वह
निराकार है ....
अनादि
और अखण्ड है । 
उसके
अस्तित्व का आभास भर हो पाता है हमें ...
कभी कम
...कभी अधिक । 
यह आभास
जिसे हो
पाता है अधिक 
वही
हमारे लिये अवतार हो जाता है ईश्वर का । 
उसकी
लीलायें 
पथ
प्रशस्त करती हैं 
हमारे
जीवन का ।
उसके
कर्म 
हो जाते
हैं स्तुत्य और अनुकरणीय 
बन जाते
हैं बिम्ब 
और हो
जाते हैं धर्म । 
अवतार 
कई हो
सकते हैं 
किंतु
ईश्वर ! 
वह तो
एक ही है पूरे ब्रह्माण्ड का । 
जब-जब 
त्रस्त
होती है मानवता  
दुःख 
हो जाते
हैं पर्वत से भी ऊँचे 
तब-तब
अवतरित होता है कोई 
मानवता
की रक्षा और पुनर्स्थापना के लिये । 
कभी
मथुरा में .....
कभी
अयोध्या में ......
कभी
लुम्बिनी में ..........
कभी
येरुशलम में .......
कभी
...........
कहीं भी
अवतरित हो सकता है वह 
धरती के
किसी भी कोने में, 
देने के
लिये ... हमें सम्बल 
करने के
लिये ... हमारे हिस्से के संघर्ष 
और सहने
के लिये ... हमारे हिस्से की पीड़ाओं को । 
वह
पहचानता है परपीड़ाओं को 
हो जाता
है द्रवित 
और कूद
पड़ता है मुक्ति के संघर्ष में । 
तब 
बह
निकलती है एक धारा
उसके
पवित्र संदेशों की ......
किंतु
कितने लोग 
समझ
पाते हैं 
उन
संदेशों को ? 
पहचान
पाते हैं 
अपने
उद्धारकर्ता को ? 
कभी
मारा जाता है वह 
बेहेलिये
के तीर से 
कभी
भटकता है वनों-पर्वतों में 
कभी
लटकाया जाता है क्रूस पर 
तब 
इस
नश्वर काया से निकल कर 
समा
जाता है वह 
सबकी
आत्माओं में 
और हो
जाता है व्याप्त ।  
उसके
पवित्र संदेश 
आज भी
प्रकाशित करते हैं 
प्रकाशित
करते रहेंगे 
इस
विश्व को 
और 
पीड़ित
मानवता को । 
व्याप्त हो सब में वह बार-बार झलकता निर्मल अंतर में ,पर चूक जाते हैं हम कहीं न कहीं हर बार - कैसे हो साक्षात्कार !
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