सोमवार, 29 मार्च 2021

इस्लाम की हिफ़ाज़त में उजाड़ दिए नौगाँव के हिंदुओं के घर...

भारत के प्रधानमंत्री की हाल में हुयी बांग्लादेश यात्रा के कुछ दिन पूर्व ही बांग्लादेश के एक हिंदू गाँव के कई घरों को उजाड़ दिया गया था । हम प्रतीक्षा कर रहे थे कि शायद प्रधानमंत्री का इस सम्बंध में कोई वक्तव्य आयेगा, जो नहीं आया । पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहे हैं और बांग्लादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न की बात करके कोई भी राजनीतिज्ञ अपने लिये कोई मुश्किल नहीं खड़ी करना चाहता । अर्थात हिंदू उत्पीड़न की बात करना भारत के राजनीतिज्ञों के लिये एक ज़ोखिम भरा काम है । यह बात भारत और पूरी दुनिया भर के हिंदुओं को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये ।    

फ़्रांस में इस्लाम को लेकर कुछ होता है तो भारत में आग लग जाती है, भारत सहित बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिंदुओं को लेकर कुछ होता है तो भारत में ख़ामोशी छायी रहती है । अभी चंद दिन पहले ही पाकिस्तान के सिंध में मौलाना मियाँमिट्ठू ने एक सिंधी लड़की का ज़बरन धर्म परिवर्तन कराया तो भारत के तमाशबीन तमाशा देखते रहे । और अब बांग्लादेश के एक हिंदू गाँव में पचास घरों को तबाह कर दिया गया तो एक बार फिर भारतीय तमाशबीनों को तमाशा देखने का मौका मिल गया ।

जिस बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिये भारतीय सैनिकों ने अपना ख़ून बहाया उसी बांग्लादेश के सुनामगंज जिले के शल्लाह उपजिले के नौगाँव में 17 मार्च की सुबह लगभग 8 बजे हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम के हजारों हिफ़ाज़तियों ने हिंदुओं के लगभग 50 घरों में तोड़फोड़ और लूटमार की । नौगाँव के आसपास के तीन-चार गाँवों से हिफ़ाज़तियों को एकत्र किया गया और एक हिंदू युवक की फ़ेसबुक पोस्ट का विरोध करते हुये घरों को तबाह कर दिया । भारतीय मीडिया नौगाँव की इस घटना पर ख़ामोश रही, चुनाव का जो मौसम आया हुआ है न! डॉ. तस्लीमा नसरीन न होतीं तो हमें भी कुछ पता नहीं चलता । तस्लीमा को धार्मिक उत्पीड़न की ऐसी घटनाओं से चोट लगती है तो भारत के हिंदू लोग भी उनके ट्विटर अकाउण्ट पर उन्हें निहायत अश्लील गालियों से सराबोर कर देते हैं । कुल मिलाकर धरती पर केवल इस्लाम ही रहेगा, दीगर धर्म के लोग नहीं, यह संदेश सबको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये ।

भारत के धर्मनिरपेक्ष हंगामेदार भी हिंदुओं की तबाही के प्रकरणों पर गज़ब की ख़ामोशी अख़्तियार कर लिया करते हैं । यूँ बांग्लादेश की पुलिस ने इस घटना में लगभग दो दर्ज़न लोगों को ग़िरफ़्तार कर लिया है किंतु सवाल यह है कि यह ग़िरफ़्तारी भारतीय प्रधानमंत्री के लिये एक प्रदर्शन भर है या सचमुच ऐसी घटनाओं पर वास्तविक अंकुश लगाने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन भी?

इण्डिया जहाँ मौत भी एक मसाला है...

पश्चिम बंगाल में माह भर पहले तृ.मू.कां. के कार्यकर्ताओं ने एक भाजपा कार्यकर्ता की वयोवृद्ध माँ शोभा मजूमदार की बुरी तरह पिटायी की थी । उनका इलाज़ चल रहा था, इसी बीच उनकी मृत्यु हो गयी । माह भर से राजनीतिज्ञों की नैतिकता नींद में थी, वृद्धा की मृत्यु होते ही नैतिकता जाग गयी, हल्ला होने लगा, पूरे देश को बताया जाने लगा कि पश्चिम बंगाल की बेटियाँ और महिलायें असुरक्षित हैं । उधर ममता ने पल्ला झाड़ लिया कि वृद्धा की मौत की वज़ह उन्हें नहीं पता । बिल्कुल ठीक, आवश्यक नहीं कि प्रदेश भर में होने वाली हर मृत्यु की वज़ह मुख्यमंत्री को पता हो, लेकिन तब किसी सफायी की भी क्या आवश्यकता?

कुछ ही दिन पूर्व मुम्बई में रिलायंस समूह के उद्योगपति मुकेश अम्बानी के आवास एंटीलिया के बाहर विस्फोटकों से लदी एक स्कॉर्पियों पायी गयी । कोई विस्फोट हो पाता इससे पहले ही मामला उजागर हो गया जिसके बाद एक ताक़तवर प्यादे ने दूसरे कमज़ोर प्यादे की हत्या कर दी । मीडिया में यह प्यादाखोर घटना “मनसुख-वाघे काण्ड” के नाम से चर्चित हो रही है । प्यादों की छोटी कड़ी तो निपट गयी, अब शायद बड़े प्यादों की बारी है, और उसके बाद शायद कुछ राजाओं की भी जो अब राजा से प्यादा बनने की प्रक्रिया में पक रहे हैं ।

