मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

ये रिश्ते

 
 
   लड़के को चोट लगी तो दर्द से कराह उठी लड़की, और जब दिल दुखा लड़की का तो तड़प उठा लड़का। बचपन में देखी लैला-मजनू की नौटंकी के कुछ दृष्य आज भी याद हैं मुझे। मगर मोहब्बत की दीवानगी और इबादत के ऐसे किस्से अब कहाँ? आदिवासी गाँव कुआँपानी की किशोर लड़की ने कभी नौटंकी नहीं देखी अलबत्ता लैला-मजनू की अमर मोहब्बत के बारे में ज़रूर सुन रखा था उसने। कुआँपानी, यानी बस्तर के ऊँचे पहाड़ों की तलहटी में बसा छोटा सा आदिवासी गाँव।
    जंगल में हिन्नी सी घूमने वाली निर्भीक किशोरी को एक दिन कॉलेज में एडमीशन के लिये एक बड़े से गाँवनुमा कस्बे में जाना पड़ा। कॉलेज की इत्ती बड़ी बिल्डिंग देखकर ही लड़की के होश उड़ गये। जैसे-तैसे लड़की ने एडमीशन फ़ॉर्म लिया ...पर अब परेशान, कैसे भरूँ इसे?
   लड़के को लगा कि लड़की को किसी के सहयोग की आवश्यकता है। ऐसे अवसर को भला कौन लड़का हाथ से जाने देना चाहेगा? लड़का पास आया, बड़ी विनम्रता से बोला- “लाइए, मैं भर दूँ!”
   जंगल की हिन्नी कुछ सकुचाई फिर बिना कुछ बोले हाथ का फ़ॉर्म लड़के के सुपुर्द कर दिया। लड़का पूछता रहा, लड़की बताती रही, और फ़ॉर्म भरता गया। जब तक फ़ॉर्म पूरा हुआ तब तक लड़के के पास हिन्नी की सारी जानकारी आ चुकी थी। अपने गाँव से बाहर के किसी मरद से यह उसकी पहली मुलाकात थी।
   मुलाकात अगले दिन फिर हुई, उसके अगले दिन भी हुई ....रोज हुई ... होती रही।
   चार साल हो गये मुलाकात होते। इस बीच लड़की ने अपनी ज़िन्दगी के पाँच मौसम देख लिये थे। पाँच मौसमों की अलग-अलग तासीर ने लड़की की मोहब्बत को पर दे दिये थे। जंगल की हिन्नी के पास अविश्वास का कोई कारण नहीं था ....एक दिन उसने लड़के को सौंप दिया अपना सब कुछ। पहाड़ी नदी बह चली पूरे वेग से। बह चली ..बहती रही ....बहती रही ...ख़ूब बही ......  
   फिर एक दिन लड़की मैना बन गयी। बस्तर की गाने वाली मैना। वह लड़के को एक गीत सुनाने लगी ..मधुरगीत....सहज प्रेम का मधुर प्रेमगीत। लड़के को गीत अच्छा नहीं लगा। उसे रिश्तों के व्यापारिक स्वरूप में गहरा यकीन था। उसकी रगों में बहने वाले ख़ून में कुशल व्यापारी के रिश्ते निभाने की काबिलियत थी।
   लड़की गीत गाती रही ... उसने सुन रखा था कि मैना पक्षी अपने जीवन में केवल एक ही जोड़ा बनाते हैं इसलिये जंगल की हिन्नी पूरे यकीन और आत्मविश्वास के साथ गीत गाती रही।
   एक दिन लड़के ने मैना को बुलाया, मैना उड़ कर झट उसके पास आ गयी। लड़का उसे लेकर पास के एक जंगल में गया। लड़की आज छठा मौसम देखने वाली थी। जंगल में पहुँचते ही लड़का एक बहेलिया बन गया। उस दिन मैना ने अपनी ज़िन्दगी में पहली और अंतिम बार पतझड़ को देखा ...अनुभव किया ....और फिर उड़ गयी ...एक अनन्त यात्रा पर। वह सारे मौसमों के अनुभवों की सीमा से दूर चली गयी।
   अगले दिन समाचार पत्र में लोगों ने पढ़ा- “जंगल में एक अज्ञात लड़की की लाश पायी गयी”।
   पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर ने लड़की की निश्चल देह को एक बार देखा फिर भरे कण्ठ से बुदबुदा कर अपने आप से कहा –“जंगल, शिकार और शिकारियों के ये रिश्ते कोई हुक़ूमत कभी ख़त्म नहीं कर सकती।”
   मैना तो उड़ गई। पर उसकी आत्मा आज भी मुस्कराकर पूछती है शिकारी से- “सुनो, मोहब्बत के चमन में पाँच ही मौसम काफ़ी नहीं थे क्या?”

