तो बंदरबाँट वाला असली किस्सा यह है कि एक बंदर ने कुछ लोगों को रोटी खाते हुये देखा । उसे लोगों का इस तरह आराम से रोटी खाना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा । उसने स्वयं को चौधरी की तरह प्रस्तुत करते हुये बताया कि इस तरह रोटी खाना एक असमान और अन्यायपूर्ण बँटवारा है जिससे उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है । बंदर नें समानता-असमानता और न्याय-अन्याय जैसे विषयों पर कई दिन तक भाषणों की वर्षा की, ढपली बजाकर साम्यवादी गीत गाये, “सलाम कामरेड” बोला और रोटी खाने वालों को इस बात के लिये मना लिया कि वे जंगल के वास्तविक चौधरी की चौधराहट को नहीं बल्कि बंदर की चौधराहट को स्वीकार करते हैं और रोटी के बँटवारे का एकाधिकार उसे देते हैं ।
...और इस तरह लाखों वर्षों से जंगल के राजा रहे शेर की सत्ता को एक बंदर ने अपने जलेबीभाषणों से उखाड़ फेका । जंगल में अब कोई राजा विक्रमादित्य, राजा हरिश्चंद्र और राजा पोरस की बात भी नहीं करता, दे आर नाव आउट डेटेड एण्ड मनुवादी फ़ेलोज़ । टु इंज्वाय, इंसल्ट देम ऐज़ मच ऐज़ यू कैन । इट इज़ योर फ़ण्डामेंटल राइट, व्हिच इज़, ऐज़ यू ऑफेनली यूज़्ड टु से “अवार्डेड बाय अवर होली कॉन्स्टीट्यूशन” ।
संविधान, समानता
और वर्गभेद
जब राजा
कहता है कि हम जाति, लिंग, धर्म और पंथों से परे सभी जातियों, सभी लिंगों, सभी धर्मों और सभी पंथों के
विशेषाधिकारों की रक्षा करेंगे तो वह प्रच्छन्नरूप से यह घोषणा कर रहा होता है कि
वह अपने राज्य में जाति, लिंग, धर्म और
पंथ विहीन समाज की रचना के लिये सभी जातियों, सभी लिंगों,
सभी धर्मों और सभी पंथों के विशेषाधिकारों को बनाये रखेगा । जब हम
विशेषाधिकारों की बात कर रहे होते हैं तो समाज को विभिन्न वर्गों में बाटते हुये
समानता के अधिकार को समाप्त कर रहे होते हैं । इस जलेबीभाषण के दूरगामी लक्ष्य को
समझना होगा ।
अवसर तो
समान हो सकते हैं किंतु हर व्यक्ति समान नहीं हो सकता, न उसे
विभिन्न उपायों से एक समान बनाया जा सकता है । हर व्यक्ति की मानसिकता, बुद्धि, उद्देश्य और क्षमतायें एक समान हो ही नहीं
सकतीं । किसी को अंगूर की शराब के साथ बहत्तर हूरें चाहिये, किसी
को मोक्ष चाहिये, किसी के लिये फिदायीन बनना सबब का काम है,
किसी के लिये प्राणिमात्र की रक्षा करना पुण्य का काम है, आप किस समानता की बात करते हैं ?
जब हम
वर्षा को नकारते हैं, ठीक उसी क्षण अ-वर्षा को स्वीकार भी करते हैं । एक पक्ष को स्वीकार करना
उसके दूसरे पक्ष को अस्वीकार करना होता है । जब हम “अल्पसंख्यक
और बहुसंख्यक के पृथक अस्तित्व वाले” समाज को स्वीकार कर रहे
होते हैं तो ठीक उसी क्षण “अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक रहित
समाज के अस्तित्व” को अस्वीकार कर रहे होते हैं ।
जिस
क्षण आपने “सभी जातियों, धर्मों, अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों” के उत्थान की
बात की थी उसी क्षण आपने वर्गभेद, जातिभेद और धर्मभेद के पृथकतावादी
अस्तित्व को स्वीकार करते हुये देश के “सभी नागरिकों” की एकता को खण्डित कर दिया
था । ऐसी चौधराहट किसी भी समाज को कभी मनुष्य नहीं बनने देती । संविधान के अनुच्छेद
29 और 30 में जब शिक्षा, संस्कृति और भाषा के संरक्षण के
हितग्राहियों की श्रेणी में यह विशिष्ट पद - “चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक”
लिखा गया तो समाज में दो वर्गों की घोषणा तो अपने आप हो गयी । अल्पसंख्यक और
बहुसंख्यक के स्थान पर “देश के नागरिक” भी लिखा जा सकता था । कोई संविधान जो
सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखाय होने की घोषणा करता है वह अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों
के दो पृथक अस्तित्वों की प्रच्छन्न घोषणा कैसे कर सकता है!
