ज़िन्दगी निगलती धरती
धरती निगलता समन्दर
ज़िन्दगी
निगलती धरती,
धरती
निगलता समन्दर,
दरक-दरक
भरभराते पहाड़
और
रो-रो कर बहते ग्लेशियर !
यही है
हमारी विकास यात्रा !
इस
विकास यात्रा में
हमने की
जीभर मनमानी
तोड़ते
रहे प्रकृति के नियम
बनाते
रहे अपने क़ायदे
और होते
रहे उच्छ्रंखल
विधाता
के प्रति ।
इस बीच
एक दिन
थर्रा उठा नेपाल
घूमने
लगा
सगरमाथा
का माथा ।
उधर
प्रशांत
महासागर में
डूबता
जा रहा है किरिबाती
विकास
की
यही
होनी है परिणति ।
हम
फिर उधर
ही जा रहे हैं
जहाँ से
चले थे ।
धरती
कभी सपाट नहीं थी
आज भी
नहीं है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.