यह फ़िक्शन नहीं, एक सच्ची घटना है...और आज मैं बेहद दुःखी हूँ।

 
 

शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

आत्महत्याओं का दौर

 

दुःखी होकर
पुजारी के मुखौटों से
आत्महत्या कर ली है
मन्दिर के देवता ने,
ठीक उसी तरह
जैसे
राष्ट्रवाद,
शुचिता,
सदाचरण,
निष्ठा,

सद्भावना .......

और चरित्र जैसे शब्दों नें
आत्महत्या कर ली है।
अब
कोई अशोक नहीं निकलता
भीड़ से,
न जन्म लेता है
कोई कृष्ण
किसी बन्दीगृह से।
किसी भिखारी की भूख की पीड़ा का
क्या अनुमान लगा पायेगा
कोई मोटा।
किसी लक्ष्मीपुत्र से
क्या आशा की जाय
राष्ट्रवाद, शुचिता, सदाचरण, निष्ठा,
सद्भावना और चरित्र की।
इन लुभावने शब्दों को तो
दफ़न कर दिया है
तथाकथित राष्ट्रभक्तों ने।

आप

मुझे राष्ट्रद्रोही कह सकते हैं 

पर यह सच है

कि मुझे

अगले चुनाव के लिये
नहीं दिखता कोई ऐसा चेहरा
जिसे दे सकूँ

अपना बहुमूल्य मत।
मेरी चिंता पर

एक अज़ब सी ख़ामोशी है,

पूरे परिदृष्य में

बेशर्मी का आलम है 
और राष्ट्रवाद

लाल हो गया है
पता नहीं
गुस्से से
या शर्म से
या

अपनी पीठ और पेट में भोंके गये
नेज़ों से बहते ख़ून से।

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

गढ़िया पहाड़ से बस्तर राजभवन तक

 

इतनी बड़ी  हो गयी हूँ ..आज तक कभी गढ़िया पहाड़ पर नहीं चढ़ी..कोई मुझे अपने साथ नहीं ले जाना चाहता। अब मैं बच्ची नहीं हूँ ...हिमालय पर भी चढ़ सकती हूँ ... 

 

बड़े पापा को पटाना पड़ेगा ....कोशिश करके देखती हूँ .....

 

इस बार तो गढ़िया पहाड़ पर चढ़ना ही है...

बड़े पापा के साथ कहीं जाना हँसी-खेल नहीं ...इतनी नसीहतें ...इतने लेक्चर्स ...उफ़्फ़्फ़्फ़ ....

पर जाना है तो रास्ते भर उनके लेक्चर्स भी झेलने ही पड़ेंगे ...और कोई चारा नहीं ....

 

पर इन कपड़ों में ? सवाल ही नहीं उठता ....

 

आज का दिन अच्छा है। मात्र चौबीस मिनट की बहस के बाद ही तय हो गया कि मुझे क्या पहनकर जाना है। ...और अब मैं कुमारी विदुषी वाजपेयी गढ़िया पहाड़ पर चढ़ने ही वाली हूँ ...

 

तो ये चली मैं ...

अरे ! ये तो उतना मुश्किल भी नहीं है ...ख़ामख़्वाह ही लोगों ने हउवा बना कर रखा है।

मैं तो दौड़कर भी चढ़ सकती हूँ ... 

 

अरे ! यहाँ तो एक तालाब भी है..वह भी कमल से भरपूर

 

बड़े पापा! अभी कितना और चलना है?

