सिर्फ टीचर जी को देखे जा रहा है ......और सोच रहा है कहीं मार न पड़े )
      गूगल मुनि से आजकल सभी दुखी हैं....मैंने भी सुबह प्रति टिप्पणी लिखी थी ......और जब काट कर चिपकाने और पोस्ट करने का वक़्त आया तो अंतरजाल महोदय रूठ गए ....एकदम जिद करने लगे ...नहीं ले जाऊंगा तुम्हारी चिट्ठी ......बहुत मनाया ......अरे ले जाओ भाई ....पूजा जी को चिट्ठी पहुंचाना आवश्यक है....मगर वे तो दुर्वासा की तरह जो रूठे तो मानने को तैयार नहीं. मैंने भी पिटारा बंद किया और चला गया हॉस्पिटल. आज पूरे दिन व्यस्त रहा, अभी रात के ९ बजे आया हूँ, आते ही देखा तो अंतरजाल जी और गूगल मुनि दोनों प्रसन्न भाव से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. दुबारा चिट्ठी लिखना कितना मुश्किल होता है आप समझ सकती हैं ...भुक्त भोगी हैं न ! मगर अब मैं भी रूठ गया हूँ.... कम से कम एक घंटे तक तो रूठना तय है .....सुबह ही मूड खराब हो गया था, वसंत पंचमी पर कुछ लिखना था ........नहीं लिख पाया ......अब कोपमोक्षणोपरान्त ही लिख कर पोस्ट करूँगा.

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  4. पत्थरों के मन में पलती पीड़ा को किसने जानने समझने की कोशिश की...
    कैसी कैसी बर्बरता का साक्षी बनान पड़ा है उन्हें..

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  5. आपका स्वागत है रश्मि जी !
    जिन्हें हम बेजान कहते हैं प्रतिक्रियाएं उनमें भी होती हैं....फर्क सिर्फ इतना है कि हम उस प्रतिक्रया की भाषा को पढ़ नहीं पाते......कैमिस्ट्री की लैब में इस भाषा को पढ़ने की थोड़ी बहुत कोशिश भी एक पक्षीय और आंशिक ही है. मैं कल्पना करता हूँ कि जब धरती से जीवन समाप्त होगा और पूरी धरती के साथ हम सब भी किसी ब्लैक होल में समाने वाले होंगे तब उसकी पूर्व संध्या पर बेजानों वाले परमाणु हमारे परमाणुओं से हिसाब माँग सकते हैं ....तत्वों की अंतिम बिरादरी में तो सारे परमाणु एक ही हैं न !

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  6. शिल्पा जी ! एवं पूजा जी !
    संभवतः जून में आपसे भेंट होने का संयोग बने......

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  7. हूँ....जनाब चित्र लेते वक़्त ख्याल रखा कीजिये अपना ......

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.