मुम्बई के शराबघरों की आमदनी और उनमें नाचने वालियों के मेहनताने में से एक सौ करोड़ रुपये हर महीने उगाही करने के काम पर लगाया गया पुलिस इंस्पेक्टर सचिन बाघे अब पुलिस की ग़िरफ़्त में है जिससे महाराष्ट्र की सियासत में बुरी तरह भूचाल आया हुआ है । एक और गुलाम वंश की नींव पड़ते ही मामला गड़बड़ा गया । महा-अघाड़ी ने महाराष्ट्र को महा-पिछाड़ी बनाने के ठेके न जाने और कितने प्यादों को दिये होंगे । अब कोई राजा लोककल्याणकारी नहीं हुआ करता । इण्डिया में पिण्डारियों के शक्तिशाली समूह सक्रिय हैं जो जनता से अपने लिये इसका अख़्त्यार छीन लिया करते हैं ।  

महाराष्ट्र के बुज़ुर्ग शेर शरद पवार ने सदन में सचिन बाघे का बचाव किया जिससे पूरे देश को एक कुख्यात बचाव सूत्र – “बच्चे हैं, कभी-कभी गलती हो जाती है, इसका इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनाना चाहिये” की याद आ गयी ।

शोभा मजूमदार मारपीट और महाराष्ट्र वसूली अभियान को लेकर टीवी डिबेट्स में ग़रीब-गुरबा प्रजा के सामने जिस बेहयायी, धूर्तता और आँखों से काजल निकालने की गुण्डत्व शैली में काँव-काँव परोसी जा रही है उससे भारत ही नहीं इण्डिया की भी परम्पराओं की हत्या प्रतिक्षण हो रही है । इण्डिया में अब चुनाव के समय लोकहितकारी योजनाओं पर चर्चा नहीं होती, क्या-क्या फ़्री में बाँट-बाँट कर जनता को अपाहिज बनाये जाने की योजना है इसकी घोषणा अवश्य होती है । स्वस्थ राजनीतिक संवादों का स्थान बहुत पहले ही व्यक्तिगत आक्षेपों ने ले लिया था जो अब हिंसक आक्रमण-प्रत्याक्रमण की ओर तीव्र गति से बढ़ता दिखायी दे रहा है । आक्रमण की यह शैली भारतीय राजाओं के आपसी युद्धों की ओर अग्रसर होती जा रही है ।

हम भारत की तलाश में थे किंतु यहाँ तो इण्डिया भी अपनी ज़मीन खोती जा रही है । राजनीतिज्ञों ने बेशुमार सम्पत्ति के साथ-साथ अपने लिये बेहद नफ़रत के ऊँचे-ऊँचे पहाड़ भी कमा लिये हैं ।         

रविवार, 28 मार्च 2021

भाँग की औषधीय उपयोगिता...

हिमालय के साधुओं में शिवबूटी के नाम से प्रसिद्ध भाँग और उसके अन्य उत्पादों, यथा – गाँजा, चरस और तेल आदि को पश्चिम के कई देशों में औषधीय उपयोग के लिये मेडिकल लायसेंस दिया जाता है । कैंसर की कीमोथेरेपी के बाद होने वाले कष्टदायक साइड इफ़ेक्ट्स पर विजय पाने के लिये विजया (मेडिकल मारीज़ुआना) से उत्तम औषधि और क्या हो सकती है! कैंसर ही नहीं तंत्रिका तंत्र के कई असाध्य रोगों में भी मेडिकल मारीज़ुआना के औषधीय उपयोग को श्रेष्ठ पाया गया है ।

भारत के हिमालयी क्षेत्रों में विजया का पारम्परिक उपयोग ब्लीडिंग, डिस्मिनोरिया, सीवियर पेनफ़ुल डिलीवरी और प्रीमैच्योर इजेकुलेशन जैसी व्याधियों के लिये किया जाता रहा है । इधर पिछले कई दशकों से पश्चिमी देशों में भाँग के विभिन्न उत्पादों पर किये गये शोधों से भाँग के प्रति हमारी श्रद्धा में और भी वृद्धि हुयी है । Migraine, epilepsy, ADD/ADHD/PTSD, depression, ulcerative colitis, Parkinson’s disease, Alzheimer’s disease, Huntington’s disease, fetal hypoxia,  multiple sclerosis, fibromyalgia, CRPS (complex regional pain syndrome), Fibromyalgia, endometriosis, interstitial cystitis. Psoriasis, rheumatoid arthritis, lupus, autism और severe side effects of Chemotherapy in cases of cancer आदि ऐसी समस्यायें हैं जिनकी चिकित्सा में संतोषजनक सफलता आज भी एक स्वप्न है । मेडिकल मारीज़ुआना के युक्तियुक्त उपयोग से इन व्याधियों की चिकित्सा में पश्चिमी देशों को उल्लेखनीय सफलतायें मिल रही हैं, वहाँ के शोधकर्ताओं के अनुसार –“Medical marijuana helps in reducing the pain and side effects caused by treatment of cancer and hepatitis –C”.

American Alliance for medical Cannabis ने मेडिकल मारीज़ुआना के प्रयोग से Blood sugar एवं  blood pressure को नियंत्रित करने और Blood circulation को improve करने में भी सफलता पाने का उल्लेख किया है । मेडिकल मारीज़ुआना से इंसूलिन के स्राव और मोटापे पर भी नियंत्रण पाये जाने की रिपोर्ट्स हैं । शरीर के अनियंत्रित भार को कम करने में इसके उपयोग से कौन परिचित नहीं है!

इज़्रेल के तेल अवीव में स्थित Bone research laboratory ने मारीज़ुआना को बोन फ़्रैक्चर की चिकित्सा में उपयोगी पाया है – “It also helps strengthen the bone in the process of healing”.

मेडिकल मारीज़ुआना बढ़े हुये इंट्रा-ऑक्युलर प्रेशर को कुछ् समय के लिये कम कर देता है जिसके कारण इसका एक लाक्षणिक उपयोग ग्लाओकोमा में भी है – “It reduces IOP and so gives temporary relief in glaucoma”.