 

हाय राम ! अब नहीं चल सकती ....यह वाकई मुश्किल है ....

 

लीजिये ...शुरू हो गया लेक्चर ..

अभी हम लोग एक पत्थर पर बैठे हैं...पास में बड़े पापा की केवल शर्ट का एक हिस्सा भर दिख रहा है ...मगर उनके लेक्चर का एक-एक शब्द कानों में आ रहा है। सुनना ज़रूरी है क्योंकि बीच-बीच में बड़े पापा के प्रश्नों के ज़वाब जो देने पड़ते हैं...

 

लेक्चर के बाद अब डाँट ..

गुनाह यह है कि मैं पानी की बोतल साथ लेकर नहीं आयी ...पर ये बड़े लोग यह क्यों नहीं सोचते कि अगर मैं भूल गयी तो ख़ुद भी तो थे याद दिलाने के लिये।

 
 
 

...और ये लीजिये ...चढ़ाई फ़तह .....हुर्र्र्र्र्रे ! मैं इस वक़्त टॉप पर हूँ

 

गढ़िया पहाड़ पर है एक छोटा सा मगर बहुत पुराना ऐतिहासिक मन्दिर

जिसमें प्रवेश से पहले इस बड़े तालाब के पानी से पैर धोना आवश्यक है।

अच्छा लग रहा है यहाँ आकर ....

 

देवी के मंदिर से पहले शिव जी के दर्शन करती हूँ ..

 

आदिशक्ति की प्रतीक दुर्गा !

दुर्गा दुर्गति नाशिनि जय-जय, काल विनाशिनि काली जय-जय, उमा रमा ब्रह्माणी जय-जय ...

 

गढ़िया पर्वत पर कभी किला रहा था। यह सिंह द्वार उसी किले का है।

 

यहाँ तो उतरना भी मुश्किल है ...

 

देवी के ये नन्हें भक्त! छोटी वाली तो कैमरा देखते ही शरमा जाती है

आख़िर उसका ऐसे ही फ़ोटो लेना पड़ा।

 

आज हम जगदलपुर में हैं ।

एक घर के अहाते में पपीते के पेड़ पर नये जूते टाँगने का यह तरीका गज़ब का लगा।

 

बस्तर राजदरबार का एक दृष्य़ !

वर्तमान राजा कमल भंज देव जी दशहरे के दिन अपने राज्य की प्रजा के साथ ...

जी हाँ ! राजे-रजवाड़े तो अब रहे नहीं ...पर उन दिनों की याद ताज़ा करने में हर्ज़ ही क्या है जबकि बस्तर के आदिवासी आज भी राजा को भगवान मानकर पूजते हैं।

कभी-कभी तो लगता है कि भारत में मोनार्ची के लिये सबसे उपयुक्त माहौल कभी समाप्त नहीं होगा ...संभावनायें अभी भी बनी हुयी हैं। मैं राजा प्रवीर भंज देव जी की देशभक्ति से प्रभावित हूँ। यह बस्तर के राजा के ही सद्प्रयास थे कि बस्तर की विश्व प्रसिद्ध लौह खदान और अन्य प्राकृतिक संपदायें निजाम हैदाराबाद के पंजों में जाने से बच गयीं। बस्तर की धरती को जी-जान से प्यार करने वाले राजा प्रवीर भंज देव की निर्मम हत्या तत्कालीन स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक सरकार द्वारा कर दी गयी थी।

हाँ ! तो मैं मोनार्ची की बात कह रही थी। यूँ भी, ज़रा गहराई से देखें तो आज की मल्ट्यार्ची(द सो काल्ड डेमोक्रेसी) भी किसी निरंकुश मोनार्ची से कम नहीं .....जो हर संभव-असंभव तरीके से देश को लूटने में लगी हुयी है। भारत को उसकी ही धरती के गद्दारों से ख़तरा रोज-ब-रोज बढ़ता ही जा रहा है। आज मैंने आदि शक्ति से प्रार्थना की है कि वह भारत के नेताओं, उद्योगपतियों, उच्चाधिकारियों और मतदाताओं को सद्बुद्धि प्रदान करे।

---- विदुषी वाजपेयी    
 

रविवार, 21 अक्टूबर 2012

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा!

