पिछले
कुछ वर्षों से फ़्रांस में धार्मिक कट्टरवाद एक ज्वलंत विषय बन गया है । नये
घटनाक्रम में एक बार फिर अल्ला-हू-अकबर के नारों के साथ फ़्रांस में नीस शहर की नोत्रे
दम चर्च के बाहर तीन लोगों की गला काटकर हत्या कर दी गयी और कई लोगों को घायल कर
दिया गया । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार मानते हुये छात्रों को प्रेरित
करने के उद्देश्य से इस्लाम के नबी का कार्टून बनाने वाली फ़्रांसीसी शिक्षक की भी एक
अठारह साल के चेचेन युवक ने लगभग एक माह पूर्व हत्या कर दी थी । भारत के कई मौलाना
और इस्लामिक स्कॉलर्स इन हत्याओं के समर्थन में पूरे जोर-शोर से खड़े हो गये हैं ।
इन लोगों को इस बात से भी ऐतराज़ है कि उन्हें कट्टरवादी या आतंकवादी कहकर सम्बोधित
न किया जाय ।
अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के नाम पर भारत में हिंदू देवी-देवताओं के अपमान के नये-नये
अपकीर्तिमान स्थापित होते रहते हैं, हवायें ख़ामोश रहती हैं ...गोया
मर गयीं हों और इस ख़ामोशी पर अक्सर अतिबुद्धिजीवी लोग चीखते रहते हैं कि भारत में
हिंदू आतंकवाद फैल गया है ।
फ़्रांस
के प्रधानमंत्री ने धार्मिक कट्टरवाद के विरुद्ध कठोरता से कार्यवाही करने का
संकल्प लिया है जिस पर भारत के मौलानाओं और पाकिस्तान की संसद में हंगामा बरपा है, वहीं भारतीय
मूल के मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महाथिर बिन मोहम्मद ने “शांति और भाईचारा”
वाला एक उग्र वक्तव्य दे कर फ़्रांस में लाखों लोगों का क़त्ल कर दिये जाने की
आवश्यकता बतायी है । पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने संसद में फ़रमाया कि फ़ांस के राष्ट्रपति
इम्मैनुअल मैक्रॉन में नरेंद्र मोदी की रूह आ गयी है ।
टीवी
डिबेट में फ़्रांस में हुयी हत्या के भारतीय समर्थक मौलाना अली क़ादरी से जब यह पूछा
गया कि इन कट्टरपंथियों को आम नागरिकों की हत्या करने का अधिकार किसने दिया, तो
उनका स्पष्ट उत्तर था कि उन्हें यह अधिकार उनके दीन ने दिया है । यानी मौलाना अली
क़ादरी के अनुसार उनके नबी की शान में ग़ुस्ताख़ी करने वालों का क़त्ल
कर देना मुसलमानों का दीनी अधिकार है । मौलाना ने गुस्से में कहा कि दुनिया भर में
कहीं भी ऐसी ग़ुस्ताख़ियों को मुसलमान हर्गिज़ बर्दाश्त नहीं करेंगे ।
यह वही
फ़्रांस है जिसने ज़र्मनी की तरह पिछले कुछ सालों में तमाम विदेशियों को अपने देश
में समय-समय पर शरण दी है और अब आज ज़र्मनी की तरह वह भी अपनी दरियादिली का
ख़ामियाज़ा भुगत रहा है । क्या इसका यह अर्थ निकाला जाय कि हर दुःखी और मज़लूम
व्यक्ति दया का पात्र नहीं हुआ करता । चौदहवीं शताब्दी में कश्मीर के तत्कालीन
राजा ने एक विदेशी नागरिक शाह मीर को अपने यहाँ शरण दी थी जो 1339 में शरणार्थी से
राजा बन गया । बीसवीं शताब्दी में उसी कश्मीर के मूलनिवासी पंडितों को उनकी ही
मातृभूमि में शरणार्थी बना दिया गया और भारत की स्वदेशी सरकार उनके नागरिक
अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकी । रंक ने राजा के सिंहासन पर अधिकार कर लिया और उस
राज्य के समृद्ध लोगों को भिखारी बना दिया । भारत के निवासी राजदीप सर देसाई, प्रशांत
भूषण, बरखा दत्त, शोभा डे और अरुंधती
राय जैसे अतिबुद्धिजीवी लोग कश्मीरी पंडितों और सिखों को नहीं बल्कि मुसलमानों को
कश्मीरी मानते हैं और उनके पक्ष में हर समय अपना ज्ञान परोसने के लिये तैयार रहते
हैं ।
यह दरियादिली का नतीज़ा है कि कश्मीरी पंडित शरणार्थी हो गये हैं, ज़र्मनी के लोग तहर्रुश गेमिया की दहशत से परिचित हो गये हैं और फ़्रांस के लोग छुरों से ज़िबह किये जाने का दर्दनाक अनुभव प्राप्त कर रहे हैं ।
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