निज भाषा
उन्नति बिना, कबहुँ न ह्वै है सोय ।
लाख उपाय
अनेक यों, भले करे किन कोय ॥ - भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतेंदु
हरिश्चंद्र हम भारतीयों के लिए ‘हिंदी दिवस’ को छोड़कर शेष दिनों के लिए अब पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुके हैं ? इसीलिए हमने उनकी “निज भाषा उन्नति अहै” वाली कविता को भी विद्यालयीन
पाठ्यक्रम से दशकों पहले हटा दिया था । नई पीढ़ी के लोगों को तो इस कविता के बारे
में पता भी नहीं है ।
अधिकांश
योरोपीय देशों में अंग्रेज़ी को घास नहीं डाली जाती तब भारतीय राज्यों में शिक्षा
के माध्यम के लिए अंग्रेज़ी इतनी आवश्यक क्यों है? क्या हम भारतीयभाषाओं
की सुनियोजित हत्या में पाप के सहभागी नहीं हैं! भाषा वह शरीर है जिसमें उस देश की
संस्कृति आत्मा की तरह व्याप् रहती है । भाषा की मृत्यु संस्कृति की मृत्यु है,
इसे हम भारतवासी उतनी ही अच्छी तरह जानते हैं जितनी अच्छी तरह
योरोपीय देश जानते हैं । इस सत्य को अच्छी तरह जानते हुये भी हम मानने के लिए
बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं । मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं को
उत्तीर्ण करने वाले छात्रों में सर्वाधिक संख्या उन छात्रों की होती है जिनकी
शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी नहीं है । हम फिर भी अंग्रेज़ी के पीछे पड़े रहना चाहते
हैं ।
हम साल
में एक बार हिंदी की प्रशंसा और उसे बढ़ावा देने के उपायों की झूठी और छलावा भरी
योजनायें बनाते हैं जो उसी दिन कार्यक्रम की समाप्ति के साथ ही दम तोड़ दिया करती
हैं । योरोप के कई देश अंग्रेज़ी को नापसंद करते हैं । चीन के चेयरमैन भारत आते हैं
तो चीनी बोलते हैं, हम चीन जाते हैं तो अंग्रेज़ी बोलते हैं ।
कोई भाषा यूँ ही नहीं विकसित हो जाया करती । पीढ़ियाँ लग जाया करती हैं किसी भाषा के विकास में और उसकी सांस्कृतिक यात्रा को आगे ले जाने में । एक पीढ़ी के तौर पर हम अपनी भाषा यात्रा को कितना आगे ले जा पा रहे हैं ? भाषा के विकास में स्थानीय परम्पराओं, सांस्कृतिक गतिविधियों और भौगोलिक वातावरण का महत्वपूर्ण योगदान हुआ करता है । जब हम किसी विदेशी भाषा को अपने दैनिक व्यवहार में अपना लेते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमने विदेशी परम्पराओं, विदेशी सांस्कृतिक गतिविधियों और विदेशी भौगोलिक वातावरण के एक काल्पनिक संसार को अपना लिया है । हम एक अवैज्ञानिक और प्रकृतिविरुद्ध प्रक्रिया का पालन कर रहे हैं ।
सच है
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