बुधवार, 4 जनवरी 2012

आस्था


   र्ली में डॉक्टर ई. मोज़ेज रोड पर फ़्रेंको इन्डियन के ठीक सामने दो स्टूडियो हैं. दाहिनी ओर है फ़ेमस स्टूडियो और बाईं ओर स्टार चैनल का . पिछले कई साल से फ़्रेंको इन्डियन जाते समय बड़ी हसरत से फ़ेमस स्टूडियो की ओर देखता रहा हूँ ....इस बार तो समय नहीं है अगली बार ज़रूर देखूंगा ...हर बार मन को दिलासा देता रहा हूँ ...इस बार भी .....
     फ़ेमस स्टूडियो हर बार मुझे कई बरस पीछे ले जाता है ...सपनों की दुनिया में. आज अगर मैं डॉक्टर न होता तो एक्टर होता या फिर स्क्रिप्ट राइटर तो होता ही .....
    एक ठंडी आह के साथ मैं फ्रेंको इन्डियन की सीढियाँ उतरता हूँ   .....
   फ़ेमस स्टूडियो के सामने से गुज़रते वक्त रमेश ज़ल्दी में होते हैं उन्हें महालक्ष्मी से लोकल जो पकड़नी होती है. और मैं ........जैसे कोई बच्चा किसी दूकान के सामने खड़े होकर शीशे से, अन्दर सजी एक से एक खूबसूरत चीज़ों को देख रहा हो .....
    रमेश मेरे सपनों को बड़ी निर्ममता से रौंदते हुए बोलते हैं- "यार केके ज़रा ज़ल्दी ...लोकल छूट जायेगी....."
रेस कोर्स के किनारे चलते हुए हम महालक्ष्मी पहुँचते हैं. फास्ट आने वाली है ...रमेश सीढ़ियों से कूदे से पड़ रहे हैं. उफ्फ़ ....ये मुम्बई वाले हमेशा इतनी ज़ल्दी में क्यों रहते हैं ? "ट्रेन छूट रही है क्या" -यह मुहावरा शायद मुम्बईकर लोगों को देख कर ही बना होगा.    

    मुंबई लोकल ......रमेश ने ऊँघना शुरू कर दिया है. बाजू के डिब्बे से समवेत स्वर में भजन की स्वर लहरियाँ आ रही हैं....मंजीरे और ढोलक के साथ. 
     मुझे मुम्बई में जो चीजें बहुत अच्छी लगती हैं उनमें से एक यह भी है....लोकल में आते-जाते कर्मचारियों का भजन.  इस भागदौड़ की ज़िंदगी में ये कुछ पल मजबूरन फुर्सत के होते हैं ...मुम्बईकर इन पलों का भी भरपूर उपयोग करते हैं. मुझे विश्वास है कि इससे उन्हें निश्चित ही कुछ अतिरिक्त ऊर्जा मिलती होगी. 
    लोअर परेल से एक किन्नर ने हमारे डब्बे में प्रवेश किया. मैंने खिड़की से देखा ...प्रवेश से पहले उसने ट्रेन को प्रणाम किया था. वह एक सरल किन्नर थी. औरों की तरह जिद्दी नहीं. डिब्बे में आते ही, जो दे उसका भला जो ना दे उसका भी भला की तर्ज़ पर उसने अपना जॉब शुरू कर दिया था. 
   बाजू वाले ने दस का एक नोट उसकी ओर बढ़ाया......पर देते समय उसकी उँगलियों ने नोट को किन्नर के पास पहुँचने से पहले ही आज़ाद कर दिया था. नोट नीचे गिरा ...युवक ने उठाकर पुनः उसकी ओर बढ़ाया. इस बार किन्नर ने मुस्कराकर नोट लेने से इनकार कर दिया. युवक ने आग्रह किया तो किन्नर ने बड़े विश्वास के साथ कहा -"वह मेरा नहीं है ..."
    युवक ने पुनः आग्रह किया- "नाराज़ हो क्या ...ले लीजिये ..."
    किन्नर ने मृदुता से कहा-" मैं नाराज़ बिलकुल नहीं हूँ ....वह नोट मेरे लिए था ही नहीं ...होता तो क्या आपके हाथ से छूट जाता  ..."   
    ईश्वर के प्रति किन्नर की दृढ़आस्था का पाठ मेरे लिए किसी गुरु उपदेश से कम न था. इस जरा सी घटना ने मेरे मन में उसके प्रति आदर उत्पन्न कर दिया था. यदि ऐसी ही आस्था मेरे मन में भी होती तो निश्चित ही मैंने भी अपने सपनों को जी लिया होता .....फ़ेमस स्टूडियो तब दूर न हुआ होता मुझसे.    

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद आत्मीय संस्मरण, के के जी!! सन्तोष पर आस्था का सुहागा!!

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  2. डॉक्टर साहब!
    एक भिखारी को रोज अपनी जेब से कुछ न कुछ देता था.. उसने कभी माँगा नहीं मुझसे, फिर भी... आवाज़ न लगाई कभी, फिर भी.. एक रोज उसके सामने रुका..जेब में खुल्ले पैसे न थे, निकल गया, बिना दिए कुछ.. संजोग दूसरे दिन भी वही हुआ.. और फिर तीसरे दिन बिना देखे ही निकल गया..
    भिखारी ने आवाज़ लगाई... मैं पलटा.. पीछे से पुकारना बुरा लगा था... लौट कर उसके पास आया.. मेरे बोलने से पहले उसने ही कहा," बाबू! आप बोहनी करते हो तो सारे दिन अच्छे पैसे मिलते हैं. दो दिन से आपने नहीं दिया, सिर्फ एक टाइम खाना नसीब हुआ.".. मुझे किसी ने तमाचा मार दिया था सरे आम!! जेब में हाथ डाला और सारे नोट उसके कटोरे में डाल दिया!!

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  3. मांग रहा था गा-गा कर जो भीख,
    दे गया युवक को एक बड़ी सीख।

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  4. वह नोट मेरा नहीं था...! ह्रदय स्पर्शी संस्मरण।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.