यह ग्रीन स्टोन नहीं

जल  है ...

एक पवित्र सरोवर का .... 

जिसका नाम है सोनई-रूपई सरोवर   

 

पवित्र सरोवर के जल में ...

अपनी जीवन लीला जो जीते हुये हरित शैवाल 

 

थोड़ा और ज़ूम करके लिया गया चित्र

शैवाल अब और भी दृष्टव्य हो गये हैं

 

उसी सरोवर का विहंगम दृष्य़

 

कांकेर राजपरिवार की आराध्या देवी के दर्शन से पूर्व आवश्यक है

पवित्र सरोवर के जल में चरण प्रक्षालन

 

यह पवित्र सरोवर है ....

कांकेर स्थित गढ़िया पर्वत के ऊपर

जिसके नाम पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गढ़िया महोत्सव का उद्घाटन माननीय मुख्यमंत्री जी के द्वारा किया जाता है।   

 

पादप्रक्षालन के साथ ही मुखप्रक्षालन भी ... 

 

देवी दर्शन से पूर्व एक बार गुड़ाखू कर लूँ तो कुछ बात बने

गुड़ाखू मतलब

गुड़ और तम्बाखू का मिश्रण

समीप बैठी कन्या के हाथ में जो छोटी सी डिब्बी दिख रही है ...उसी में है गुड़ाखू। छठे क्रम के चित्र में गुड़ाखू करके सरोवर में ही कुल्ला करते हुये लोग स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।  

 

बात श्रद्धा की है

जब सभी मुख-पाद प्रक्षालन कर ही रहे हैं तो मैं ही क्यों पीछे रहूँ

 

भारतीय समुदायों में शक्ति की पूजा का विशिष्ट महत्व है

नवरात्रि के अवसर पर ब्रह्माण्ड की रचना करने वाली ..उसका संचालन करने वाली ...और उसको पुनः निराकार में लीन कर देने वाली शक्ति के स्मरण ...पूजन ...और आराधन के लिये

गढ़िया पर्वत पर स्थित शक्ति की प्रतीक .....

देवी का ऐतिहासिक मन्दिर

 

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

क्या एक लड़का और लड़की सिर्फ़ दोस्त हो सकते हैं?

“....उसने इतने दिलकश अन्दाज़ से पूछा। मेरा दिल किया कि सारी ज़िन्दगी के लिये अपना गला ख़राब कर लूँ।”

“.....इस बार फिर सीढ़ियों पर तीन लोगों का जमघट था – वह, मैं और ख़ामोशी।”

“....वह मेरे सेंसेक्स जैसे बर्ताव को देख कर उलझन में थी जो लगातार उतार-चढ़ाव से भरा था।”

सत्रह वर्ष के किशोर सुमरित शाही के प्रथम उपन्यास “जस्ट फ़्रेण्ड्स” के हिन्दी संस्करण को दो बैठकों में आज ही ख़त्म किया है। और ये पंक्तियाँ उसी की हैं। किशोरावस्था की दहलीज पर ख़ड़ी नयी पीढ़ी कुछ स्पेस की आज़ादी चाहती है ...ऐसे  स्पेस की जिस पर सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी का अधिकार हो। किशोर लेखक द्वारा सत्य को स्वीकारने की ईमानदारी प्रभावित करती है। भारतीय समाज की नयी पीढ़ी परिवर्तन के एक संक्रान्ति काल से गुज़र रही है, अपनी बनायी मान्यताओं को स्थापित करने की ज़द्दोज़हद से दो-चार हो रही है। पैरेण्ट्स के सामने किशोर भावनाओं का ईमानदार ख़ुलासा ...... कुछ चिंतित करता है ...तो कुछ समझने का अवसर भी देता है। यह सच है कि हम अपने आदर्श किसी पर थोप नहीं सकते.... पर भटकने की चिंता किसी भी अभिभावक को परेशान कर सकती है।