Alzheimer’s disease जैसी cognitive degeneration की स्थिति में Endocannabinoids के न्यूरोप्रोटेक्टिव महत्व से हम सभी परिचित हैं । मारीज़ुआना में पाये जाने वाले THC और CBD के एक बेहतर अनुपात में उपयोग से इम्यून रिस्पॉन्स में भी वृद्धि देखी गयी है ।

कुछ लोगों के अनुसार – “कॉग्नीटिव फ़ंक्शन्स के लिये शरीर में Endocannabinoids की उपलब्धता को मेडीटेशन द्वारा नियंत्रित किया जा सकना सम्भव है

क्या इतने सारे अद्भुत गुणों के कारण ही भाँग का दूसरा नाम विजया पड़ गया! गोरखपुर वाले ओझा जी मानते हैं कि – “मेडिकल मारीज़ुआना के सदुपयोग और उसकी वैधानिकता पर गम्भीर मंथन किये जाने की आवश्यकता है”।   

भंग का रंग जमा ले चकाचक...

भाँग की गुझिया, भाँग की बर्फ़ी, भाँग की ठण्डाई... होली में भाँग के दीवानों को जैसे खुली छूट मिल जाया करती है । गोरखपुर वाले ओझा जी को शिवबूटी के नाम पर विजया के लिये ऐसी दीवानगी से सख़्त ऐतराज है । उनका अनुमान है कि ऐसे ही दीवानों के कारण शिवबूटी यानी विजया यानी भाँग यानी कैन्नाबिस सैटाइवा पर भारत में वैधानिक प्रतिबंध लगाया गया होगा । उन्हें किसी बहु उपयोगी एवं अद्भुत औषधि के प्रति सरकार का यह प्रतिबंध न्यायपूर्ण नहीं लगता । यह उसी तरह है जैसे कि तालाब में डूबकर होने वाली मृत्यु को रोकने के लिये तालाबों के निर्माण पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाय । ओझा जी को इस बात से कष्ट है कि विजया भारत में प्रतिबंधित और हेय हुयी तो पश्चिम में मेडिकल मारीजुआना बनकर प्रचलित और सम्मानित हुयी । हमने अपनी एक और अद्भुत और महत्वपूर्ण विरासत को खो दिया ।

कला, विज्ञान और दर्शन को एक साथ लेकर चलने वाले अचिंत्य की, मारीज़ुआना को लेकर प्रतिक्रिया कुछ इस तरह है – “हमने विजया को उसके अमृत स्वरूप में स्वीकार करना छोड़ दिया तो पश्चिम ने उसके अमृत स्वरूप को स्वीकार कर लिया । हम पथभ्रष्ट हुये और धीरे-धीरे शिव जी की प्रिय विजया के विष स्वरूप को ही देखने के अभ्यस्त हो गये । मारीज़ुआना एक ऐसी अद्भुत औषधि है जिसके परिणाम, सेवन करने वाले व्यक्ति की मानस प्रकृति के अनुसार परिलक्षित होते हैं । यदि हम तामसी भाव के साथ और अयुक्तिपूर्वक मारीज़ुआना का तामसी सेवन करेंगे तो इसके तामसी प्रभाव प्रकट होंगे । इसी तरह यदि हम सात्विक भाव के साथ और युक्तिपूर्वक मारीज़ुआना का सात्विक सेवन करेंगे तो इसके सात्विक प्रभाव प्रकट होंगे । शिव सदा कल्याणकारक हैं इसलिये उनकी बूटी को शिवत्व के साथ ही ग्रहण करना होगा अन्यथा अशिव होते देर नहीं लगेगी । भाँग हमारे तमोगुण से मिलकर तमोगुणी होती है और हमारे ही सतोगुण से मिलकर सतोगुणी भी । यह किसी को डिप्रेशन से मुक्त करती है तो किसी को डिप्रेशन में डुबो देती है । यह अमृत भी है विष भी । सन् 1876 में सिगरेट बनाने वाली मशीन के बाज़ार में आने के बाद भारत सहित दुनिया के कई देशों में लंग्स कैंसर की बाढ़ आ गयी जिसके कारण भारत में भी भाँग को प्रतिबंधित कर दिया गया जबकि सिगरेट आज तक प्रतिबंधित नहीं की जा सकी”।

हम चिंतन से दूर हुये तो पाखण्ड में जकड़ते चले गये । महाशिवरात्रि के दिन तथाकथित शिवभक्तों को नशे में डूबकर अश्लीलता की सीमायें तोड़ते हुये अनृत्य-नृत्य देखने के बाद मन में कष्ट होता है । शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण । शिव की साधना दुःखों से मुक्त होने की साधना है । शिवत्व की उपलब्धि कल्याण की उपलब्धि है ।

पीड़ा नाशक द्रव्यों में ओपिऑयड्स के बाद भाँग का ही स्थान है जिसके कारण पश्चिमी देशों ने मारीज़ुआना को सम्मान के साथ स्वीकार किया है । हमने भाँग का असम्मान किया, उसका दुरुपयोग किया और नशे में डूबने लगे इसलिये हमारे यहाँ शिव-बूटी वर्ज्य है, प्रतिबंधित है । विचित्र बात यह है कि भारत में भाँग के ठेके हैं किंतु मेडिकल मारीजुआना की अनुमति नहीं है ।

भारत के ठण्डे और नम क्षेत्रों में पायी जाने वाली उष्ण प्रकृति वाली विजया का शोधन संस्कार करने के बाद ही युक्तियुक्त तरीके से सेवन करने का विधान आयुर्वेद के ग्रंथों में वर्णित है ।

कैसे करें भाँग का शोधन संस्कार?

