- मैंने उसे सदैव श्रद्धा और पाखण्ड के बीच में खड़ा पाया है ।
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भीड़ के लिये जो साध्य होता है, भीड़नियंत्रक
के लिये वह साधन मात्र होता है । इस दर्शन को जिन्ना ने बड़ी शिद्दत से स्वीकार
किया था इसलिये आप इसे जिन्ना-दर्शन भी कह सकते हैं ।
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श्रद्धा हो या पाखण्ड, दोनों
का प्रतिपाद्य विषय तो एक ही है ।
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धर्म और ईश्वर के अस्तित्व में उसका लेश भी
विश्वास नहीं होता फिर भी वह धर्म और ईश्वर की बात करता है और इन दोनों विषयों के
अस्तित्व को बहुत प्रभावी तरीके से बनाये रखना चाहता है ।
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“धर्म और ईश्वर जैसे अस्तित्वहीन विषयों के
अस्तित्व को बनाये रखना भीड़ पर नियंत्रण और शासन करने के लिये अति आवश्यक है” – यह
भीड़नीतिज्ञों का अपना दर्शन है जिसे सत्ताप्रतिस्पर्धी बड़ी श्रद्धा से स्वीकार कर
लिया करते हैं ।
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भीड़ ...जो निर्धन है, भीड़
...जिसकी प्रमुख आवश्यकता दो जून की रोटी और जीवन की सुरक्षा है, भीड़...जो धर्म और ईश्वर में अपने दुःखों के निवारण का उपाय खोजती है,
भीड़ ...जो अस्तित्वहीन में अपने जीवन का अस्तित्व पा लेती है,
इस भीड़ का एक अलग ही दर्शन है जिस पर चर्चा तो होती है किंतु
स्वीकार कोई नहीं करता ।
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धर्म और ईश्वर की चर्चा किये बिना किसी का काम
नहीं चलता, न उनका जो इनके अस्तित्व में विश्वास रखते हैं और न उनका जो इनके अस्तित्व
में लेश भी विश्वास नहीं रखते ।
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आस्तिक और नास्तिक दोनों जिस बिंदु पर आकर खड़े
होते हैं वहाँ भूख और सुरक्षा की नहीं बल्कि धर्म और ईश्वर की चर्चा होती है ।
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जो आस्तिक हैं वे धर्म और ईश्वर को केवल
श्रद्धा से देख पाते हैं और इन्हें अपने सिर-माथे पर रखने का प्रयास करते हैं ।
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जो नास्तिक हैं वे धर्म और ईश्वर को केवल
कुटिल दृष्टि से देख पाते हैं और इन्हें अपनी टेँट में खोंसकर रखना पसंद करते हैं
।
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भीड़ समझ चुकी है कि उन्हें अपना भाग्यविधाता
स्वयं ही बनना होगा, माननीय जी तो पिछली कई सदियों से केवल अपनी ही तिजोरियाँ भरते रहे हैं ।
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भीड़ के “दुःख” दूर करने के लिये नहीं, चर्चा
और योजना बनाने के लिये उपयोग में लाये जाते हैं ।
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बंजर को उपजाऊ बनाने के स्वप्न दिखाने के लिये
बंजर को निरंतर बनाये रखना तुम्हारी सत्ता का मूल सिद्धांत है जिसे यह भीड़ समझ चुकी
है ।
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तुम्हें देखने, सुनने और बोलने की शक्ति
मिली पर तुमने इन शक्तियों का कभी सदुपयोग नहीं किया इसलिये भीड़ को पत्थर की मूर्तियों
से अपनी बात कहनी पड़ती है ।
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भीड़ के दुःखों का कोई विध्नहर्ता नहीं होता इसलिए
मूर्ति के आगे नतमस्तक होना भीड़ को आत्मशक्ति देता है, और तुमने
तो बंगाल की भीड़ से उसका एक मात्र यह अधिकार भी छीन लिया न!
भीड़ के “दुःख” दूर करने के लिये नहीं, चर्चा और योजना बनाने के लिये उपयोग में लाये जाते हैं ।
जवाब देंहटाएंकितना सही लिखा है .
जी! धन्यवाद! सत्ता का यही दर्शन है ।
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