रोशनी के लिये तरसती लड़कियाँ कई प्रकार की गुफ़ाओं से बाहर आ चुकी हैं ...पर अभी शायद अपना नया रास्ता तय करने में उन्हें वक़्त लगेगा।

उपन्यास मूल अंग़्रेज़ी में लिखा गया है, हिन्दी तर्ज़ुमा बाद में किया गया इसलिये कपड़े बदलने के बावज़ूद अंग्रेज़ी सोच की आत्मा बरकरार है। फिर भी शिल्प अच्छा लगा। हम इसे उत्कृष्ट लेखन की श्रेणी में तो नहीं रख सकते पर लेखक के अन्दर का लेखकीय पोटेंशियल ज़रूर उभर कर सामने आ चुका है। सुमरित को बधाई और शुभकामनायें .... हम एक उभरते हुये अच्छे लेखक को देख पा रहे हैं।

नई पीढ़ी के गढ़े नये प्रतीक आकर्षक लगते हैं –“ऑस्कर विनिंग स्माइल” ...

और कुछ प्यारे-प्यारे ज़ुमले भी-

“...वह हंसी मैं हंसा और उलझन सुलझ गयी”

“...वह हंसा, वह भी हंसी और मुझे उदासी के साथ मज़बूरन हंसना पड़ा"

पूरे उपन्यास में ऐसा लगता रहा जैसे कि भरी वारिश में रंग-बिरंगे कागजों की नाव बनाकर उफ़नती नदी में छोड़ दिया गया हो... इस विश्वास के साथ कि हर नाव को अपने गंतव्य तक पहुँचना ही है। ...पर सच तो यह है कि उनमें से कुछ डूब जाती हैं .....कुछ हिचकोले खाती हुयी आगे बढ़ती हैं ...... मंज़िल तक शायद ही कोई पहुँच पाती है। पर इस सबके बीच मुझे आशा की एक किरण दिखायी देती है ...नयी पीढ़ी का भटकाव कहीं थमता दिखायी देता है ....और लगता है कि भारतीय मूल्य इतनी आसानी से समाप्त होने वाले नहीं। बोज़ा का ख़त सबूत है इसका और बहुत मार्मिक भी, सच पूछो तो इस उपन्यास की आत्मा है यह ख़त -

“मेरे प्यारे से गमी बियर आर्यन!
मैं बात कहने से पहले कुछ बातें साफ कर देना चाहती हूँ ...
.....
...


अब मि. आर्यन यह सूट पहनने के लिये तैयार हो जाओ, क्योंकि इसे पाने के लिये मुझे उस लूज़र रीतेश के डोर्म में, बत्तियाँ बन्द होने के बाद पूरे एक ख़तरनाक घण्टे तक ताक-झाँक करनी पड़ी। फिर इसे लेने के लिये पूरे तीस मिनट तक उसके साथ फ़्लर्ट किया। तो इसके सिवा कुछ और पहना तो मरने के लिये तैयार हो जाना।

और हाँ, मैं अब भी कल के लिये तुझे नापसन्द करती हूँ, तुझसे नफ़रत करती हूँ और तुझसे सहमत भी नहीं हूँ। सात बजे नाश्ते के लिये आ जाना। आज तुम्हारा उसके साथ आख़िरी दिन है; इसे पूरे स्टाइल के साथ मनाओ। ऑल द बेस्ट ..और मुझे तुमसे नफ़रत है।

                 - बदकिस्मती से तुम्हारी बेस्ट फ़्रेण्ड बोज़ा”

सुमरित ! एक बार फिर मेरी शुभकामनायें! मैं आपके अन्दर बहुत सी ईमानदार सम्भावनायें देख पा रहा हूँ।


 

