गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

सैनिक

पिछली शताब्दी के अंतिम वर्ष में, जबकि हम पाकिस्तान के पास अमन के पैगाम भेजने में व्यस्त थे, उसने हमारी शराफ़त का मज़ाक उड़ाते हुए हमारे सैनिकों के साथ अमानवीय व्यवहार कर अपनी नीयत साफ कर दी थी ..हमारी योजनायें  कई मोर्चों पर बुरी तरह असफल हो रही थीं  .....वहीं देश के अंदरूनी हालात भी देश को शर्मशार करने में पीछे नहीं थे. उसी समय की एक रचना प्रस्तुत है आज आपके लिए -
१-
किसकी खुशी के लिए 
अपने बुढ़ापे की लाठी को 
जवान बहू के सपनों को 
गर्भस्थ भ्रूण के पिता को 
किसकी खुशी के लिए भेज दिया उन्होंनें 
सीमा पर शहीद होने के लिए 
किसकी खुशी के लिए !
और.... क्या कीमत दे सकती हैं किसी की शहादत की 
तुम्हारी वेदनाहीन संवेदनाएं ?
हो सके
तो देश को चबाना बंद कर दो 
वीर की आत्मा को श्रद्धांजलि मिल जायेगी.
बूढा बाप 
अपना दूसरा और तीसरा बेटा भी भेज देगा 
मौत के मुह में 
ताकि तुम 
चैन से जी सको.
२-
 बीसवीं शताब्दी में बोये 
न्यूक्लियर रिएक्टर्स  में पल रहे रक्तबीज 
पल्लवित-पुष्पित होने के लिए 
बेताब हैं इक्कीसवीं सदी में .
रक्तबीजों के रथ पर बैठे सारथी 
शकुनी हो गये हैं ...और 
विकसित मनुष्य की प्रगतिशील विचारधारा से 
भयभीत हो उठी है धरती 
क्योंकि यह धारा
बड़ी तीव्रता से खतरनाक होती जा रही है.
और व्यवस्था ऐसी  
कि जीवन भर पीसते हैं अंधे 
फिर भी कम पड़ जाती है कुत्तों की खुराक .
कोई क्या देगा श्रद्धांजलि   
शहीदों की आत्माओं को ....
कोई क्या देगा सम्मान 
उनकी विधवाओं को ...
उन्हें तो फुर्सत नहीं है 
भौंकने .....और एक-दूसरे को 
काट खाने के काम से ही .
३ -
संवेदनाएं 
उत्तरदायित्व 
बार-बार किये गये संकल्प  
आँखों का पानी
मौसम ...और ...
और भी बहुत कुछ
ठिठुरता रहा ...जमता रहा 
सिवाय ...रूठने और मनाने की व्यस्तता के.
दिन व्यस्त होते चले गये रूठने -मनाने के खेल में 
पश्चिमोत्तर सीमान्त पर कब डूब गया सूरज 
और बर्फीली बौछारों में 
उन्होंनें कब बना डालीं छतें 
हमारी खामोश दीवारों पर ...
हमें पता ही नहीं चल सका.
सीता की रक्षा नहीं कर सकी 
लक्ष्मण रेखा
और.....
जासूसी उपग्रहों की अति संवेदनशील व्यवस्था.
फिर एक दिन ..
दीवारों से होते रहे बलात्कार से नहीं ....
सैनिकों के शरीर पर बह आये 
रक्त की उष्णता से समाप्त हुई हमारी ठिठुरन.
सर्दियों में 
खुशियाँ और फूल लेकर गयी थी ज़ो बस
गर्मियों में 
सैन्य अधिकारियों के क्षत-विक्षत शवों के साथ 
अमानवीय यातनाओं का पुरस्कार लेकर 
वापस आ गयी है.
शीघ्र ही हम 
एक और बस
पूरब में भी भेजेंगे
और ........इससे पहले कि हम उन्हें बुलाकर 
गजलें सुनें 
मैं 
इस ठिठुरती व्यवस्था की पुनरावृत्ति को 
विराम देने के लिए बाध्य हो गया हूँ 
आओ .....कुछ आग जलाएं ....अपने भीतर भी .....
ताकि कुछ तो गर्मी आए हमारे खून में 
सीमा पर इतनी गर्मी में भी ठण्ड बहुत रहती है.    

