भारत की सुव्यवस्थित और सुसंस्कारित विवाह संस्था धीरे-धीरे अपना मूलस्वरूप खोती जा रही है । इसका प्रभाव पारिवारिक संरचना पर भी पड़ा है और बच्चों के समाज-मनोवैज्ञानिक विकास पर भी । सब कुछ विकृत होता चला जा रहा है, चाहे वह संयुक्त पारिवारिक संरचना हो या सामाजिक संरचना पर पड़ने वाले उसके नकारात्मक प्रभाव । मूल्यविहीन आधुनिक शिक्षा और शोपेन ऑर के शोषणमुक्त एवं सत्ताविहीन समाज की संरचना में विवाह का कोई स्थान न होने के नव-दर्शन से भारतीय विवाह-संस्था की स्थितियाँ और भी जटिल हो गयी हैं ।
पाणिग्रहण
के समय लिये और दिये जाने वाले सात वचनों का नई पीढ़ी के लिये अब कोई औचित्य नहीं
है, वे तो इस पर विचार भी नहीं करना चाहते । यही कारण है कि
दाम्पत्य जीवन में कलह और अंत में विवाहविच्छेद जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं
। विरोधाभास यह है कि आधुनिकता से प्रभावित हिन्दू समाज को वैवाहिक परिणाम वैसे ही
चाहिये जैसे कि आज से सात-आठ दशक पहले के लोगों को मिला करते थे । नई परम्परा में नव-युगलों
ने लिव-इन-रिलेशनशिप को अपनाना प्रारम्भ कर दिया है, किंतु क्या यह पूरी तरह समाधानकारक है!
भारतीय
समाज में लिव-इन-रिलेशनशिप में हो रही संख्यात्मक वृद्धि पर विचार किया जाना
चाहिये । अब तो सरकार ने इसका पंजीयन अनिवार्य करके एक तरह से इसे मान्यता भी प्रदान
कर दी है । आज की युवापीढ़ी तीस वर्ष के आसपास की आयु में विवाह करती है तब तक
युवक-युवतियाँ कच्ची-मिट्टी नहीं रहते, उनकी अवधारणायें परिपक्वावस्था की ओर अग्रसर हो चुकी होती हैं ।
कच्ची-मिट्टी में परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन की जो क्षमता होती है वह अब तीस
वर्ष की आयु में सम्भव नहीं होती । ऐसी स्थिति में नव-युगल लिव-इन-रिलेशनशिप के
माध्यम से एक-दूसरे के भौतिक और मानसिक धरातलों को बहुत समीप से जान लेना चाहते
हैं । यह भारतीय समाज में परिस्थितिजन्य आये जटिल परिवर्तनों के परिणामों में से
एक है ।
आधुनिक
शिक्षाप्राप्त बहुत से लोग जन्मसमय के आधार पर निर्मित जन्मपत्री के गणितीय महत्व
पर भी विश्वास करते हैं । किंतु विवाह के लिए क्या इतना ही पर्याप्त है! क्या
ज्योतिषीय गणनाओं के अतिरिक्त भी किसी अन्य विषय पर विचार किया जाना उपयोगी हो
सकता है! जिन्हें ज्योतिष पर विश्वास नहीं वे किन मानदण्डों का प्रयोग करें!
जैसे-जैसे विवाह
में जटिलतायें बढ़ती जा रही हैं वैसे-वैसे हमें उनके समाधान की दिशा में आगे बढ़ना ही
होगा । निश्चित ही विवाह से पूर्व कई अन्य पक्षों पर भी विचार किये जाने की
आवश्यकता है ।
अंतरधार्मिक
और अंतरजातीय विवाहों के परिणामस्वरूप वंशानुगत रोगों की परम्परा में घाल-मेल एक
आधुनिक समस्या है जिस पर विवाहपूर्व ही गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए । थैलेसीमिया
और सिकलिंग जैसे हीमोग्लोबिनोपैथी से सम्बंधित असाध्य रोगों की वंशपरम्परा से बचने
के लिए हीमोग्लोबिन का इलेक्ट्रोफ़ोरेटिक परीक्षण एक सहज उपलब्ध सुविधा है जिसे
विवाहपूर्व किया जाना चाहिये । यह उतना ही आवश्यक है जितना कि रक्ताधान से पहले
ब्लड-ग्रुप, आरएच-फ़ैक्टर, एच.आई.वी. और एस.टी.डी. के परीक्षण । ध्यान रहे कि हमारी जीवनशैली भी जीन म्यूटेशन
को प्रभावित करती है इसलिये नव-युगल की जीवनशैली में ध्रुवीकरण की सीमा तक विरोधाभास
न हो, यह भी विवाहपूर्व ही विचार किया जाना चाहिये ।
यदि जन्मसमय
के आधार पर निर्मित जन्मपत्री में वर्णित गण (देव, मनुष्य और राक्षस) एवं वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) पर भी गम्भीरता
से विचार किया जाय तो वैवाहिक जटिलताओं की रोकथाम की दिशा और भी सरल हो सकती है ।
लिव-इन-रिलेशनशिप
में युवा-युगल अपने-अपने परिवारों से अलग होकर कुछ वर्षों के लिए एक साथ रहते हैं, इस परम्परा को हतोत्साहित करते हुये इसके स्थान पर
“लिव-इन-रिलेशनशिप विद पैरेंटल फ़ेमिली” पर विचार किया जा सकता है जहाँ युवा जोड़ों
के कई धरातलों पर परीक्षणोपरांत समायोजन की अपेक्षाकृत अधिक अच्छी सम्भावनायें बन
सकती हैं । कई बार केवल खाने-पीने और रहन-सहन की रुचियों में भिन्नताओं के साथ-साथ
राजनैतिक समझ में ध्रुवीकरण से उत्पन्न जटिलतायें भी दाम्पत्यजीवन में कलह और टकराव
का कारण बन जाया करती हैं ।
पति-पत्नी
में से एक वामपंथी हो और दूसरा दक्षिणपंथी तो उनकी प्रतिकूल जीवनशैली और मित्रमंडलियाँ
भी कलह को जन्म दे सकती हैं । एक को रिश्वत लेना-देना सफलता के लिए आवश्यक लगता है
तो दूसरा नैतिकमूल्यों को अधिक महत्वपूर्ण मानता है । एक को केवल रसीली भिण्डी
पसंद है और दूसरे को केवल कढ़ी तो भोजन को लेकर नित्य कलह स्वाभाविक है । कच्ची-मिटी
वाले जोड़ों के युग में सब कुछ ढल जाया करता था, वहाँ समर्पण था, दोनों अपनी-अपनी रुचियों और जीवनशैली में समझौते कर लिया करते
थे पर आजकल ऐसी कोई सम्भावना दूर-दूर तक प्रायः दिखायी नहीं देतीं, इसीलिए परिपक्व हो चुके जोड़ों को एक दूसरे की राजनैतिक समझ और जीवनशैली
के बारे में भी खुलकर चर्चा करने और एक-दूसरे को समझने की आवश्यकता पर भी विचार
किया जाना अपेक्षित है । सबसे अच्छी बात तो यह है कि इन सब झमेलों को छोड़कर हम अपनी
पुरानी सुलझी हुयी जड़ों की ओर ही वापस लौट चलें ।
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