संविधान
ने माना कि भारतीय समाज में असमानतायें हैं जिन्हें दूर करने के लिये कुछ लोगों को
उनकी योग्यता की उपेक्षा करते हुये एक निर्धारित समय तक आरक्षण दिया जाना चाहिये ।
ये असमानतायें विदेशियों के शासनकाल में स्थापित की गयी थीं, स्वाधीनता
के बाद भी उन असमानताओं को बनाये रखने के लिये आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो पहले कालसापेक्ष
किंतु योग्यतानिरपेक्ष थी और अब कालनिरपेक्ष भी हो गयी है ।
क्या
भारत के सभी नागरिकों को अपने विकास की एक समान सुविधायें उपलब्ध करवाने के संकल्प
से किसी नागरिक के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है ? आख़िर ऐसे प्रावधान की
आवश्यकता ही क्यों पड़ी ? भारतीय समाज में जिन्हें दलित,
अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति कहकर उनकी पहचान को आरक्षण के लिये
विशिष्ट बनाने के प्रावधान किये जाते रहे उन्हीं प्रावधानों ने भारतीय समाज को
अपंग बना दिया । वैदिक ऋचाओं के साक्षात्कार में केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय ही
नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत के समाज के लोगों का योगदान रहा है जिनमें न केवल
स्त्रियाँ भी सम्मिलित रही हैं बल्कि वे भी सम्मिलित रहे हैं जिन्हें आपने दलित,
अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति कहकर शेष समाज से भिन्न दिखाने के भरसक
प्रयास किये । यदि वैदिक काल में भी आरक्षण की व्यवस्था रही होती तो हम “ब्राह्मणेतर
ऋषियों” और “स्त्री ऋषियों” की बौद्धिक सम्पदा से वंचित हो गये होते । संविधान लिखते
समय यह संकल्प क्यों नहीं लिया गया कि भारत के प्राचीन आदर्श राजाओं के राज्यों
में प्रचलित रहे संविधानों के अनुरूप भारत का पुनरुद्धार किया जायेगा ! यदि ऐसा
किया गया होता तो आज कोई अनुसूचित जाति, जनजाति या दलित नहीं
होता बल्कि हर कोई केवल भारत का नागरिक होता और हर किसी को एकसमान विकास के अवसर
मिलते । जब हम किसी व्यक्ति को विशेष सुविधा देते हैं तो किसी दूसरे व्यक्ति के
सामान्य अधिकारों की हत्या कर रहे होते हैं । ध्यान रखिये! मुस्लिम समाज भी
अनुसूचित जाति, जनजाति, दलित, अस्पर्श्य, पिछड़ा और उच्च वर्ग की परम्पराओं से
मुक्त नहीं हो सका है; वहाँ भंगी है और सैय्यद भी ।
जब आपने
हमें मनुवादी कहते हुये अपने पूर्वजों की प्रशस्त परम्पराओं का उपहास किया, उनकी
जीवनशैली और आदर्शों को तिलांजलि दे दी, ऋषियों द्वारा
संकलित वैदिक विज्ञान का तिरस्कार करते हुये वेदों को घृणापूर्वक अपने पैरों तले
रौंदा और उन्हें जलाया तब आप भारत के समाज को खण्डित कर रहे थे, आप वर्गभेद के बीज बो रहे थे, आपके आंदोलन उन बीजों
को पोषण प्रदान कर रहे थे और आप स्वयं को प्रगतिवादी घोषित कर रहे थे ।
प्रगतिशील और उदारवादी समुदाय के लोग संविधान और न्यायालयों की उतनी ही बातें मानते हैं जितने से उनकी स्वेच्छाचारिता का पोषण हो सकता है । वे संविधान के उन हिस्सों और न्यायालयों के उन निर्णयों को नहीं मानते जिनसे अन्य लोगों को भी जीने का अधिकार मिलता है । यही भारतीय साम्यवाद है जो इस्लामवाद का ही एक अन्य सुरक्षित रूप है ।
हिज़ाब ज़िहाद का हिसाब कब
दुनिया
के सभी धर्म अपने विशिष्ट धार्मिक प्रतीकों से अपने पृथक धर्म की पहचान की घोषणा
करते हैं । धार्मिक गुरुओं को छोड़ दें तो कुछ लोग धार्मिक कर्मकाण्ड के अवसरों पर
ही अपनी धार्मिक पहचान का प्रदर्शन करते हैं जबकि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो देश-काल-वातावरण
की उपेक्षा करते हुये सदा ही अपनी धार्मिक पहचान को भीड़ से अलग करने की घोषणा को
आवश्यक मानते हैं; ऐसा तभी होता है जब हम अपने धर्म के विस्तार के अभियान का स्वयं एक हिस्सा
बनते हैं । आधुनिक विद्यालय धार्मिक कर्मकाण्ड के स्थान नहीं होते इसलिये वहाँ आपकी
पहचान एक छात्रा के रूप में ही क्यों नहीं होनी चाहिये?