यह भाँग के औषधीय गुणों के मोडीफ़िकेशन की प्रक्रिया है जिसमें भाँग के तामसी गुण वाले तत्वों को निष्क्रिय करने और सात्विक गुणों वाले तत्वों को सक्रिय करने का यथासम्भव प्रयास किया जाता है । भाँग में लगभग एक सौ प्रकार के रासायनिक तत्व पाये जाते हैं जिन्हें cannabinoids की संज्ञा दी गयी है । चिकित्सक समुदाय में इसके एक सौ कैन्नाबिनॉयड्स में से प्रायः THC (delta 9 tetrahydrocannabinol), CBD (cannabidiol) एवं CBN (cannabinol) की ही अधिक चर्चा की जाती है । कई लोग अच्छे परिणामों को पाने और घातक परिणामों को न्यून करने की दृष्टि से THC और CBD के युक्तियुक्त अनुपात के पक्षधर हैं । आयुर्वेद की वैद्यकीय परम्परा में किये जाने वाले भाँग के शोधन की प्रक्रिया THC और CBD जैसे रसायनों के बेहतर आनुपातिक संयोग की प्रक्रिया है ।

यदि होली में आप भी शिवबूटी का सेवन करना चाहते हैं तो कृपया इसका शोधनपूर्वक सदुपयोग करें, दुरुपयोग नहीं । अस्तु, भाँग के शोधन के लिये किसी वैद्य की देखरेख में दोलायंत्र में भाँग की पत्तियों का गोदुग्ध में एक प्रहर तक स्वेदन करें, तदुपरांत जल से अच्छी तरह धोकर व सुखाकर गोघृत में मंद आँच पर भूनकर रख लें । इस शोधित भाँग का सेवन रोग के अनुसार उचित मात्रा में किया जाना चाहिये, न कि नशे के लिये ।

कल हम चर्चा करेंगे उन रोगों के बारे में जिनकी चिकित्सा में भाँग का उपयोग लाभकारी है । इसके बाद मारीज़ुआना पर लगे वैधानिक प्रतिबंध के औचित्य पर आपको अपनी राय देने का एक वैज्ञानिक और व्यावहारिक आधार मिल जायेगा ।

According to narcotic Drugs and psychotropic Substances Act – चरस, गाँजा and hash oil are banned in India. The international SCND treaty in 1961 has led to a ban on marijuana. 

शनिवार, 27 मार्च 2021

भारत की खोज में...

                        मेरी भतीजी तान्या, पीएच. डी. के लिये यू.एस.ए. चली गयी और अब कभी इण्डिया वापस नहीं आना चाहती, उसे भारत की तलाश है ।

-       मेरा भान्जा पार्थ, फ़िज़िक्स में रिसर्च करने यू.एस.ए. चला गया और अब कभी इण्डिया वापस नहीं आना चाहता, उसे भी भारत की तलाश है ।

-       मेरा बड़ा भतीजा सुस्मित, बीस साल बाद सेवानिवृत्त होते ही भारत की खोज में एक बार फिर इण्डिया आना चाहता है ।

-       मेरा बेटा अचिंत्य, लॉस एंज़ेल्स जाकर बस जाना चाहता है और वहीं रहकर एक नन्हें भारत की रचना का स्वप्न देखता है ।

-       मोतीहारी वाले मिसिर जी जीवन भर इण्डिया में भारत की खोज करने में व्यस्त रहे हैं, उनकी खोज अभी तक पूरी नहीं हो सकी है ।

-       हमने गोरखपुर वाले ओझा जी को फोन लगाया, -“क्या एक दिन हमें भी भारत छोड़कर जाना होगा?”

-       ओझा जी बोले – “ना, हम कहिओ ना जाइब, हिमालय चल देब, ओहिजे एगो छोट-मोट भारत बना लेब आ लिट्टी-चोखा आ आलू-गोभी के सब्जी खा के बाकी जिनगी गुजार देब”।

 

-       देवताओं की भीड़ नहीं होती, इसलिये उन्हें राक्षसों और दैत्यों से डरना पड़ता है । भयभीत और असंगठित देवताओं को पलायन करना पड़ता है राक्षसी शक्तियाँ उन्हें भगा दिया करती हैं ।

-       भारत में देव, दानव, दैत्य, राक्षस और मानव जैसी विरोधी वृत्तियों का सदा संघर्ष होता रहा है । एक दिन भारत में राक्षसों, दैत्यों और दानवों का वर्चस्व होना निश्चित है, तब देवों को भारत छोड़कर पाताललोक जैसे किसी स्थान पर जाकर छिपना होगा । आसुरी शक्तियाँ वहाँ से भी उन्हें खदेड़ देंगी । देवता भागते रहेंगे, असुर उन्हें खदेड़ते रहेंगे ।यही होता आया है, भागने भगाने का यही क्रम है ।

-       सुना है, किसी मुस्लिम देश में हिंदुओं के लिये एक भव्य मंदिर बनाया गया है... इधर यह भी उतना ही सत्य है कि इण्डिया में मंदिरों को ध्वस्त करने की सदियों पुरानी परम्परा आज भी व्यवहृत होती है । 

आम आदमी कौन है?

पिछले कई सालों से मोतीहारी वाले मिसिर जी आम आदमी को खोज रहे हैं । उस आदमी को खोज रहे हैं जो देश का अंतिम उपभोक्ता है, दैनिक उपभोग की जाने वाली चीजों का ही नहीं बल्कि निराशा, क्रोध और शोषण की श्रंखला का भी अंतिम उपभोक्ता । मिसिर जी ने ग़रीबों की बस्ती में जाकर खोजा, वहाँ हर कोई रोटी की जुगाड़ में व्यस्त था, किसी को भी उनकी बात का उत्तर देने का समय नहीं था । फिर उन्होंने बाजार में ख़रीददारी करती मध्यम आय वर्ग की भीड़ में जाकर खोजा, यह भीड़ किसी लफड़े में नहीं पड़ना चाहती थी, लोग बचकर सरकने लगे, भीड़ छँट गयी तो मिसिर जी अकेले रह गये ।

