पश्चिम
बंगाल में माह भर पहले तृ.मू.कां. के कार्यकर्ताओं ने एक भाजपा कार्यकर्ता की
वयोवृद्ध माँ शोभा मजूमदार की बुरी तरह पिटायी की थी । उनका इलाज़ चल रहा था, इसी
बीच उनकी मृत्यु हो गयी । माह भर से राजनीतिज्ञों की नैतिकता नींद में थी, वृद्धा की मृत्यु होते ही नैतिकता जाग गयी, हल्ला
होने लगा, पूरे देश को बताया जाने लगा कि पश्चिम बंगाल की
बेटियाँ और महिलायें असुरक्षित हैं । उधर ममता ने पल्ला झाड़ लिया कि वृद्धा की मौत
की वज़ह उन्हें नहीं पता । बिल्कुल ठीक, आवश्यक नहीं कि
प्रदेश भर में होने वाली हर मृत्यु की वज़ह मुख्यमंत्री को पता हो, लेकिन तब किसी सफायी की भी क्या आवश्यकता?
कुछ ही
दिन पूर्व मुम्बई में रिलायंस समूह के उद्योगपति मुकेश अम्बानी के आवास एंटीलिया
के बाहर विस्फोटकों से लदी एक स्कॉर्पियों पायी गयी । कोई विस्फोट हो पाता इससे
पहले ही मामला उजागर हो गया जिसके बाद एक ताक़तवर प्यादे ने दूसरे कमज़ोर प्यादे की
हत्या कर दी । मीडिया में यह प्यादाखोर घटना “मनसुख-वाघे काण्ड” के नाम से चर्चित
हो रही है । प्यादों की छोटी कड़ी तो निपट गयी, अब शायद बड़े प्यादों की बारी
है, और उसके बाद शायद कुछ राजाओं की भी जो अब राजा से प्यादा
बनने की प्रक्रिया में पक रहे हैं ।
मुम्बई
के शराबघरों की आमदनी और उनमें नाचने वालियों के मेहनताने में से एक सौ करोड़ रुपये
हर महीने उगाही करने के काम पर लगाया गया पुलिस इंस्पेक्टर सचिन बाघे अब पुलिस की
ग़िरफ़्त में है जिससे महाराष्ट्र की सियासत में बुरी तरह भूचाल आया हुआ है । एक और
गुलाम वंश की नींव पड़ते ही मामला गड़बड़ा गया । महा-अघाड़ी ने महाराष्ट्र को
महा-पिछाड़ी बनाने के ठेके न जाने और कितने प्यादों को दिये होंगे । अब कोई राजा
लोककल्याणकारी नहीं हुआ करता । इण्डिया में पिण्डारियों के शक्तिशाली समूह सक्रिय
हैं जो जनता से अपने लिये इसका अख़्त्यार छीन लिया करते हैं ।
महाराष्ट्र
के बुज़ुर्ग शेर शरद पवार ने सदन में सचिन बाघे का बचाव किया जिससे पूरे देश को एक
कुख्यात बचाव सूत्र – “बच्चे हैं, कभी-कभी गलती हो जाती है,
इसका इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनाना चाहिये” की याद आ गयी ।
शोभा
मजूमदार मारपीट और महाराष्ट्र वसूली अभियान को लेकर टीवी डिबेट्स में ग़रीब-गुरबा
प्रजा के सामने जिस बेहयायी, धूर्तता और आँखों से काजल
निकालने की गुण्डत्व शैली में काँव-काँव परोसी जा रही है उससे भारत ही नहीं
इण्डिया की भी परम्पराओं की हत्या प्रतिक्षण हो रही है । इण्डिया में अब चुनाव के
समय लोकहितकारी योजनाओं पर चर्चा नहीं होती, क्या-क्या फ़्री
में बाँट-बाँट कर जनता को अपाहिज बनाये जाने की योजना है इसकी घोषणा अवश्य होती है
। स्वस्थ राजनीतिक संवादों का स्थान बहुत पहले ही व्यक्तिगत आक्षेपों ने ले लिया
था जो अब हिंसक आक्रमण-प्रत्याक्रमण की ओर तीव्र गति से बढ़ता दिखायी दे रहा है ।
आक्रमण की यह शैली भारतीय राजाओं के आपसी युद्धों की ओर अग्रसर होती जा रही है ।
हम भारत की तलाश में थे किंतु यहाँ तो इण्डिया भी अपनी ज़मीन खोती जा रही है । राजनीतिज्ञों ने बेशुमार सम्पत्ति के साथ-साथ अपने लिये बेहद नफ़रत के ऊँचे-ऊँचे पहाड़ भी कमा लिये हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.