उसने कलम उठायी और अपने नाम के साथ तोमर लिखकर अपने उपनाम का कायाकल्प कर दिया । किसी ने चौहान या परमार लिखकर, तो किसी ने चतुर्वेदी, तिवारी, पांडे, पाठक, जोशी, व्यास, दुबे ...आदि लिखकर अपने पूर्व उपनामों का कायाकल्प कर दिया ।
वे तोमर या तिवारी ...आदि तो होना चाहते
हैं ...हो भी गये हैं किंतु वे कभी क्षत्रिय या ब्राह्मण नहीं होना चाहते । क्षत्रिय
या ब्राह्मण होना बहुत ही घाटे का सौदा है । सहकर्मियों को कुछ भी पता नहीं होता कि कोई
क्या है और क्या होना चाहकर भी हो नहीं पा रहा है । सच तो यह है कि बाहर से किसी को
कुछ भी पता नहीं होता कि कौन क्या है, अंदर की
बात तो केवल सर्विस-बुक को ही पता होती है ।
भारतीय समाज “होने” और “हो न
पाने” के बीच थोड़ी
सी कुण्ठा और थोड़े से गर्व के साथ एक पग आगे चलता है और फिर तीन पग पीछे की ओर लौट
जाता है । वह जो है उसके होने में उसे लज्जा आती है, और जो वह
नहीं है उसका आवरण ओढ़कर भी उससे संतुष्ट नहीं हो पाता ।
विधिशास्त्र में स्नातक, वाणिज्य
प्रशासन और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर और
पीएच.डी. करने के बाद भी वह दलित है । कैबिनेट मंत्री और सदन में विपक्षी दल का
नेता रहते समय भी वह दलित ही रहा । और आज
एक प्रांत का मुख्य मंत्री रहने के बाद भी वह दलित ही है ।
उसने संगीत का प्रशिक्षण लिया और मंच
पर गीत गाने लगा...फिर भी वह दलित ही बना रहा, अ-दलित
नहीं हो सका ।
वह व्यवसायी है और राजनेता भी, उसकी
पत्नी डॉक्टर है और
आत्मनिर्भर भी ...फिर भी वह दलित है ।
साल 2017 में उसने शपथ लेकर देश की प्रजा
को बताया कि वह 14.51 करोड़ की सम्पत्ति का स्वामी है ...फिर भी वह दलित है ।
वह पगड़ी पहनता है और एक सिख जैसा
दिखायी देता है ...फिर भी वह दलित है ।
कैबिनेट मंत्री रहते हुये उसने एक
ज्योतिषी के परामर्श से अपने प्रासाद के सामने के पार्क से होते हुये एक अवैध सड़क
का निर्माण करवा दिया अर्थात उसकी शक्तियाँ वैध-अवैध की सीमाओं से परे हैं ...फिर
भी वह दलित है ।
हम उसे एक उच्च शिक्षित सिख समझते रहे
जो व्यवसायी होने के साथ-साथ एक सुस्थापित राजनेता भी है किंतु अचानक एक दिन पता
लगा कि वह दलित है ।
हम पूरी गम्भीरता से खोज रहे हैं कि वह
कहाँ से दलित है ...कितना दलित है ...कब तक
दलित बना रहेगा और उसके दलित्व की कोटि क्या है ? मेरी
खोज पूरी नहीं हो पा रही है, …सच कहूँ
तो खोज का प्रारम्भिक सूत्र ही पकड़ में नहीं आ रहा है ।
यदि दलित शब्द के अर्थ को एक ओर सरका
कर देखें तो सचमुच दलित होना एक सौभाग्य की बात है, और
इसीलिये अब मैं भी एक दलित होना चाहता हूँ । कितना अच्छा होता यदि पूरा देश ही
दलित हो पाता, बल्कि
रोमानिया और लॉस
एंजेलेस के लोग भी दलित हो पाते । मुझे रोमानिया की उन बारह साल की किशोर होती
बच्चियों और लॉस एंजेलेस की लड़कियों के लिये बहुत दुःख होता है जिनकी देह को
यौनव्यापार की फ़ैक्ट्री बना दिया जाता है । काश! पूरी दुनिया के लोग दलित हो पाते!
good said
जवाब देंहटाएं