इस बीच चुनाव का मौसम एक बार फिर आ गया तो मिसिर जी ने चुनाव प्रचार करने वाली भीड़ में जाकर आम आदमी को खोजने का प्रयास किया, मिसिर जी को लगा कि इन लोगों से अधिक व्यस्त और कोई नहीं है, यहाँ भी कोई बात नहीं बनी । मिसिर जी ने वोट डालने वाले लोगों की लम्बी कतार को देखा, वे उनसे बात करना चाहते थे लेकिन पुलिस के जवानों ने उन्हें उन लोगों के पास नहीं फटकने दिया ।

मिसिर जी के पाँव उस बस्ती की ओर मुड़ गये जिसे अक्खा दुनिया इण्डिया की दलित बस्ती के नाम से जानती है । मिसिर जी ने देखा, वहाँ विवाद हो रहा था । कुछ लोग दलित बनना चाहते थे, कुछ लोग उन्हें दलित स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे । मिसिर जी को लगा कि दलित होना एक उपलब्धि है इसलिये यहाँ भी किसी आम आदमी के होने की कोई सम्भावना नहीं है ।

यह वर्गभेद और जातियों को जन्म देने के आरोप से आरोपित एवं बुरी तरह कुख्यात हो चुके मनु का युग नहीं बल्कि ब्रिटिश हुक़ूमत का ज़माना था जब वर्गभेद समाप्त करने के लिये प्रतिबद्ध इण्डिया ने एक नया वर्ग उत्पन्न किया और जिसे पूरी दुनिया ने “दलित” के नाम से जाना । फ़्री इण्डिया के वर्गभेद विरोधी नायकों ने जातियों और उपजातियों के समूहों का एक बार फिर वर्गीकरण किया । कुछ लोगों को अनुसूचित जातियों, जनजातियों और दलितों में सम्मिलित किया जाने लगा । प्रारम्भ में कुछ लोगों को उन्हें दलित कहा जाना अच्छा नहीं लगा लेकिन बाद में वे इस उपाधि से गौरवान्वित होने लगे । धीरे-धीरे इस नये वर्गीकरण का हिस्सा बनने की प्रतिस्पर्धा में बहुत से लोग ख़ुशी-ख़ुशी सम्मिलित होने लगे ।   

दलित होना, दलित खोजना, और दलित बनाये रखना इण्डियन राजनीति की बहुत बड़ी आवश्यकतायें हो गयी हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह विभिन्न धर्म, विभिन्न सम्प्रदाय और विभिन्न संगठन ।

मिसिर जी की खोज अभी पूरी नहीं हुयी है...

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

चाई ना, चाई ना, अमर्यादा-उन्माद चाई ना ...

    भय से देश बनते हैं, अहंकार से देश टूटते हैं” –मोतीहारी वाले मिसिर जी ने गमछे से चेहरे का पसीना पोंछते हुये जब यह सूत्र वाक्य बोला तो मैं समझ गया कि आज मिसिर जी कोई बहुत गहरी बात कहने वाले हैं । गोरखपुर वाले ओझा जी हुलफुलिया आदमी हैं, उन्हें पहेलियाँ पसंद नहीं हैं, बोले – “सीधे-सीधे बतियावा ना मिसिर बाबा, पहेली काहें बुझावत हऽ“।

मिसिर जी शुरू हुये – “आपने देखा ओझा जी! हमारे देश के भाग्यविधाता किस तरह एक-दूसरे पर अभद्र और अमर्यादित शब्दबाणों से प्रहार करते हैं । चुनावों के समय तो सारी सीमायें टूट जाया करती हैं, लगता है कि इस बार तो अब ख़ून-ख़राबा होकर ही रहेगा । इस अमर्यादित वाक्युद्ध का जनता के हितों और समग्र विकास से रत्ती भर भी कोई अभिप्राय नहीं हुआ करता, चिड़िया की आँख की तरह इन सबका एक ही लक्ष्य होता है –सत्ता । फ़िलहाल पश्चिम बंगाल में जिस तरह राजनेताओं के बीच धर्मविहीन, मर्यादाविहीन और लज्जाविहीन वाक्युद्ध चल रहा है उसकी दिशा कालांतर में अलगाव और एक पृथक देश के निर्माण की ओर संकेत करती है । इस अमर्यादा के दूरदर्शी प्रभाव बहुत गम्भीर होंगे । वृहत आर्यावर्त कालांतर में इसी तरह छिन्न-भिन्न होकर खण्ड-खण्ड होता रहा । सत्ता की छीनाझपटी के लिये उन्मादित रहने वाले राजनेताओं के व्यक्तिगत अहंकार से धरती पर जिस प्रकार की छुद्र राजनीतिक रेखायें बनती और बिगड़ती हैं उन्हीं से देश बिखरते हैं ...खण्ड-खण्ड होते हैं । भय भीड़ को समीप लाता है और लोगों को सहकारिता एवं एकजुटता के लिये बाध्य करता है । सामूहिक भय की ऐसी ही स्थितियों के परिणाम से दुनिया का पहला देश अस्तित्व में आया होगा । सामूहिक भय के अभाव में आज हर कोई अपने को बहुत सुरक्षित मानता है । यू.पी.-बिहार में जिसे देखो वही रँगबाज बना घूमता है, गोया हिटलर की आत्मा विरासत में लेकर आया हो । बंगाल ने यू.पी-बिहार को भी मात दे दी है, व्यक्तिगत अहंकार हिंसा बनकर विस्फोटित हो रहा है । भारत की जनता को आँखें खोलकर सब कुछ देखना और कान खोलकर सब कुछ सुनना होगा”।

सचमुच, मिसिर जी की बात में दम है । दीदी नाम की एक स्त्री बंगाल में कुछ भी कर सकती है ।

