युवा भेड़िये ने बूढ़े शेर के सामने सफेद, काली, और चितकबरी बकरियों को खड़ा करके पूछा – बताओ, तुम इनमें से किस रंग की बकरी हो? जंगल की सत्ता भेड़िये के हाथ में थी इसलिये इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न का उत्तर देना शेर की बाध्यता थी । उसने कहा – मैं तो शेर हूँ, मैं अपना परिचय किसी बकरी के रूप में नहीं दे सकता । सत्ता ने शक्ति का प्रयोग करते हुये कठोरता से कहा – तुम्हारे सामने तीन प्रकार की बकरियाँ हैं, किसी भी पशु के परिचय के लिये इन तीन बकरियों को ही पूरे जंगल का स्टैण्डर्ड पैरामीटर बनाया गया है । जंगल के सभी पशुओं की पहचान सफेद, काली और चितकबरी बकरी में से ही कोई एक हो सकती है, इनसे परे किसी पशु की कोई पहचान हो ही नहीं सकती, यही मॉडर्न एनीमल कल्चर है ।
मैं यह
समझ पाने में असफल रहा हूँ कि जिस धर्म का कोई लिखित अस्तित्व ही नहीं है उसे
स्वतंत्र भारत में मान्यता ही क्यों दी गयी ? क्या “वैदिक वर्णाश्रम धर्म”
को जानबूझकर विलोपित कर एक ऐसे नये शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका वास्तव में
कोई प्रामाणिक और व्यावहारिक अस्तित्व ही नहीं है?
इस्लाम
या ईसाइयत जैसे अर्थों में “हिन्दू धर्म” जैसा कुछ है ही नहीं । तब आख़िर क्या है
भारत के लोगों का परम्परागत धर्म? वह धर्म जिसे लाखों वर्षों की
साधना के अनंतर उन्होंने पहचाना, क्या है उस धर्म की पहचान?
क्या है भारत के निवासियों की परम्परागत धार्मिक पहचान? धर्म से मनुष्य की पहचान होती है या मनुष्य से धर्म की पहचान होती है?
भारत में क्राइस्ट और इस्लाम के प्रवेश के ठीक पूर्व धर्म जैसा कोई
तत्व था भी या नहीं? ये सब तात्विक विमर्श के विषय हैं ।
लाखों
वर्ष पूर्व जब मानव तो था किंतु मानव सभ्यता जैसी कोई बात नहीं थी, क्या
तब भी धर्म जैसा कोई तत्व था ? मैं धर्म को विभिन्न संदर्भों
में समझना चाहता हूँ । मैं सूर्य के प्रकाश में विभिन्न दृष्टव्य वस्तुओं को उनके
वास्तविक स्वरूप में देखना चाहता हूँ । नदी, पर्वत, वन, वन में खड़े विभिन्न वृक्ष... ये सभी चीजें एक ही
नहीं हैं, इनकी विविधताओं और विशेषताओं को देखने-समझने के
लिये सूर्य के प्रकाश का होना हमारी प्रथम और अपरिहार्य आवश्यकता है । मैं धर्म को
उसके तात्विक रूप में इसी तरह देखने-समझने का प्रयास करता हूँ ।
आदिम
युग के उन दिनों में जब कि मानवसमाज जैसा कुछ भी नहीं था, यहाँ
तक कि लोगों के नाम भी नहीं थे, उन्हें केवल उनके चेहरों और
व्यवहार से ही पहचाना जाता था, धर्म का क्या स्वरूप रहा होगा?
भारतीय
मनीषा ने प्रकृतिधर्म, पशुधर्म, वृक्षधर्म, मानवधर्म...
आदि का सूक्ष्मता से अवलोकन-अध्ययन किया और इन सबको एक वृहद धर्म के रूप में समझने
का प्रयास किया, मैं इस वृहद धर्म को ही “सनातनधर्म” के रूप
में समझ सका हूँ । प्यास को पानी से ही बुझाया जा सकता है, पिपासा
का यह एक सर्वमान्य और वैज्ञानिक धर्म है । भूख को किसी भक्ष्य वस्तु के सेवन से
ही शांत किया जा सकता है, भूख का यह एक सर्वमान्य और
वैज्ञानिक धर्म है । सनातनधर्म के इस तत्व को हम कितना समझ पा रहे हैं और उसमें कितने
किंतु-परंतु खड़े कर विकल्प खोज रहे हैं, इस पर चर्चा होनी ही
चाहिये ।
यदि आप सनातनधर्म
के मौलिक तत्व से पृथक अपने व्यक्तिगत, सामाजिक या समूहगत किसी धर्म की
पहचान के लिये युद्धरत हैं तो यह एक ऐसा युद्ध है जिसका धर्म के तत्वों से कोई लेना
देना नहीं है । धर्म एक ऐसा मूल्य है जिसमें बहुलता और विविधता का कोई स्थान हो ही
नहीं सकता ।
हिन्दू
धर्म का आविष्कार
क्या सचमुच हिन्दूधर्म का आविष्कार
बीसवीं शताब्दी में, यानी मात्र एक सौ साल पहले ही हुआ था? कौन थे वे लोग
जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में हिन्दूधर्म का आविष्कार किया था? यह एक गम्भीर विमर्श का विषय है
आई.आई.टी.
दिल्ली में दर्शन शास्त्र पढ़ाने वाली प्रोफ़ेसर दिव्या द्विवेदी मानती हैं कि हिन्दू
धर्म का आविष्कार बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इण्डिया की निम्नजाति के लोगों
को दबाने के लिये किया गया था।
एक
प्रश्न यह भी है कि जब वैदिक साहित्य में “हिन्दूधर्म” के नाम से किसी धर्म विशेष
का उल्लेख ही नहीं है, तो “हिन्दूधर्म” को लेकर इतने विवाद की क्या आवश्यकता?
क्या
सचमुच भारत में “हिन्दूधर्म” का कोई अस्तित्व नहीं है? दुनिया
में प्रचलित कई धर्मों के बारे में उनके धार्मिक ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख मिलते
हैं जो उनके अस्तित्व के भौतिक प्रमाण हैं।
जो लिखा
गया है उसके अस्तित्व को मानना बाध्यकारी है किंतु जो लिखा नहीं गया, क्या
वास्तव में उसका कोई अस्तित्व नहीं हो सकता? सभ्यता के
आदिकाल में, जब कोई लिखने वाला नहीं था, जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, क्या यह माना जाय
कि उस समय किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं था?
वैदिक
साहित्य में “धर्म” शब्द का प्रयोग किया गया है और कुछ संदर्भों में “वैदिक
वर्णाश्रम धर्म” का उल्लेख मिलता है जिसे परवर्तीकाल में भारतीयों के बीच “सनातनधर्म”
के नाम से जाना जाता रहा । तत्कालीन ऋषियों ने मानव मात्र के लिये आचरणीय धर्म के
लिये किसी विशेषण की आवश्यकता ही नहीं समझी । उन दिनों में धर्म खण्डित नहीं था और
न उसकी कोई खण्डित पहचान थी । कोई मनुष्य या तो धर्म का आचरण करता था या फिर नहीं
करता था । मानव या तो धार्मिक था या फिर अधार्मिक । तब पूरे विश्व के लिये धर्म का
अर्थ ही सर्वकल्याणकारी आचरण हुआ करता था ।
आधुनिक विश्व
की सबसे बड़ी समस्या वह “पहचान” है जिसके वर्चस्व के लिये कोई कुछ भी करने के लिये तैयार
रहता है । क्या, जब तक सूर्य को सूर्य के नाम से चिन्हित कर उसे आपका बनाया पहचानपत्र नहीं
दे दिया जायेगा, तब तक सूर्य धरती को अपना प्रकाश नहीं देगा?
विभिन्न
भाषाओं में सूर्य के कई नाम और पर्याय तो हो सकते हैं किंतु मानवसमुदायों के संदर्भ
में उसका कोई विशेषण नहीं हो सकता । इस्लामी सूर्य या वैदिक सूर्य जैसे शब्दों का
कोई औचित्य नहीं है, यह ईश्वर की तरह सूर्य को भी बाँटने जैसा है -मेरा
ईश्वर, तेरा ईश्वर, मेरा सूरज, तेरा सूरज । मानव जैसे-जैसे समुदायों में बँटता गया, वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ, और उन आवश्यकताओं की
पूर्ति के लिये पारस्परिक संघर्ष बढ़ते गये । धरती, आकाश और
जल को बाँटा नहीं जा सकता, किंतु मानव समुदायों ने अपनी
आवश्यकताओं के लिये उन्हें बाँट लिया । धरती बँटी देश बन गये, नदियाँ बँट गयीं, आकाश और समुद्र की सीमायें बँट
गयीं । धरती, आकाश और जल को मेरे-तेरे में सीमित कर दिया गया,
ईश्वर को मेरे-तेरे में सीमित कर दिया गया, धर्म
को मेरे-तेरे में सीमित कर दिया गया । ईश्वर ने तो धरती को एक ही बनाया था,
देश तो नहीं बनाये थे । उसी तरह धर्म एक ही था, एक ही है, अनेक हो ही नहीं सकते । स्वार्थी और दुष्ट
लोगों ने अपनी आवश्यकता के लिये ईश्वर और धर्म को भी बाँट लिया ।
धर्म का
बँटवारा
विचारधारायें
और जीवनशैली तो अनेक हो सकती हैं किंतु वास्तव में मानवधर्म अनेक नहीं हो सकते, सम्भव
ही नहीं है । “धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या
सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्”॥
धर्म के
इन दश लक्षणों में ऐसा कौन सा है जो मानवमात्र के लिये अनुपयुक्त है! मानवमात्र
के लिये कल्याणकारी होने से धर्म को बाँटने की न तो कोई आवश्यकता थी और न कभी
भारतीय ऋषियों ने वैदिक साहित्य में ऐसा कोई उल्लेख किया । यही कारण है कि वैदिक
साहित्य में धर्म का उल्लेख तो है किंतु “हिन्दूधर्म” का कोई उल्लेख नहीं है ।
वास्तव में शासकीय-प्रशासकीय उद्देश्यों के अतिरिक्त हिन्दूधर्म का कोई अस्तित्व
नहीं है, जिसका अस्तित्व है वह “धर्म” है । ज्यूज़सूर्य,
पर्शियनसूर्य या हिन्दूसूर्य जैसे काल्पनिक सूर्यों का कोई अस्तित्व
सम्भव नहीं है, जिसका अस्तित्व है वह “सूर्य” है ।
समस्या
तब उत्पन्न हुयी जब लोगों ने प्रकृति की न बाँटी जा सकने योग्य चीजों को भी बाँट
दिया । बँटवारे से कभी कोई संतुष्ट नहीं होता, हर पक्ष को जो चाहिये वह
सम्पूर्ण चाहिये, खण्डित नहीं । विचित्र स्थिति है, हम बाँटना भी चाहते हैं किंतु सम्पूर्ण भी चाहते हैं । कहने को तो मेरा
देश, तेरा देश हो गया किंतु धरती हर पक्ष को पूरी चाहिये ।
विवाद यही है, संघर्ष यहीं से प्रारम्भ होता है ।
जिस तरह
धरती को देशों में बाँट दिया गया उसी तरह धर्म को भी विशेषणों के साथ बाँट लिया
गया । देश की पृथक पहचान के लिये ध्वजा चाहिये, धर्म की पृथक पहचान के लिये
विभिन्न प्रतीक चाहिये । इन प्रतीकों में वसुधा खो गयी, धर्म
खो गया, मिथ्या पहचानों के साथ हम सब अपने-अपने वर्चस्वों के
लिये जूझने लगे, अपने-अपने धर्म विशेष के लिये रक्तपात करने
लगे, “धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः
धीर्विद्या सत्यमक्रोधः” का इस रक्तपात में कोई स्थान नहीं । वास्तव में, दुनिया के सामने जिन अर्थों में ईसाई और इस्लाम विशेषणों के साथ धर्म नाम
की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया, उसकी “वैदिक वर्णाश्रम
धर्म” या “सनातन धर्म” से किसी भी प्रकार की कोई तुलना नहीं की जा सकती ।
जब
अँधेरा ही अँधेरा हो तो प्रकाश के लिये उद्यम तो करना होगा । “धृतिः
क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः धीर्विद्या सत्यमक्रोधः” के लिये कोई तो उद्यम करना होगा । यह उद्यम उन उद्यमियों को पृथकतावादी भीड़
से पृथक करता है और उन्हें एक नयी पहचान देता है । इस नयी पहचान को तत्कालीन
भारतीय समाज ने “हिन्दु” कहकर सम्बोधित किया । हजारों वर्ष पूर्व
रचित “बृहस्पति आगम” वैदिकोत्तर साहित्य है जिसमें भारतीय मनीषियों ने हिंदुस्थान
को परिभाषित किया है – “हिमालयात् समारभ्य यावत् इंदु सरोवरम् । तं देवनिर्मितं
देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते”॥ हिमालय से लेकर इंदु सरोवर (हिन्द महासागर) तक
विस्तृत एवं देवताओं द्वारा निर्मित देश का नाम हिन्दुस्थान है जहाँ के लोग हिन्दु
नाम से जाने जाते हैं । इस देश में रहने वाले उन सभी लोगों को हिन्दू माना गया जो “हिंसया
दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरितः” का आचरण करते थे । इस देश के निवासियों की कुछ
और भी विशेषतायें हुआ करती थीं – “ॐकार मूलमंत्राढ्यः पुनर्जन्म दृढ़ाशयः । गोभक्तो
भारतगुरुः हिन्दुर्हिंसनदूषकः” ॥ कालांतर में विदेशियों की दृष्टि में हिन्दुओं की
यही आचरणगत विशेषतायें उनकी पृथक पहचान बन गयीं ।
मेरे-तेरे
धर्म के बँटवारे के बाद प्रश्न उठता है कि हिमालयात् समारभ्य यावत् इंदु सरोवरम्
तक विस्तृत क्षेत्र वाले “प्राचीन हिन्दुस्थान” में रहने वाले हिन्दुओं का धर्म
क्या था ? तत्व की बात तो यह है कि इस प्रश्न का कोई औचित्य ही नहीं है किंतु
वर्तमान संदर्भों में जहाँ मेरे-तेरे का भाव प्रचण्डता के साथ हवा में उछाला जा
रहा हो तो अनौचित्यपूर्ण प्रश्नों का भी उत्तर देना ही होगा, यह हमारी बाध्यता है । इस प्रश्न का तात्विक उत्तर होना चाहिये– “प्राचीन हिन्दुस्थान
में रहने वाले लोगों का धर्म “धर्म” था । प्रश्नकर्ता को यह उत्तर पसंद नहीं है,
उसे उत्तर में विशेषण चाहिये । तब अगला उत्तर होगा – “प्राचीन हिन्दुस्थान
में रहने वाले लोगों का धर्म “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” या “सनातन धर्म” हुआ करता था
। प्रश्नकर्ता को यही उत्तर चाहिये था । इस उत्तर में प्रयुक्त “वर्णाश्रम” शब्द
को भारतीय सभ्यता का घृणित और निकृष्ट पक्ष बताकर दुष्प्रचारित किया जाने लगा । दुष्प्रचार
इतना किया गया कि हिन्दुओं को अपनी वैज्ञानिक वर्णाश्रम व्यवस्था से आत्मग्लानि
होने लगी । यह एक सांस्कृतिक-कूटनीतिक आक्रमण था जिसका सामना तत्कालीन हिन्दू नहीं
कर सके । अ-धार्मिक धर्मोन्मादियों ने धर्म के नाम पर अपनी पृथक पहचान स्थापित कर
ली और जो वास्तव में “धर्म” है वह धीरे-धीरे तिरोहित होने लगा । जब होली में हर
कोई रंगों से पुता हो तो हर किसी की व्यक्तिगत पहचान छिप जाती है । व्यक्तिगत
पहचान के लिये हर किसी को अपना नाम बताना पड़ता है । जब दो सेनाओं के बीच युद्ध हो
रहा हो तो दोनों पक्षों के सैनिकों की वेशभूषा और ध्वज में समानता नहीं रखी जा
सकती । यहाँ पृथक पहचान का महत्व युद्धनीति की दृष्टि से अनिवार्य है । जब धर्म के
तत्व मानव आचरण से तिरोहित होने लगें तो अपनी व्यक्तिगत पहचान के लिये हर किसी के
सामने अपने प्रतीकों का बखान करने की बाध्यता हो जाती है ।
स्वतंत्र
भारत के शासकीय राजकाज में “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” या “सनातनधर्म” को किसी धर्म के
रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, बल्कि इस्लाम और ख्रीस्त की
तरह ही हिन्दू धर्म को स्थान दिया गया है । यह एक विचित्र और विरोधाभासी स्तिति है, धर्म नाम से कई विचारधाराओं के अस्तित्व को तो स्वीकार कर लिया गया किंतु
देश की शासकीय व्यवस्था को धर्मनिरपेक्ष बना दिया गया । यह बहुत बड़ा वैचारिक
घालमेल है जिसमें सत्य को अस्वीकार करते हुये असत्य को सत्य परिभाषित कर दिया गया
है । हमें “हिन्दू धर्म” की इस बलात ओढ़ाई गयी पहचान के साथ ही “वैदिक वर्णाश्रम
धर्म” जो कि सनातन है, की पुनर्स्थापना के लिये संघर्ष करना
होगा । शेर को अपने अस्तित्व के लिये सफेद, काली या चितकबरी बकरी
में से किसी एक पहचान के साथ ही अपनी वास्तविक पहचान के लिये आगे बढ़ना होगा
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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.