सोमवार, 26 अगस्त 2024

वर्चस्व का संघर्ष

            जब हमारे गमन की दिशा सभ्यता और सहिष्णुता के उत्कर्ष की ओर होती है तब हमारा सबसे कठिन सामना असभ्यता और असहिष्णुता से ही होता है । विचारों और प्रतीकों की दो विपरीत धाराएँ आपस में टकराती हैं जिनसे निकलने वाली चिंगारियाँ गम्भीर चुनौती बनकर हमें रोकती हैं ।

भौतिक प्रतीकों पर होने वाले आक्रमण वस्तुतः विचारधाराओं और जीवनशैलियों पर आक्रमण हुआ करते हैं । प्रतीकों को मिटाने के प्रयासों से विचारधाराओं को तो मिटाया जा सकना सम्भव नहीं तथापि विचारधाराओं का दलन और उनपर वर्चस्व तो सम्भव है ही । बांग्लादेश में हिन्दूनरसंहार ही नहीं हो रहा, बौद्ध और ईसाई नरसंहार भी हो रहा है, यह वर्चस्व का युद्ध है जिसमें अन्य विचारधाराओं को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सुरक्षात्मक संघर्ष करना होगा । निष्क्रियता या पलायन का प्रयास संघर्ष किए बिना ही पराजय की पूर्व घोषणा है ।

मंदिर और मूर्ति जैसे भौतिकप्रतीक हमारे विचारों एवं जीवनदर्शन को प्रदर्शित करते हैं । यह एक दीर्घ वैचारिक यात्रा का समेकित परिणाम है । हम केवल भौतिक शरीर मात्र ही नहीं होते, कुछ और भी होते हैं जिसके अभाव में हम मनुष्य नहीं हो पाते, पशु भर रहते हैं । मनुष्य होने और पशु बने रहने के बीच संघर्षों और साधनाओं की एक दीर्घ यात्रा होती है । 

बांग्लादेश के जातीय नरसंहार के एकपक्षीय युद्ध में कोई मारा जाएगा, कोई धर्मपरिवर्तन करेगा, और कुछ लोग सुरक्षात्मक संघर्ष करेंगे । बांग्लादेशी अ-मुस्लिमों को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना ही होगा । सदा से ऐसा ही होता रहा है, मानव सभ्यता के इतिहास विघटनकारी शक्तियों से बचने के प्रयासों और संघर्षों से भरे पड़े हैं । जो लोग विघटनकारी शक्तियों के समर्थन में खड़े हैं उन्हें भी पहचानना और उनका प्रतिकार करना आवश्यक है, रणनीति का महत्वपूर्ण भाग है, फिर वे बलराम ही क्यों न हों !

हमारे देवी-देवताओं पर प्रहार, हिन्दू समुदाय को ललकार है ।

“देवी-देवताओं का विरोध करना और उनकी मूर्तियों को तोड़ना हमारे मज़हब में पुण्य का काम है, यह हमारा अभियान है । कोई हिन्दू, ईसाई या यहूदी हमें हमारे धर्म के अनुसार जीने से रोक नहीं सकता । हमें यह अधिकार भारत के संविधान ने दिया है । जिसका अल्लाह में ईमान नहीं है वह व्यक्ति काफ़िर है जिसे पाक रमजान के महीने के बाद घात लगाकर मार डालने का हुक्म है । हम जो भी करते हैं अल्लाह की ख़िदमत में करते हैं, वक्फ़ बोर्ड जो ज़मीन लेता है वह भी अल्लाह की ख़िदमत के लिए है, जब संविधान को इसमें कोई आपत्ति नहीं है तो तुम कौन होते हो आपत्ति करने वाले ?

क्या वास्तव में संविधान को कोई आपत्ति नहीं है? क्या वास्तव में संविधान ने मुसलमानों को इतनी अराजक और असामाजिक शक्तियाँ प्रदान कर दी हैं ? टीवी डिबेट्स के लोग संविधान की इस शिथिलता पर कोई चर्चा क्यों नहीं करते ? यदि वास्तव में संविधान ने मुसलमानों को इतने अधिकार और असीमित शक्तियाँ दे रखी हैं तो हमें संविधान के स्वरूप और उद्देश्य पर पुनः विचार करने की तुरंत आवश्यकता है ।

सनातनियों की शोभायात्राओं पर पथराव, मंदिरों पर हिंसक आक्रमण, हिन्दू लड़कियों से सामूहिक यौनदुष्कर्म, नाम बदलकर हिन्दू लड़कियों से विवाह के बाद उनसे बलात् इस्लाम स्वीकारने का दबाव, मदरसों में छात्रों को हिन्दुओं के प्रति घृणापूर्ण शिक्षा प्रदान करना, भारत को दबावपूर्वक इस्लामी देश बनाने की घोषणा करना, हिन्दुओं से यह कहना कि यह देश तुम्हारे बाप का नहीं है, किसी भी भूभाग को वक्फ़-बोर्ड की ज़मीन बताकर हिन्दुओं से वह स्थान खाली करने की आदेशात्मक कार्यवाही करने, अपनी पैतृक सम्पत्ति कौड़ी के भाव बेचकर पलायन के लिए हिन्दू परिवारों को बाध्य करने आदि की बढ़ती  घटनाओं पर अंकुश न लग पाना क्या प्रदर्शित करता है ? सत्ता की दुर्बलता, हिन्दुओं की दुर्बलता, या मुसलमानों की दृढ़ इच्छाशक्ति ?   

इन घटनाओं के माध्यम से हिन्दुओं को यह चुनौती दी जा रही है कि पश्चिमी पंजाब (अफगानिस्तान), पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह अब शेष भारत भी मुसलमानों का है । इस्लाम पूरी दुनिया में इसी तरह अपने पैर पसारता रहा है । इस्लाम के इस विस्तार में वामपंथी और सेक्युलर हिन्दू उनके साथ खड़े हैं, ठीक सिंध की तरह जब मोहम्मद इब्न अल क़ासिम अल थकाफ़ी की भारत पर आक्रमण करने आयी सेना का सिंध के बौद्धों ने स्वागत किया और अपने ही हिन्दू राजा दाहिर को पराजित करवा दिया । हिन्दूविरोध की यह लहर सन् सात सौ बारह से निरंतर बढ़ती ही जा रही है, दूसरी ओर हिन्दुओं में इस लहर के प्रतिकार की कोई संगठित इच्छाशक्ति ही नहीं है । कोई प्रतिकार न करके क्या हिन्दू स्वयं ही अपनी सभ्यता को समाप्त हो जाने दे रहे हैं ?

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