स्वयंभू किसान नेता राकेश टिकैत ने मोदी को चेतावनी दे दी है कि वह बांग्लादेश की तरह ही मोदी की सत्ता को उखाड़ फेकेगा । टिकैत की पिछली गतिविधियों और उन पर प्रधानमंत्री मोदी की निरुपायता को देखते हुये उसकी यह धमकी गम्भीर और पूर्ण आत्मविश्वास से भरी हुई है । मोदी की सत्ता को उखाड़ फेकने के लिए सारे परस्पर विरोधी भी एक साथ खड़े दिखायी देते रहे हैं इसलिए टिकैत की धमकी और भी गम्भीर है ।
बांग्लादेश
और भारत की परिस्थितियों में कुछ समानताएँ या असमानताएँ हो सकती हैं, किन्तु कुछ घटक तो बिल्कुल एक जैसे ही हैं, यथा – हिन्दुत्वद्वेष और कट्टरवादी मुसलमानों की हुंकार में
हुंकार भरते पूरे विपक्षी दल । हसीना के साथ पूरा देश नहीं था, मोदी के साथ भी पूरा देश नहीं है । हसीना के साथ उनके अपने ही
लोगों ने विश्वासघात किया, मोदी के साथ भी उनके ही अपने
लोग विश्वासघात करने के लिए तैयार बैठे हैं । हसीना अपने राजनीतिक शत्रुओं की
गहराई को समझ नहीं सकीं, मोदी भी कहाँ समझ पा रहे हैं !
लोकसभा
चुनाव में उत्तरप्रदेश के परिणामों ने भाजपा विरोधी दलों को उत्साहित और ऊर्जावान किया
है । भाजपा में अंतरकलह, पद को लेकर खींचतान और
संगठनात्मक दुर्बलताओं को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि उसका पथ सरल होने वाला है ।
भाजपा के
लोगों को अपनी सत्ता के प्रति जन-असंतोष की गम्भीरता पर विचार किए जाने की
आवश्यकता है । चुनाव में जीत को जनसंतोष और लोकप्रियता का प्रतीक नहीं माना जा
सकता । चुनाव जीतना जटिल घटकों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का गणितीय परिणाम है ।
इसका तथ्यों की वास्तविकता से उतना ही सम्बंध है जितना कि स्टेटिस्टिक्स का अंकगणितीय
निष्कर्षों से । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो भाजपा को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि नदी
के विभिन्न स्थानों की गहराइयों के औसतमान को पूरी नदी की गहराई मानकर उसे पैदल ही
पार करना संकट का कारण बन सकता है ।
वाराणसी और
अयोध्या में मतदाताओं के जन-असंतोष को समझे जाने की आवश्यकता है । एक बहुत
महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि जनता अराजक तत्वों के पक्ष में मतदान क्यों करती है
? बहुत अच्छे और सुलझे हुए लोग चुनाव क्यों हार जाते हैं ?
कश्मीर
समस्या के समाधान के लिए भाजपा के प्रयास सराहनीय रहे पर राष्ट्रीय स्तर पर आम
जनता को भाजपा से कुछ नीतिगत अपेक्षायें थीं जो पूरी नहीं हो सकीं । एक देश एक
कानून, साम्प्रदायिक उन्माद, हिन्दू-उत्पीड़न, अवैध विदेशियों के लिए एक स्पष्ट नीति, न्यायपालिका और ब्यूरोक्रेसी में भ्रष्टाचार जैसी अपेक्षाएँ
पूरी नहीं हो सकीं । नेताओं में सत्ता का अहंकार और जनता की उपेक्षा भी ऐसे दो
महत्वपूर्ण घटक हैं जिन्होंने भाजपा के अपने ही कार्यकर्ताओं को विमुख और उदासीन
कर दिया है । भाजपा आज भी इस विषय पर आत्मावलोकन क्यों नहीं करना चाहती ? कदाचित इसका एक कारण तो नेताओं की यह धारणा है कि राष्ट्रवादी हिन्दुओं
के पास भाजपा को वोट देने के अतिरिक्त और कोई विकल्प है ही नहीं, उन्हें झक मारकर भाजपा को ही वोट देना होगा । लेकिन भाजपा को भी
यह सोचना होगा कि कौन सी भाजपा ? क्या वह भाजपा जो भारत को हिन्दूराष्ट्र
घोषित करने के विषय पर कभी गम्भीर नहीं हो सकी ? क्या वह भाजपा जिसका बहुत कुछ कांग्रेसीकरण हो चुका है ? क्या वह भाजपा जिसमें भारतीय जनसंघ के मौलिक सिद्धांतों और आदर्शों
का अब कोई मूल्य नहीं रहा ? राष्ट्रवादी हिन्दू किस भाजपा को
वोट दे ? भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह अच्छी
तरह समझने की आवश्यकता है कि राष्ट्रवादी लोगों ने वैकल्पिक समाधानों के बारे में गम्भीरता
से विचार करना आरम्भ कर दिया है ।
बहुत से लोग
हैं जो मतदान में ही विश्वास नहीं रखते । यह और भी गम्भीर विषय है, स्वतंत्रताप्राप्ति के दशकों के बाद भी राजनीतिक दल विचारवान जनता
में अपनी स्वीकार्यता क्यों नहीं उत्पन्न कर सके ? आज की शिक्षित और विचारशील युवा पीढ़ी मतदान करने के पक्ष में क्यों
नहीं है ? मतदान के प्रति उनका विकर्षण बहुत कुछ कहता है जिसे सभी दलों के
नेताओं को समझने की आवश्यकता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.