धर्म राजनेताओं का एक अस्त्र है जिससे भीड़ को सम्मोहित किया जाता है । इसकी मारक क्षमता कितनी संहारक होती है, यह हम न जाने कितनी बार धर्मोन्मादी हिंसक दंगों में देख चुके हैं । चुनावों के बाद यही धर्म पाखण्ड हो जाता है और राजनेता सेक्युलरिज़्म की छद्म चादर ओढ़कर घी पीने में लग जाया करते हैं ।

माँ... माटी... मानुष... । बंगाल की माँ, बंगाल की माटी, बंगाल का मानुष । इसमें भारत कहीं नहीं है । क्या यह बंगाल के पृथक अस्तित्व की पूर्ब घोषणा है ! क्या यह भारत और बांग्लादेश से अलग एक वृहत्बंगाल की कोई योजना है ! हवा के रुख को भाँपना होगा ।

 प्रजा सदा स्तेमाल हुआ करती है, प्रजा मनुष्यों की वह जाति है जो सदा विक्टिम होने के लिये ही जन्म लिया करती है । किंतु अब प्रजा को अपने अस्तित्व के लिये यह परम्परा तोड़नी होगी ।

गुरुवार, 18 मार्च 2021

कोरोना ने दी हमें नयी जीवनशैली, नये मुहावरे और नयी परिभाषायें...

         पिछले साल आये कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया में जो अँधेरा फैलाया उसी अँधेरे में से कुछ प्रकाश की किरणें भी निकलकर हमारे सामने फैल गयीं जिसने हमारे जीवन में बहुत कुछ बदल कर रख दिया है गोया ब्रह्माण्ड के डार्क मैटर से एनर्ज़ी प्रस्फुटित हो गयी हो । कोविडजन्य नयी जीवनशैली पर चर्चा करने से पहले मैं उन चंद शब्दों या मुहावरों की बात करना चाहूँगा जिन्होंने कोरोना काल में नयी परिभाषायें ओढ़ ली हैं या जनसामान्य में तेजी से प्रचलित हो गये हैं ।

कोविड-18 की वैक्सीन बनी तो ग़रीब देशों को लगा कि अमीर देश वैक्सीन बनाने वाली फ़ार्मेसीज़ से ऊँचे दामों में वैक्सीन ख़रीद लेंगे जिससे वैक्सीन का टोटा हो जायेगा और गरीब देश मुँह ताकते रह जायेंगे । इसके लिये एक नया मुहावरा प्रचलित हुआ – “Vaccine nationalism”. पाकिस्तान जैसे ग़रीब देशों को वैक्सीन नेशनलिज़्म के भय ने बहुत परेशान किया है, वहीं वामपंथियों के हाथ बैठे-ठाले एक नया मुहावरा लग गया । वे ख़ुश हैं कि अमीरों को कोसने के लिये उन्हें एक मॉडर्न मुहावरा मिल गया है । दूसरी परिभाषा नयी तो नहीं है किंतु टीवी समाचारों के कारण तेजी से प्रचलित हुयी है । यह है – “Flattening the curve”, किसी संक्रामक बीमारी के फैलने की दर को संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या और समय के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है । कम समय में अधिक लोगों के संक्रमित होने को कागज़ पर दर्शाने से एक शार्प माउण्ट बनता है जो अच्छा नहीं माना जाता जबकि अधिक समय में कम लोगों के संक्रमित होने की घटना को कागज़ पर दर्शाने से बना ग्राफ़ अपेक्षाकृत फ़्लैट होता है । फ़्लैट ग्राफ़ यह दर्शाता है कि संक्रमण फैलने की दर अधिक नहीं है या यह कि संक्रमण की दर में पूर्वापेक्षा सुधार हुआ है । अतः किसी संक्रमण के संदर्भ में फ़्लैटनिंग द कर्व अच्छा माना जाता है । अगली परिभाषा है – “Social distancing” अर्थात सामाजिक दूरी । किसी समय में सोशल डिस्टेंसिंग का अर्थ सामाजिक भेदभाव हुआ करता था किंतु कोरोना ने इसके अर्थ को पूरी तरह बदलते हुये सकारात्मक बना दिया है । वास्तव में नकारात्मक अर्थों वाली सोशल डिस्टेंसिंग को हड़बड़ाहट में सकारात्मक अर्थों में स्तेमाल कर लिया गया । सोशल डिस्टेंसिंग को जिन अर्थों में स्तेमाल किया जाने लगा है उसके लिये सही शब्द थे – “फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग” । कुछ लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग शब्दों का विरोध भी किया और उनके स्थान पर “फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग” कहे जाने का परामर्श दिया किंतु झटके में आयी सोशल डिस्टेंसिंग ने हटने का नाम नहीं लिया । यूँ, मुझे लगता है कि सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर “मेडिकल अनटचेबिलिटी” का प्रयोग करना कहीं अधिक उपयुक्त है । आख़िर ऑपरेशन थिएटर में इसका पालन किये बिना कोई सर्जन ऑपरेशन करने की बात सोच भी नहीं सकता । आप चाहें तो इनके स्थान पर हायज़ेनिक अनटचेबिलिटी जैसे शब्दों का भी स्तेमाल कर सकते हैं । इस श्रंखला का अंतिम शब्द है –“Furlough”. यह शब्द भी नया नहीं है किंतु कोरोना काल में प्रचलित ख़ूब हुआ है यानी कोरोना ने इस शब्द में नयी जान फूँक दी है । “फ़र्लो” शब्द का स्तेमाल किसी कर्मचारी की अपने कर्तव्य स्थल से अनुपस्थिति को “उपस्थिति” मानने के लिये किया जाता है, यह अवकाश नहीं है फिर भी आप घर पर रहते हैं और आपको ऑन ड्यूटी मान लिया जाता है ।