तृषित सिंधु

जिस तरह साहित्य से समाज के चिंतन की दिशा प्रकट होती है उसी तरह व्याधियों के प्रकार से समाज के सामाजिक, मानसिक और आर्थिक  स्वास्थ्य की  स्थिति  प्रकट होती है। क्लैव्यता कोई नयी समस्या नहीं है किंतु जो वर्ग इससे जूझ रहा है वह भारतीय समाज के लिये प्रकृति का स्पष्ट संकेत है। संकेत है कि उसे कई क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिये स्वयं को तैयार करना होगा। आज की रचना भारी मन से समर्पित है उसी वर्ग को ...  
चाँदनी रात हो
या हो झरने की कल-कल,
खिली हो कुमुदिनी
सरोवर में सिर उठा
उझकते हों कमल-दल
मोहक, सुगन्धित हों सुमन  
दृष्य मनभावन
या हो स्मृति
एकांत हो  
या लज्जा
यहाँ तक
कि चुम्बन भी  
भूले उद्दीपन।  
सोये हैं कामदेव
रति भी उनींदी सी।   
हो गये अभाव
जो थे भाव कभी,
विकास के पथ पर अड़े
याचक बन हैं खड़े
आज के कुबेर भी।
तृषित हुये सिंधु
हुयी सरिता व्यथित
हो अचम्भित
आर्यपुत्र
देखते नवयुग का
एक
ऐसा अन्धेर भी।  
 
साहित्य में, करवट ली
श्रृंगार ने पोर्न हो
हास्य ने निर्लज्ज हो।   
व्यंग्य में वह बात नहीं   
अवगुंठन अब रास नहीं
भावों का भास नहीं।  
काम भी
है रह गया
बस, एक काम भर 
गोया
करना हो अनिवार्य अंकन
अपनी उपस्थिति का 
उपस्थिति पंजी में।   
या अनिवार्य हो देना
यूरिया और फ़ॉस्फ़ेट
हो चले निस्तेज
जीवनदायिनी शस्य को
जीवन देने की विवशता में।
 
अवांछित रूप से
निष्काम होते काम से
हो व्यथित
पूछ दिया एक दिन स्वप्न में बिहारी से -
हे रीतिकाल के रतिकला काव्य विशेषज्ञ!  
उद्दीपन के ये तत्व
तत्वहीन हो गये हैं ...
रूपसी षोडसी भी
खद्योत हो रही है ...
भरी-पूरी नदी
अब रेत हो रही है ...  
कलाहीन हो काम की कला  
उद्दीपनशून्य हो रही है।
 
महंगे-महंगे चित्रों में खोजते हैं अर्थ
लगाते हैं बोलियाँ
ये कुबेर,  
और खेलते रहते हैं अर्थ
आँख मिचौलियाँ।
पोर्न की खाद
देती है  
क्षण भर की उत्तेजना
फिर वही
इरेक्टाइल डिसफ़ंक्शन
प्री-मैच्योर इजेकुलेशन
लॉस ऑफ़ लिबिडो ........
हक़ीम के नुस्ख़े नाकाम हो रहे हैं
बीस के युवक
यूँ ही तमाम हो रहे हैं।
भूख से पहले ही
परोस दिया इतना
कि भूख ही मर गयी
व्यंजन
स्वादहीन लगते हैं।  
पानी से
बुझती नहीं अब प्यास
मीठे अंगूर भी नमकीन लगते हैं।
इस पीढ़ी के     
नायक-नायिकाओं के लिये
कुछ नया सुझाइये,
हे कामकला शिरोमणि!  
शून्य हृदयों
और रोबोटमय मनमयूरों के लिये
कुछ सुपरसोनिक से नव उद्दीपक गढ़िये।
 
प्रलाप से हो द्रवित
बोले बिहारी-
युग हुआ नव
हुये प्रतीक नव  
हो गये उद्दीपक नव
काम नव
कला नव
नित्यप्रति नव-नव  
नितांत नव  
किंतु नहीं चिंतनीय,   
यह तो
सन्यास का है विषय। 
बढ़ गये सब
आगे
काव्य से ...
श्रृंगार से ... 
इरोटिक कथाओं से ...
काम के साक्षात् दृष्यों की ओर।
यात्रा है
होने ही वाली पूर्ण
मत लगाओ मन
इस अनहोनी व्याधि की ओर
अब तो
स्वयं बढ़ेगा काम
संभोग से समाधि की ओर।