विद्यालयों में समानता के लिये एक सामान्य परिधान (यूनीफ़ॉर्म) की व्यवस्था की गयी किंतु
कुछ लोगों ने यहाँ भी अपनी धार्मिक पहचान को भीड़ से अलग प्रदर्शित करने के लिये
हिज़ाब को ज़रूरी बना लिया ।
कोई भी
विशिष्टता सामान्य से पृथकता की घोषणा करती है । विद्यालय धार्मिक कर्मकाण्ड के
केंद्र नहीं हैं जहाँ हिज़ाब पहनकर आने के लिये इतनी ज़िद की जाय । विद्यालय में
हिज़ाब पहनकर आना “जीने की आज़ादी” और व्यक्तिगत पसंद” का विषय नहीं बल्कि आपके उस
अभियान का एक हिस्सा है जो भारत पर अपने प्रभुत्व के लिये निरंतर प्रयत्नशील है ।
विद्यालय
में हिज़ाब पहनकर आने के समर्थन में अल्ला-हू-अकबर का नारा लगाने वाली कर्नाटक की
हिज़ाबी छात्रा मुस्कान ख़ान को एक इस्लामिक संगठन ने पाँच लाख रुपये का पुरस्कार
देने की घोषणा की है । क्या यह स्वेच्छाचारिता को प्रोत्साहित करना नहीं है?
ऐसे हर अवसर पर ढाल और विष बुझे नेजे लेकर इस्लामिक अधिकारों की रक्षा के लिये प्रस्तुत हो जाने वाली दीक्षा जोशी एक बार फिर अपने यू-ट्यूब पर प्रकट हुयीं हैं । वे विद्यालय में हिज़ाब के विरोध को मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता और निजता पर हिन्दुओं का प्रहार मानती हैं । हर बात में हिन्दुओं को अपराधी और आतंकवादी आरोपित करने वाली दीक्षा जोशी भारत के विभिन्न शहरों में “पाकिस्तान ज़िंदाबाद” और “हिन्दुओं को कहीं पनाह लेने के लायक भी नहीं छोड़ेंगे” जैसे नारे लगाने वाली उत्तेजित भीड़ के कृत्यों पर कभी कुछ सोचने की भी आवश्यकता नहीं समझतीं ।
हिज़ाबी चर्चे गली-गली
अपनी
धार्मिक पहचान के प्रदर्शन के लिये अपनी व्यक्तिगत पहचान की कुर्बानी देने वाली
मुस्लिम लड़कियों के जज़्बे की तारीफ़ तो बनती है । यह वो फ़िलॉसफ़ी है जिसकी, हिन्दू
बात तो करते हैं किंतु कभी अपने जीवन में आचरित नहीं करते । माण्ड्या के एक कॉलेज
में एक लड़की ने हिज़ाब पहनकर विद्यालय आने के हठ के समर्थन में अल्ला-हू-अकबर का
नारा लगाया और संयोग से दो लड़कियाँ चर्चित हो गयीं ।
कुछ
लोगों का दावा है कि वे हिज़ाब वाली लड़की को जानते हैं । किसी ने उसे मुस्कान ख़ान
बताया तो किसी ने नजमा नज़ीर चिक्कनराले के रूप में उसकी पहचान बतायी जो राष्ट्रीय
जनता दल की एक सक्रिय सदस्य है । नजमा नज़ीर के कई चित्र सोशल मीडिया पर वायरल हुये
हैं । नजमा नज़ीर भी कोई सामान्य छात्रा नहीं है । वह पहले भी कर्नाटक के विभिन्न
शहरों में एनआरसी, सीएए और एनपीआर के विरोध में भाषण देती रही है । फ़ेसबुक पर उमर ख़ालिद,
कन्हैया और शेहला रशीद आदि के साथ उसके फ़ोटो देखे जा सकते हैं ।
फ़ेसबुक पर उसके फ़ॉलोअर्स की भीड़ है जिसमें से कुछ प्रशंसकों ने “नजमा नज़ीर फ़ैंस क्लब” भी बनाया हुआ है ।
फ़िलहाल
अभी तक यह तय नहीं है कि हिज़ाब वाली लड़की है कौन! कोई हिज़ाब में हो तो उसे कैसे
पहचाना जा सकता है? जो भी हो, हिज़ाब गर्ल के नाम से मुस्कान ख़ान और नजमा
नज़ीर दोनों की चर्चायें जोरों पर हैं, उधर कर्नाटक के अनहटी
टाउन में मुसलमानों की एक भीड़ ने हिज़ाबी छात्रा के समर्थन में पुलिस पर पथराव किया
जिसके बाद कर्नाटक के विद्यालयों और महाविद्यालयों को तीन दिन के लिये बंद कर दिया
गया है ।
भारत
में हिज़ाब के लिये पथराव हो सकता है, किंतु धोती-कुर्ता और भगवा की
बात करना भी पाप माना जाता है, यूँ भगवा के समर्थन के लिये
कभी कोई आंदोलन होगा इसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं लगती । आख़िर भगवा और
हिन्दुत्व विरोधी दीक्षा जोशी जैसी लड़कियों का सामना करने का साहस कितने लोगों में
है!
ध्यान
रखिये, सीताहरण के लिये रावण को भी साधु होने का छल करना ही पड़ता है । जो लोग
न्याय-अन्याय, समानता-असमानता, प्रगतिवाद
और उदारवाद के चोले में साधु होने का स्वांग कर रहे हैं वे ही समाज के सबसे बड़े
शत्रु हैं, फिर वह समाज भारत का हो या फ़्रांस और ज़र्मनी का ।
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