जब कोई महिला मुख्यमंत्री किसी निष्ठावान और प्रतिभाशाली चिकित्सा अध्येता के सुनियोजित यौनदुष्कर्म और क्रूरहत्या के विरोध में चिकित्सकों के प्रदर्शन पर टिप्पणी करती हुयी कहती है कि “वह तो मर चुकी है, अब वह कभी वापस नहीं आएगी । अब आप लोग प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं ? मैंने उसके परिवार को पहले ही दस लाख रुपये दे दिए हैं, अब आपको प्रदर्शन करना है तो करते रहो” ...तब पदीय दायित्वों की उपेक्षा, संवेदनहीनता, अन्याय, अराजकता और दमन के पिछले सभी मानक भारी विस्फोट के साथ टूट-टूट कर बिखरने लगते हैं । संविधान की हत्या का यही वास्तविक स्वरूप है ।
पश्चिम
बंगाल में ममता बनर्जी की अराजक सत्ता ने अपने ही बनाए कलंकों के पिछले सभी मानक
तोड़ दिए हैं । आश्चर्य यह है कि इस सबके बाद भी वह अपने मुख्यमंत्री पद का
दुरुपयोग करती हुई अपराधियों को बचाने और अपराध के प्रमाणों को नष्ट करने में
अपराधियों को सहयोग कर रही है ।
कोलकाता
मेडिकल कॉलेज की इतनी वीभत्स घटना ने हर किसी को झकझोर कर रख दिया है । यह घटना आर्थिक
और शैक्षणिक भ्रष्टाचार ही नहीं बल्कि ड्रग्स, देह-व्यापार और मानव अंगों के व्यापार की गोपनीयता को बनाए रखने
के क्रम में आभिजात्य वर्ग के लोगों द्वारा संगठित प्रयासों का एक छोटा सा परिणाम
भर है, वास्तविक स्थिति तो और भी भयावह है जो अभी तक अप्रकाशित है और
आगे भी कभी प्रकाशित नहीं हो सकेगी । यदि इन सभी समस्याओं के मूल को समाप्त न किया
गया तो स्थितियाँ और भी भयावह हो सकती हैं ।
शासन और
प्रशासन में से किसी ने भी अपने संवैधानिक दायित्वों का लेश भी निर्वहन किया होता
तो विश्व भर को दहला देने वाला इतना दुर्दांत अपराध घटित ही नहीं हुआ होता । इस
हाई-प्रोफ़ाइल अपराध के घटित होने के पश्चात् हुये घटनाक्रमों की शृंखला से हर किसी
को स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि अपराधियों के अवैध व्यापारों को निर्लज्ज और क्रूरसत्ता
का महत्वपूर्ण संरक्षण प्राप्त होता रहा है । इस घटना के विरुद्ध बंगाल में जनाक्रोश तो है पर उसके स्थायी
समाधान के लिए जो संगठित प्रयास किए जाने चाहिए उसका प्रायः अभाव ही अभी तक दिखाई
दिया है ।
उच्चशिक्षा
प्राप्त पुलिस के उच्चाधिकारी, स्थानीय कलेक्टर, प्राचार्य डॉक्टर संदीप घोष और घटना में लिप्त चिकित्सा छात्र इतने अमानवीय और संवेदनशून्य
कैसे हो सकते हैं ? …किंतु प्रमाण तो यही बताते हैं
कि ये सभी लोग जघन्य अपराध में सहभागी रहे हैं । उच्चशिक्षा और जघन्य अपराध ? सामान्यतः माना जाता है कि ये दोनों विरोधाभासी हैं, इनके पारस्परिक तालमेल की कोई सहज स्थिति नहीं हो सकती, किंतु तालमेल देखा जा रहा है, वह भी अटूट तालमेल । उच्चशिक्षा और उच्चपदीय दायित्वों के साथ
पशुता का तालमेल क्या हमें कुछ सोचने और मंथन करने के लिए विवश नहीं करता ? गड़बड़ी कहाँ पर है ? दोष शिक्षा में है, या संस्कारों में, या शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की पात्रता में, या इन सबके लिए उत्तरदायी राजसत्ता की नीतियों और उनके
क्रियान्वयन में ? उच्चशिक्षित व्यक्ति इतना
निरंकुश, स्वेच्छाचारी और पशु से भी
किसी अधम कोटि का क्यों है ? स्थायी समाधान के लिए मंथन तो
करना ही होगा ।
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