गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

कौन हैं ये ग़ैर आदिवासी ?



     मन में उठी इस जिज्ञासा का कारण है एक छोटा सा पत्रक जिसमें कुछ तर्कों के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि गोंड जनजाति के लोगों का धर्म हिंदू नहीं हैं । गोंड जनजाति के प्रबुद्ध माने जाने वाले कुछ लोगों द्वारा प्रकाशित इस पत्रक की सराहना करने वाले कुछ प्रतिष्ठित नेताओं के नाम भी पत्रक में प्रकाशित किये गये हैं । पत्रक में सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले का संदर्भ देते हुये कहा गया है – “यह सच है कि गोंड हिंदू नहीं हैं” ।

    मैंने एक बार कहीं पढ़ा था कि इस देश के मूल निवासी केवल जनजाति के लोग और मुस्लिम हैं, हिंदू इस देश के मूल निवासी नहीं हैं । एक और पीएच.डी. विद्वान ने ब्राह्मणों के विरुद्ध एक मुहिम छेड़ रखी है । उनका तर्क है कि हिंदुओं ने आदिवासियों के देवी देवताओं को छलपूर्वक अपना देवी-देवता घोषित कर लिया है और ब्राह्मण लोग विदेश से आकर भारत में बस गये हैं ।

    इन विद्वानों के वक्तव्यों और लेखों के बाद यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि भारत में रहने वाले “ग़ैर आदिवासी” आख़िर हैं कौन ?
किंतु पहले तो मैं इस बात पर विचार करना चाहूँगा कि यह आदिवासी और ग़ैर आदिवासी क्या है ? चिंतनोपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यदि ‘आदिवासी’ धरती के मूल निवासी हैं तो इस धरती पर रहने वाला हर “ग़ैर आदिवासी” इस धरती का मूल निवासी नहीं है । अब यह वीक्षणा करनी होगी कि इस धरती पर वे कौन लोग हैं जो अन्य ग्रह से आकर यहाँ निवास कर रहे हैं । यह सम्भव है .....कि हममे से कुछ लोगों के पूर्वज चुपचाप किसी अन्य ग्रह से आकर यहाँ रहने लगे हों ।
कदाचित इस तरह के विषयों पर तर्क-वितर्क-कुतर्क करने के लिये भारत सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है ।

     आप गम्भीरता और निष्ठापूर्वक विचार करेंगे तो पायेंगे कि स्वयं को “जनजातीय” कहने वाले बहुत से लोगों की जीवनशैली “ग़ैर आदिवासियों” जैसी है । दोनो में भेद करना मुश्किल है । मैं इस विषय को जीवनशैली से जोड़कर देखना चाहता हूँ । मूलरूप से हम दो प्रकार की जीवनशैलियाँ देखते आ रहे हैं, एक वह जो भौतिकता से दूर प्रकृति के सान्निद्य में सरलतम जीवन का सन्देश देती है और दूसरी वह जो प्रकृति से दूर भौतिकता में आकण्ठ डूब जाने में विश्वास रखती है । इस दृष्टि से साधु-सन्यासी भी ‘जनजातीय’ श्रेणी में आ जाते हैं और वे आदिवासी जो भौतिक मायामोह में डूब चुके हैं “ग़ैर-आदिवासी” की श्रेणी में आ जाते हैं । यह कुछ-कुछ उसी तरह है जैसे कि इस धरती का हर पीड़ित, सताया हुआ और अपने अधिकारों से वंचित व्यक्ति “दलित” श्रेणी में आता है । इस सिद्धांत के अनुसार सुश्री मायावती जी लेशमात्र भी दलित नहीं हैं और मैं आकण्ठ दलित हूँ ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.