शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

धर्म और युद्ध

        - रूस और यूक्रेन नहीं, रूस और अमेरिका कहिये, यूक्रेन तो केवल रणक्षेत्र है । अच्छी बात यह है कि आशंकित युद्ध में धर्मविशेष को कोई घटक नहीं बनाया गया है । भारत विभाजन के लिये धर्मविशेष को घटक बनाया गया था, विभाजन हुआ, भारी हिंसा हुयी किंतु धर्मविशेष की समस्या जस की तस बनी रही । वास्तव में, युद्ध तो केवल स्वार्थों के बीच होता है, धर्मविशेष को तो अपने-अपने समूहों को बाँधने के लिये एक रस्सी की तरह प्रयुक्त किया जाता है ।

-      “हित अनहित पशु पच्छिउ जाना”, पशु-पक्षियों को अपने मित्रों और शत्रुओं के बारे में पता होता है । उन्हें किसी ने बताया या पढ़ाया नहीं, अंतर्दृष्टि से उन्हें सब कुछ पता होता है ।

-      पशु-पक्षियों की जातिगत विशेषतायें हैं, उन्होंने अपने शत्रुओं और मित्रों को पहचान लिया है । मनुष्य की भी जातिगत विशेषतायें हैं और वह अभी तक पहचान बनाने और बदलने में लगा हुआ है ।

-      जब तक मनुष्य केवल मनुष्य था, तब तक उसके व्यक्तिगत नामविशेष की कोई आवश्यकता नहीं थी । जब तक धर्म केवल धर्म था, तब तक उसके किसी समूहगत नामविशेष की कोई आवश्यकता नहीं थी ।

-      समय के साथ, मनुष्य पहले तो समूह बना फिर व्यक्ति हो गया । अब उनके कबीले थे, उनके नाम थे, उनकी पहचान थी, पृथक अस्तित्व थे, महत्वाकांक्षायें थीं, प्रतिस्पर्धा थी और पारस्परिक संघर्ष थे । मनुष्य की यात्रा कई विशेषताओं के साथ आगे बढ़ने लगी, इन विशेषताओं ने उनकी व्यक्तिगत पहचान को उकेरा । भाषा का विकास हुआ तो समूहों को एक और पहचान मिली । मनुष्य की भाषा, परिवेश, आवश्यकताओं, प्रवृत्तियों, उद्देश्यों और व्यक्तिगत क्षमताओं ने मनुष्य की व्यक्तिगत पहचान को इतना उकेरा कि हर व्यक्ति कुछ न कुछ विशेषता के साथ अलग प्रदर्शित होने लगा ।

-      जैसे-जैसे मानव समाज का विकास होता गया, उनके पारस्परिक संघर्ष बढ़ते गये । पहचान को और भी विशेष बनाने की आवश्यकता हुयी तो आचरणगत विशेषताओं ने मानवसमूहों को पंथों की परिधि प्रदान कर दी । पूरी धरती पर मनावसमूहों की जीवनशैली के कई पंथ विकसित होते गये । मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा वह याज्ञवल्क्य, जोसेफ़, रूज़वेल्ट या असलम हो गया । धर्म अब धर्म नहीं रहा उसे हिन्दू, यहूदी, जरथ्रुस्ट ख्रीस्त और इस्लाम जैसे कई परिधानों में सजा दिया गया । सागर अब सागर नहीं रहा, वह हिंदमहासागर या अरब महासागर जैसी सीमाओं में बँधकर बँटता चला गया ।

-      सागर को बाँटा नहीं जा सकता, पर हमने बाँट दिया । धर्म को बाँटा नहीं जा सकता, पर हमने बाँट दिया । क्या सचमुच सागर बँट गया, धर्म बँट गया! फिर वह क्या है जिसे हम बँटा हुआ देखते और पहचानते हैं?

-      वह हमारी प्रक्षेपित भूख है जो काल्पनिक और अस्तित्वहीन रेखायें खींचकर सब कुछ बाँट देने में लगी हुयी है ।

-      मानव सभ्यता विकसित होती गयी और अहंकार में डूबा मनुष्य क्रूर और विवेकहीन होता गया । यूक्रेन के रण में रूस और अमेरिका के बीच युद्ध के बादल मँडराने लगे हैं । तुम कहते हो कि तुम सभ्य और विकसित होते गये, ईश्वर कहता है कि तुम असभ्य और अविकसित होते गये हो । महायुद्ध की आशंकाओं के बीच शांति नहीं “अ-युद्ध” की सम्भावनाओं की चर्चा भी की जा रही है किंतु पहले पीछे कौन हटे यह विवाद तो तब तक बना ही रहेगा जब तक युद्ध प्रारम्भ नहीं हो जाता और अंत में युद्ध सामग्री समाप्त नहीं हो जाती । महाविनाश के बाद शांति की बात करना हर पक्ष की विवशता होगी ।

-      हिजाब, अबाया, बुरका, पगड़ी, चूड़ी, बिंदी, सिंदूर और मंगलसूत्र का विवाद अब भारत से बाहर निकलकर यूरोप और अमेरिका तक पहुँच गया है । किताब से पहले पहचान की तलब हिलोरें मारने लगी है । पहचान की ढाल को सामने अड़ाकर ज्ञान पाने की शर्त रख दी गयी है । पहले पहचान फिर किताब । पहचान नहीं तो किताब नहीं ।

-      मनुष्य अपनी समूहगत पहचानों में खो गया है जिन्हें तुमने रचा है, धर्म उन पंथी परिधानों में खो गया है जिन्हें तुमने सिला है ।

-      चलो, हम भीड़ में मनुष्य को पहचानें । चलो, हम पंथों में धर्म को पहचानें ।

-      तमिलनाडु के तिरुपत्तूर की पैंतीस वर्षीया स्नेहा ने पाँच फरवरी 2019 को भारत का पहला नो कास्ट, नो रिलीज़नवाला प्रमाणपत्र प्राप्त कर अपनी तत्कालीन जातिगत और धार्मिक पहचान से मुक्ति पा ली है । वे किसी जाति और धर्म से मुक्त होकर केवल मनुष्य बनी रहना चाहती हैं, किंतु उन्होंने अपनी तीनों बेटियों - आधिरइ नसरीन, आधिला इरेन और आरिफ़ा जेस्सी के नामों में दो धर्मों की पहचान को सम्मिलित कर लिया । पहचान से मुक्ति के उपक्रम में दो धर्मों की पहचान का सम्मिश्रण भीड़ में और खो जाने जैसा है । हिन्दू प्रतीकों के मूल्य पर इस्लामिक और ईसाई प्रतीकों के वरण से उनकी बेटियों की पहचान और भी जटिल हो गयी है ।

-      स्नेहा और उनके परिवार के सदस्य शायद अब दीवाली नहीं मनाते होंगे, या वे दीवाली, ईद और एक्समस तीनों मनाते होंगे । इतना तो निश्चित है कि बिना गीत गाये, बिना नृत्य किये, बिना कोई पर्व मनाये जीवन जी पाना बहुत जटिल होगा ।

-      मनुष्य अपनी रची जटिलताओं में बुरी तरह उलझ चुका है । नाम और धर्म के बिना सांसारिक यात्रा की कल्पना इतनी असम्भव सी क्यों लगने लगी है!

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