4 टिप्‍पणियां:

  1. कौशलेंद्र जी!ज़बर्दस्त तेज़ाबी हमला किया है अपने उन आकाओं पर जिन्होंने शहीदों की चिताओं की आग तापकर, वीरों की बलिदान भूमि पर आदर्श कॉलोनी बनाई.. विधवा उस शहीद की झोली फैलाये रही और करोड़ों की सम्पत्ति और अट्टलिका खड़ी कर ली आकाओं ने!!
    सलाम है आपके जज़्बे को!!

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  2. धन्यवाद सलिल भैया ! .......लंका में तो एक ही विभीषण था ...और सोने की लंका ढह गयी ......अब दुर्भाग्य से भारत में भी हो गये हैं ....वह भी बेशुमार .....क्या होगा देश का ?

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  3. किसकी खुशी के लिए
    अपने बुढ़ापे की लाठी को
    जवान बहू के सपनों को
    गर्भस्थ भ्रूण के पिता को
    किसकी खुशी के लिए भेज दिया उन्होंनें


    तो देश को चबाना बंद कर दो


    अपना दूसरा और तीसरा बेटा भी भेज देगा
    मौत के मुह में
    ताकि तुम
    चैन से जी सको.


    रक्तबीजों के रथ पर बैठे सारथी



    संवेदनाएं
    उत्तरदायित्व


    सीता की रक्षा नहीं कर सकी
    लक्ष्मण रेखा

    रक्त की उष्णता से समाप्त हुई हमारी ठिठुरन.
    सर्दियों में

    सैन्य अधिकारियों के क्षत-विक्षत शवों के साथ
    अमानवीय यातनाओं का पुरस्कार लेकर
    वापस आ गयी है.
    शीघ्र ही हम
    एक और बस
    पूरब में भी भेजेंगे
    और ........इससे पहले कि हम उन्हें बुलाकर
    गजलें सुनें
    मैं
    इस ठिठुरती व्यवस्था की पुनरावृत्ति को
    विराम देने के लिए बाध्य हो गया हूँ
    आओ .....कुछ आग जलाएं ....अपने भीतर भी .....
    ताकि कुछ तो गर्मी आए हमारे खून में

    ******************************
    ufffffffffffffffffff baba बाबा ..................क्या कहूँ..सच में...खून में उबाल आ गया आपकी रच ना पड़ के....पर बाबा ..क्या किया जाए...कई बार सपने आते हैं ऐसे..की..शायद कोई दिव्य शक्ति से भरा त्रिशुल या सुदर्शन चक्र आये और..काट जाए हर वो सर..जो इस देश को अपने नाखूनों से खरोचने की कोशिश कर रहे हैं..पर फिर सुबह हो जाती है..और सपना टूट जाता है...फिर दिमाग खराब रहत है..क्या कर सकती हूं मियन..तो तो शायद खुद अपनी रक्षा ..तक नही कर सकती..रात के ७ बजे के बाद तो शाद मैं पैदल भी नही चल सकती..और फिर दिमाग फटने लगता है..इन बातों से..क्या करें...फिर खुद को शांत कर के अपने कर्म में लगाना पड़ता है..वरना दिमाग फट जाए..........
    बाबा...आपकी रचना ने..फिर वोही ज्वलंत विचार उद्वेलित कर दिए मस्तिक्ष में ..........

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  4. हाँ ! कहीं -कहीं तो दिन में भी चलना मुश्किल है ...अराजकता बढती जा रही है ...नेता ...अधिकारी ... (और कुछ न्यायाधीश भी) देश को बेचने की फिराक में हैं .......हमें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी ...शासन समर्थ नहीं है हमारे अधिकारों की रक्षा करने में ...खुद हमें हर पल सजग -सचेत रहना होगा.शाम को ७ बजे के बाद भले ही सडक पर मत चलो पर हिम्मत रखो ...और हर मुश्किल का सामना करने के लिए तैयार रहो....यह चिंता सिर्फ मेरी ही बेटी की नहीं है ...पूरे देश की लडकियों की है.

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.