हरिपथ
पर चलते
हरिजन
हो जाते
हैं दलित
भारत की
धरती पर
होता है
अघटनीय घटित
लोग
मौन हैं
और
सत्ता
स्वप्न
में लीन ।
“हरि” के
बनाये पथ पर चलने वाले “जन” को समाज की कई शक्तियाँ की बाधाओं का सामना करना पड़ता
है, उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिये जाने की परम्परा भारत में सुदृढ़
होती जा रही है । भारत में नेताओं,
उद्योगपतियों और ब्यूरोक्रेट्स को छोड़कर शेष अधिसंख्य “जन” स्वाभाविक “दलित” श्रेणी
में आते हैं । अपने मौलिक अधिकारों के लिये हर वह संघर्षशील व्यक्ति “दलित” है जो असामाजिक
शक्तियाँ के आगे अंततः अपनी लड़ाई हार जाता है । बस “दलित” और “अतिदलित” में अंतर
इतना ही है कि दलित केवल हारता है किंतु अन्दर संघर्ष की एक चिंगारी बनी रहती है ।
जबकि “अतिदलित” हारने के साथ ही अन्दर बची एक मात्र चिंगारी से भी हाथ धो बैठता है
...उसे चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु की स्थिति में लाकर छोड़ दिया जाता है ।
भारत
का हर वह कर्मठ और निष्ठावान व्यक्ति “अतिदलित” है जो भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस
सेवा या एक आम नागरिक होते हुये केवल “हरि के पथ” पर चलने के कारण आत्महत्या करने
के लिये विवश हो जाता है । भारतीय लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी और विद्रूप विफलता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.