जीवन में हायज़िन के महत्व को इतनी शिद्दत से आम आदमी ने पहले कभी नहीं स्वीकार किया था जितना कि कोरोना के आने के बाद किया । कोरोना वायरस ने हमें अपने पूर्वजों के अतीत की एक खिड़की खोलने के लिये विवश कर दिया । हमने उनकी जीवनशैली में झाँक कर देखा और उसे दोहराने का प्रयास किया । हमने अस्पर्श्यता की सोशियो-पोलिटिकल संवेदनशीलता से बचते हुये स्पर्श की हायज़ेनिक गम्भीरता को चुपचाप स्वीकार कर लिया । हम सब पर-स्पर्श से डरने लगे, मेला-मदार और सिनेमा जाने से डरने लगे, यात्रा करने से डरने लगे । इस बीच हमने मनोरंजन के विकल्पों पर सोचना शुरू किया और ऑफ़ीशियल कार्यों की शैली में परिवर्तन करते हुये घर से ही काम करना शुरू किया जिससे काम के घण्टों में वृद्धि हुयी और बेहतर आउटपुट मिलना प्रारम्भ हुआ । जगदलपुर जैसे शहर में भी हमें कुछ लोग ऐसे मिल गये जिन्होंने भोजन पकाने के लिये अपने रसोयीघर में मिट्टी के बर्तनों को ससम्मान स्थान दिया और मेटेलिक बर्तनों को स्थायीरूप से बाहर का रास्ता दिखा दिया । ज़ालिम कोरोना ने हमें सभ्यता की एक नयी परिभाषा सिखा दी है, इसीलिये मैं इसे डार्क मैटर से एनर्ज़ी का प्रस्फुटन कहता हूँ ।

बुधवार, 17 मार्च 2021

कोविड-19 से ही नहीं उसके वैक्सीन से भी डरते हैं योरोपीय देश...

        कुछ महीने पहले तक कोरोना वायरस और उसके नये म्यूटेन्ट्स से भयभीत दुनिया को एक अदद दवा और एक अदद वैक्सीन की सख़्त ज़रूरत हुआ करती थी । हर किसी को वैक्सीन की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा थी और अब जबकि वैक्सीन लगनी शुरू भी हो चुकी है तो वैक्सीन के साइड-इफ़ेक्ट्स से भय का एक नया वातावरण तैयार हो गया है । अफवाह के पहले झोंके ने फैलाया कि इस वैक्सीन के स्तेमाल से नपुंसकता होती है फिर दूसरे झोंके ने फैलाया कि इसके स्तेमाल से रक्तवाहिकाओं में ख़ून के थक्के बन जाते हैं जिससे मृत्यु हो जाती है । अफ़वाहों का आलम यह है कि ज़र्मनी और फ़्रांस जैसे विकसित देश भी इनकी ज़द से मुक्त नहीं हैं ।

अफ़वाहों से प्रभावित होना मनुष्य के स्वभाव का एक ऐसा लक्षण है जो हवा में गाँठ लगाते हुये कई विवादों और आधारहीन संघर्षों को जन्म दे सकता है । ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनिका निर्मित कोविड-19 वैक्सीन के बारे में कई योरोपीय देशों में यह धारणा बन गयी है कि इस वैक्सीन के प्रयोग से पल्मोनरी इम्बोलिज़्म और डीप वेन थ्रॉम्बोसिस जैसे साइड इफ़ेक्ट्स हो रहे हैं । इस धारणा के कारण लगभग बारह देशों ने अपने यहाँ एस्ट्राज़ेनिका की वैक्सीन के स्तेमाल पर रोक लगा दी है । ग़नीमत है कि भारत की स्वदेशी वैक्सीन्स के बारे में कोई अफ़वाह नहीं है और इन्हें सुरक्षित माना जा रहा है जो भारतीय वैज्ञानिकों की बहुत बड़ी उपलब्धि है । दुनिया भर ने भारतीय वैज्ञानिकों पर भरोसा जताते हुये वैक्सीन के ऑर्डर्स दिये हैं, यही कारण है कि भारत अभी तक दुनिया भर के कई देशों को वैक्सीन के कुल साठ मिलियन डोज़ दे चुका है ।  

एस्ट्राज़ेनिका निर्मित कोविड-19 वैक्सीन के विभिन्न आयु समूहों एवं लिंग वाले 10 मिलियन से अधिक लोगों पर किये गये अध्ययन में पल्मोनरी इम्बोलिज़्म या डीप वेन थ्रॉम्बोसिस जैसे जोख़िम बढ़ाने वाले कोई भी लक्षण नहीं पाये गये हैं । ट्रायल की विश्वसनीयता की पुष्टि के लिये विभिन्न बैच में बनी वैक्सीन के डोज़ेस को कई देशों में अलग-अलग समुदायों के मनुष्यों में स्तेमाल किया गया और परिणामों की गहन जाँच में इन्हें निरापद पाया गया । इसके बाद भी पल्मोनरी इम्बोलिज़्म या डीप वेन थ्रॉम्बोसिस के कॉम्प्लीकेशंस से भयभीत ज़र्मनी, इटली, फ़्रांस, स्पेन, डेनमार्क, नार्वे, नीदरलैण्ड्स, आयरलैण्ड, लक्समबर्ग, साइप्रस, पुर्तगाल, स्लोवेनिया, बुल्गारिया रोमानिया, आइसलईण्ड और ऑस्ट्रिया की देखादेखी अब मेक्सिको, द डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो, नाइज़ीरिया, इण्डोनेशिया और थाइलैण्ड ने भी इस वैक्सीन का स्तेमाल अपने देश में फ़िलहाल रोक दिया है ।

कैसे फैली अफवाह!

