नैतिक पतन के इस युग में शब्द और परिभाषायें
हमें दिग्भ्रमित करती हैं । भारतीय समाज में यह खेल बड़ी निर्लज्जतापूर्वक खेला जा
रहा है । “दलित” की परिभाषा के अनुसार मायावती किसी भी दृष्टि से दलित की श्रेणी
में नहीं आ सकतीं । हाँ ! मैं अवश्य “अतिदलित” की परिभाषा के कहीं अधिक समीप हूँ
।
तब मैं छोटा था जब लोगों को यह नारा लगाते
हुये सुना करता था – “तिलक-तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार” नारा लगाने वालों
में जुलूस के आगे लोग क्रोध और उत्तेजनामें हुआ करते थे जबकि पीछे के लोग ख़ुश-ख़ुश
नज़र आते थे । तब मैं इसका अर्थ नहीं जानता था । एक दिन कुछ लोगों को आपस में बात
करते हुये सुना तब पता चला कि तिलक का सम्बन्ध ब्राह्मण से, तराजू का वैश्य से और
तलवार का क्षत्रिय से था । फिर जब मैं कक्षा नौ में आया तो एक दिन एक जाति विशेष
के सहपाठियों ने मुझे बहुत अपमानित और प्रताड़ित किया । वे मुझे पंडित-पंडित कह कर
अश्लील गालियाँ दे रहे थे और बार-बार पीटने के लिये उद्यत हो रहे थे । एक दिन मैं
उनके मोहल्ले से निकला तो एक लड़के ने मुझे मारा और मेरे ऊपर पेशाब कर दी । यह सब
मुझे भयभीत करने वाला था । मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरे साथ यह सब क्यों हो रहा
है ?
धीरे-धीरे
मैं सब समझता गया, किसी भी किशोर के मन में भावनात्मक ध्रुवीकरण के लिये यह
पर्याप्त था । अच्छी बात यह थी कि मैं कभी प्रतिहिंसक नहीं हुआ, शायद मैं बहुत
अधिक डर गया था । युवा होने पर सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर होने वाली इन घटनाओं
का विश्लेषण करना मेरे लिये आवश्यक हो गया था । लोग कहते थे कि कभी ब्राह्मण भी उन
लोगों के साथ इससे भी बुरा व्यवहार किया करते थे । उस समय छुटभैये नेता और कुछ
बुल्ली लोग सवर्णों से अपने पूर्वजों के प्रति किये गये दुर्व्यवहारों का प्रतिशोध
लेने के लिये उतारू हो रहे थे । संयोग से ज़ल्दी ही यह सब नेपथ्य में जाकर ओझल हो
गया । क्यों और कैसे .....पता नहीं । वास्तव में समाप्त कुछ भी नहीं हुआ था केवल
प्रतिशोध के तरीके बदल गये थे ।
जिस वर्गभेद को समाप्त करने का स्वप्न देखा
गया था वह धूमिल हो गया । वर्गभेद समाप्त करने का तरीका अव्यावहारिक और
मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के विरुद्ध होता चला गया । यद्यपि भारतीय समाज से शारीरिक
अस्पृष्यता समाप्त हो चुकी है किंतु आंतरिक अस्पृष्यता समाप्त होने के स्थान पर
बढ़ती ही जा रही है ।
अब तक मैं मायावती के बुल्ली स्वभाव के कई
किस्से पढ़ और सुन चुका था । फिर एक दिन खुलासा हुआ कि उनके पास हीरों के गहनों का
अम्बार है । इस बीच सवर्ण प्रतिभाओं के आरक्षण की भेंट चढ़ते रहने की व्यवस्था ने
वर्गभेद को कम करने के स्थान पर और भी बढ़ाने का काम किया । आज भी सामाजिक समरसता
के लिये कोई निर्दुष्ट नीति नहीं बनायी जा सकी है । ये सब भारतीय समाज में आंतरिक
अस्पृष्यता बढ़ाने वाले कारण हैं । कोई भी
कानून इस प्रकार की अस्पृष्यता को समाप्त नहीं कर सकता । इसके लिये तो समाज के लोगों
को ही मिलजुल कर एक सामंजस्यपूर्ण स्थिति का निर्माण करना होगा ।
बहुत सही, यह भेदभाव प्रतिभाओं को समाप्त किये दे रहा है.
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख.