विप्र जी साहित्यकार हैं इसलिये अपने परिवेश की समस्याओं से निरपेक्ष होकर केवल प्रेम की कविता लिखते हैं जिसमें अरबी-फ़ारसी में पिरोये कुछ शब्दों के साथ रंगीन फूलों का एक गुलदस्ता अवश्य होता है । उनका हठ होता है कि वे जो प्रतिबिम्बित कर रहे होते हैं, या प्रतिबिम्बित करेंगे उसे ही साहित्य माना जाय । वे निर्लिप्त भाव से “भावों में डूबी” कविता लिखते हैं, …बहुत सँभलकर ...कहीं कोई ऐसी बात कविता में न आ जाय जिससे समाज का वास्तविक प्रतिबिम्ब लोग देख लें । प्रतिबिम्ब में केवल ग़ुलाब के फूल ही होने चाहिये, भूल से भी काँटे न आ जाएँ इतनी सावधानी रखनी होगी । पौधे पर गुलाब न खिला हो तो कागज का बनाकर वहाँ हिलगाया जा सकता है ।
वे राजा
को प्रसन्न करना चाहते हैं, स्वयं को आधुनिक सिद्ध करना चाहते हैं और इसलिये “हिन्दू” शब्द से जुड़ी
किसी भी बात के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते । हिन्दू शब्द से जुड़ी हर बात को पचड़ा
मानने वाला यह वर्ग स्वयं को प्रगतिवादी सिद्ध करने के लिये आयातित धर्मों और उनकी
परम्पराओं की प्रशंसा करते नहीं थकता । धर्मों में केवल हिन्दू धर्म को ही “धर्म”
की श्रेणी से बाहर मान लिया गया है इसलिये उसकी दुर्दशा पर सोचना भी उनके लिये एक
वर्ज्य विषय है । साहित्य के ये मठाधीश हिन्दू धर्म, भारतीय
संस्कृति और भारत के प्राचीन गौरव पर कविता लिखने वालों का कठोरतापूर्वक बहिष्कार
कर दिया करते हैं । भारत के इस वर्तमान परिदृश्य में एक और अफ़्रीका की आहट स्पष्ट
सुनायी दे रही है, क्या आप उस आहट को सुन पा रहे हैं ?
अफ़्रीका
में पवित्र ग्रंथ
उन्हें न
प्रेम मिला, न मन की शांति मिली, न रोटी मिली… मिला तो केवल युद्ध ।
इन्होंने
उनका दिया एक-एक कम्बल ओढ़ा और अपने ही भीड़ में खो गये । उस समय सर्दी नहीं थी, किंतु
उन्हें ओढ़ने के लिये कम्बल दे दिये गये । पूरे अफ़्रीका ने कम्बल ओढ़ लिये और अपने
ही लोगों के बीच खोते चले गये, …और अब वे आपस में ही
एक-दूसरे के लहू के प्यासे हो गये हैं ।
उनकी
अपनी हजारों साल पुरानी वनवासी परम्परायें थीं और आस्थायें थीं । कुछ लोग बाहर से
आये, स्थानीय लोगों को प्रेम और शांति का स्वप्न दिखाया और उनके हाथों में एक
पवित्र ग्रंथ थमा दिया । कुछ साल बाद कुछ और लोग आये और उन्होंने उन्हें बहत्तर
हूरों के साथ अंगूर की शराब का सपना दिखाया और उनके हाथों में एक अन्य पवित्र
ग्रंथ थमा दिया । बुरुण्डी के 91.3 प्रतिशत लोग प्रभु की शरण में चले गये,
2.1 प्रतिशत लोग अल्लाह की शरण में चले गये । बुरुण्डी के गाँवों
में भूख है, कुपोषित बच्चे हैं, फटे
कपड़े पहने लोग हैं ...वे अब अफ़्रीका के वनवासी नहीं, ईसाई या
मुसलमान हैं । वयोवृद्ध पूछते हैं, कि उन्हें क्या मिला ?
उन्हें
पवित्र ग्रंथ मिले जिसके बदले में उन्होंने कब अपने सारे संसाधन विदेशियों को सौंप
दिये, उन्हें पता ही नहीं चला ।
टिग्रे
के लोग उत्तेजित हैं और उन्होंने इत्योपिया में अपनी ही सरकार के विरुद्ध हिंसक
युद्ध प्रारम्भ कर दिया है । इरिट्रिया में रक्तपात हो रहा है । अफ़्रीका के बहुत
से देश भूख और आपसी विद्रोह के शिकार हो रहे हैं । नाइज़ीरिया जैसे देश अपराध में
डूबते जा रहे हैं । आज उनके पास विदेशियों के दिये हुये पवित्र ग्रंथ हैं, भूख
है, अपराध की लहर है और रक्तपात है ।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (१३-०२ -२०२२ ) को
'देखो! प्रेम मरा नहीं है'(चर्चा अंक-४३४०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
विचारोत्तेजक लेख !साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद! अपने परिचितों के साथ इन विषयों पर चर्चा कर सकें तो सार्थकता होगी । विमर्श होना चाहिये ।
हटाएंसंघातिक!
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन परक लेख।
साधुवाद।
धन्यवाद! कृपया अपने आसपास के लोगों के साथ इसे सम्भाषाओं का रूप देने का कष्ट करें ।
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