कहीं
निगलती
कहीं
उगलती
कहीं
भयभीत करती है
ये धरती
आज हमसे
यूँ परिहास करती है ।
चिढ़ाते
तो आये हैं
हम भी
उसे जी भर
आज वह
चिढ़कर हमें
जी भर
चिढ़ाती है ।
ये धरती
बहुत रोती रही
हमारे
पाप के कारण
खीझ कर
वह भी कभी
काली का
रूप धरती है ।
संभल
जाओ
अभी भी वक़्त
है बाकी
जीने दो
धरती को भी
न दो अब
और विष उसको
कि हमारे
लोभ के विष से
वह भी
रोज मरती है ।
शरण्ये,श्री-सहचरी, तुम रेणुमयि परमा परम् हे
जवाब देंहटाएंमहा करुणा रूपिणी धरिणी तुम्हें शत-कोटि वंदन .
तुम कि जब अतिचार पर उद्धत मनुज स्वार्थांध होकर
लालसाओं के लिये औचित्य को दे मार ठोकर ,
निराकृत हो, रूप धर प्रतिकार हित बन सर्वनाशी
सृष्टि के उस पाप की जड़ को उखाड़, उजाड़ धरतीं !.
कामायनी के शब्दचित्र स्मरण हो रहे हैं ।
हटाएंधरती इसी तरह समायोजन करेगी, अन्धाधुन्ध खनिज उत्खनन और बांधों का कुछ तो दुष्प्रभाव होना ही था ।