टर्की
एक धर्मनिरपेक्ष देश है…
...जहाँ
चौहत्तर फ़ीसदी लोग सुन्नी मुसलमान हैं,
...जहाँ
की शीर्ष अदालत एक बहुत पुरानी चर्च को मस्ज़िद में तब्दील कर देने का हुक़्म देती
है ।
...जहाँ
की सेना और हथियार ईसाई बहुल आर्मीनिया पर कहर ढाने के लिये अज़रबैज़ान के लिए
उपलब्ध हैं ।
अफ़ीम की
खेती...
अफ़ीम की
खेती करने के लिए गांधारी के मायके जाने की आवश्यकता नहीं है । दुनिया भर के
इंसानों के उपजाऊ दिमाग अफ़ीम से भी अधिक नशीली अफ़ीम पैदा कर सकते हैं । धर्म को अफ़ीम
की संज्ञा देने से परेशान होने वाले लोगों को यह समझना होगा कि मानवधर्म के
अतिरिक्त अन्य जितने भी मानवरचित धर्म हैं वे वास्तव में राजनीतिक षड्यंत्र के
अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं ।
धर्मनिरपेक्षता
की म्यान में धर्मांतरण की तलवार...
भारतीयों
को वर्षों से यह समझाया जाता रहा है कि दुनिया के सारे धर्म बहुत अच्छे हैं इसलिए
धर्मांतरण एक बहुत पुण्य का काम है । भारतीय यह मान लेते हैं कि सभी धर्म अच्छे
हैं इसलिए अपना पारम्परिक धर्म त्याग कर किसी विदेशी धर्म को स्वीकार कर लेना ही
धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता का प्रमाण है ।
टर्की
एक धर्मनिरपेक्ष देश है जो ईसाई बहुल आर्मीनिया के विरुद्ध ईसाइयों को तबाह करने
के लिए अज़रबैज़ान जैसी इस्लामिक शक्तियों के पक्ष में खड़ा दिखायी देता है ।
अज़रबैज़ान की ओर से आर्मीनिया के विरुद्ध लड़ने के लिए जंग में कूद पड़ी ईरानी सेना
ने दुनिया को एक संदेश दे दिया है कि युद्ध यदि ग़ैर इस्लामिक मुल्कों से हो तो शिया और सुन्नी अपनी
सारी दुश्मनी भूलकर एक हो जाया करते हैं ।
1917 से
1923 तक चली बोल्शेविक क्रांति के बाद नव ग़ठित कम्युनिस्ट सोवियत यूनियन में भी केवल
एक ही पॉलिटिकल धर्म माना गया । ध्यान देने की बात यह है कि क्रिश्चियन और इस्लाम जैसे
धर्मों को सोवियत यूनियन की सरकार भी समाप्त नहीं कर सकी । कम्युनिस्ट शासन के दौर
में भी मानव निर्मित सभी धर्म बने रहे और सोवियत यूनियन के टूटते ही दबे-ढके रहे धार्मिक
विद्वेष का नशा अपने चरम पर आ गया जो नागोर्नो-क़ाराबाख़ के रूप में आज भी सुलग रहा है
। धर्म को अफीम यूँ ही नहीं कहा गया । अज़रबैजान की सेना पिछले तेरह दिनों से
आर्मीनिया के चर्चों पर हमले करके उन्हें नेस्तनाबूद कर रही है, ...और
हम कहते हैं कि सभी धर्म अच्छे होते हैं, …जबकि दुनिया में
सर्वाधिक ख़ून-ख़राना धर्म के कारण ही होते रहे हैं ।
आर्मीनिया
में भी है एक जम्मू-कश्मीर...
आर्मीनिया
के नागोर्नो-काराबाख़ और भारत के जम्मू-कश्मीर का दर्द बहुत कुछ एक जैसा है । अज़रबैजान
का एक हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान की तरह आर्मीनिया की सीमाओं के अंदर एक छोर पर ईरान
और टर्की की सीमाओं को स्पर्श करता है जबकि नागोर्नो-क़ाराबाख़ की स्थिति ठीक जम्मू-कश्मीर
जैसी है जिसका कुछ हिस्सा अज़रबैजान ने कब्ज़ा करके रखा हुआ है और कुछ हिस्सा आर्मीनिया
के साथ है ।
एक समय था जब सोवियत-आर्मीनिया(ईसाई बहुल), सोवियत-अज़रबैजान (मुस्लिम बहुल) और नागोर्नो-क़ाराबाख़ (ईसाई बहुल क्षेत्र जो सोवियत-अज़रबेजान प्रांत द्वारा शासित हुआ करता था) आदि सभी क्षेत्र सोवियत यूनियन के अंतर्गत हुआ करते थे । सोवियत यूनियन के बिखराव के समय जब आर्मीनिया और अज़रबैजान दो स्वतंत्र देश बने तो ईसाई बहुल क्षेत्र नागोर्नो-क़ाराबाख़ ने आर्मीनिया के साथ जाने का फ़ैसला किया किंतु अवसर देखकर मुस्लिम बहुल अज़रबैजान ने नागोर्नो-क़ाराबाख़ के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर उसे पीओके बना लिया जबकि नागोर्नो-क़ाराबाख़ का शेष हिस्सा आर्मीनिया के साथ जाने में सफल हो गया जिसे अज़रबैजान ने मानने से इंकार कर दिया । तबसे यह विवाद आर्मीनिया का एक नया जम्मू-कश्मीर हो गया है । आर्मीनिया भारत की भूमिका में है जबकि अज़रबैजान पाकिस्तान की भूमिका में । इसीलिये कश्मीर न ले पाने के मलाल से दुःखी पाकिस्तान ने अज़रबैजान के पक्ष में खड़े होकर आर्मीनिया को नेस्त-नाबूद करने के लिए अपनी सेना भेज दी ।
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