यह संयोग की बात है कि किसी हृदयरोगी को कोविड-19 वैक्सीन का डोज़ दिया गया और कुछ घण्टों बाद उसकी मृत्यु हो गयी । पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि इस तरह की घटनाओं में हर एक की मृत्यु का तात्कालिक कारण अलग-अलग था जिसमें पल्मोनरी इम्बोलिज़्म भी सम्मिलित है ।

यह संयोग की बात है कि जिस ट्रेन में कोई यात्रा कर रहा था उसकी एक कोच में आग लग गयी और यात्री की जलने से मृत्यु हो गयी । यात्री की मृत्यु के लिये किसे उत्तरदायी माना जायेगा, ट्रेन यात्रा को, या कोच में आग लगने को, या उन आतंकवादियों को जिन्होंने जानबूझकर आग लगायी या रेलवे प्रशासन को?

भारत में कोविड-19 वैक्सीन से हुयी मृत्यु की सत्यता...

ऑक्सफ़ोर्ड एस्ट्राज़ेनिका की भारत के सीरम इन्स्टीट्यूट ऑफ़ इण्डिया- पुणे निर्मित वैक्सीन कोवीशील्ड का स्तेमाल पूरे देश में किया जा रहा है । मार्च 2021 के दूसरे सप्ताह में दार्ज़िलिंग और जलपाईगुड़ी जिले के जिन दो नागरिकों की वैक्सीन लगाने के बाद मृत्यु हुयी है, दुर्भाग्य से वे पहले से ही हृदयरोग से पीड़ित थे । दार्ज़िलिंग निवासी पचहत्तर साल की पारुल दत्ता को 8 मार्च को 3:30 बजे वैक्सीन लगाया गया, शाम को 6 बजे उन्हें लूज़ मोशन होने लगे और रात को 9:30 बजे उनकी मृत्यु हो गयी । उन्हें अनियमित हृदयगति की वर्षों से शिकायत थी जिसका लम्बे समय से इलाज़ चल रहा था । उनकी मृत्यु का तात्कालिक कारण आट्रियल फ़ाइब्रिलेशन पाया गया न कि पल्मोनरी इम्बोलिज़्म! ।

दूसरी घटना जलपाईगुड़ी जिले के धूपगुड़ी की है जहाँ 65 वर्षीय कृष्ण दत्ता को 8 मार्च के ही दिन सुबह 10:50 बजे कोवीशील्ड डोज़ का पहला शॉट दिया गया, शाम को 4:30 बजे उन्हें उल्टियाँ होनी शुरू हो गयीं । अगली सुबह लगभग 5 बजे उन्हें अचानक साँस लेने में तक़लीफ़ होने लगी और आधे घण्टे बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी । कृष्ण दत्ता पिछले लगभग छह सालों से उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे । वे पिछले कई वर्षों से कार्डियोमीगेली, कार्डियक मसल फ़ाइब्रोसिस और पुराने इनफ़ार्क्शन जैसी हृदय की कई बीमारियाँ से पीड़ित थे जिनके कारण उनकी मृत्यु हो गयी, वैक्सीन का शॉट तो केवल एक संयोगमात्र ही कहा जायेगा अन्यथा अब तक न जाने कितने लोगों की मृत्यु हो चुकी होती ।

कोविड-19 वैक्सीन लगवाने के बाद भी रहें सतर्क...

ध्यान रखें कि कोई वैक्सीन केवल आपकी रोगप्रतिरोध क्षमता बढ़ाने का एक उपाय मात्र है वह भी केवल एक प्रकार के रोग के लिये ही ।  उसे औषधि या अमृत मानने की भूल कभी मत करें । यह भी ध्यान रखें कि रोगप्रतिरोध क्षमता कोई अभेद्य कवच नहीं है जो शरीर में वायरस को घुसने से ही रोक देगा । इसलिये वैक्सीन लगवाने के बाद भी आपको सतर्क रहते हुये सभी नियमों का पालन करना ही होगा । जीवनशैली में शिथिलता वायरस को आमंत्रित करेगी जिससे आपके शरीर को लड़ना होगा । वैक्सीन लगवाने के बाद इम्यूनिटी विकसित होने में कुछ सप्ताह लग सकते हैं इसलिये इस बीच वायरस से संक्रमण की सम्भावनायें हो सकती हैं । वैक्सीन का शॉट लेने के बाद हर व्यक्ति का शरीर अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार ही रोगप्रतिरोध क्षमता विकसित कर पाता है इसलिये सभी घटनाओं में एकरूपता की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।

 

चीन का वीज़ा चाहिये तो लगवाना होगा चीनी वैक्सीन...

नकली सामानों के निर्माता चीन की दुनिया भर में फ़ज़ीहत हो रही है । पाकिस्तानियों ने भी चीनी वैक्सीन को टाटा बाय बाय कर दिया है और वे भारतीय वैक्सीन पर ही भरोसा कर पा रहे हैं जिससे चीन तिलमिला गया है । दुनिया में अपनी वैक्सीन की साख बनाने के लिये चीन ने भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के नागरिकों को अपने देश में आने के लिये वीसा की शर्तों में चीनी वैक्सीन लगवाना अनिवार्य कर दिया है । यूँ चीन का कहना है कि वह अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये ऐसा कर रहा है । वह चाहता है कि दुनिया भर के लोग घूमने के लिये चीन आयें और उसकी महँगी वैक्सीन अपने ज़िस्म में लगवायें । चीन बात तो अंतरराष्ट्रीय पर्यटन के बढ़ावे की करता है किंतु उसने यह वीज़ शर्त भारत, पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, नाज़ीरिया, ग्रीस, इटली, ईज़्रेल, नॉर्वे और इण्डोनेशिया सहित केवल केवल बीस देशों के लिये ही लागू करने का ऐलान किया है ।

चलते-चलते बता दें कि कोरोना वायरस के नये म्यूटेण्ट से निपटने के लिये आ रही है एक और सुपर वैक्सीन, जिस पर शोध प्रारम्भ कर दिया है ऑक्सफ़ोर्ड यूनीवर्सिटी और एस्ट्राज़ेनिका ने ।