सोमवार, 8 मार्च 2021

बूढ़े बरगद से मिसिर जी की ग़ुफ़्त-गूँ ...

 


मोतीहारी वाले मिसिर जी की डायरी का एक पन्ना जो 1989 में लिखा गया था, आज उनकी आज्ञा से यहाँ यथावत प्रस्तुत है –   

...जब मैंने पाकिस्तान में किसी गाँव के बाहर एक बहुत पुराने बरगद के पेड़ को देखा तो 1947 में पराया हो चुका पाकिस्तान अचानक ही मुझे बिल्कुल अपना सा लगने लगा ।  

भारत तो अब बहुत बदल गया है पर पाकिस्तान के कुछ गाँवों में आज भी हैं मिट्टी के बने घर और गाँव के बाहर कहीं-कहीं खड़े मिल जाते हैं नीम और बरगद के पेड़ । ऐसे दृश्य मुझे आज के पाकिस्तान में पुराने भारत के अस्तित्व की झलक दे जाते हैं ।

मुझे लगा कि बरगद मुझसे कुछ कहना चाहता है । मैं बूढ़े हो चुके बरगद के पास जाकर पूछता हूँ – “तुम्हें पता है न! कि अब तुम भारत नहीं रहे पाकिस्तान हो चुके हो । अब कोई स्त्री वट सावित्री की पूजा करने यहाँ नहीं आयेगी, तुम्हारी स्थूल काया को सूत के कच्चे धागे से नहीं लपेटेगी”।

बूढ़ा बरगद कुछ नहीं कहता, उसकी जटाओं से कुछ बूदें टपकती हैं जो मुझे अंदर तक भिंगो जाती हैं । अनायास ही मुझे याद आने लगे भारत के हमारे वे वृद्ध जो वृद्धाश्रम में अपने जीवन की अंतिम साँस की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

संगिनी बनकर उदासी चुपके से मेरे पास आकर बैठ गयी है और अब मैं स्वयं को उसकी ग़िरफ़्त में जकड़ता हुआ पा रहा हूँ ।


मेरे सामने, पास में ही एक गन्ने का खेत है जहाँ कुछ बच्चे खेल रहे हैं और सामने कुछ बकरियाँ चर रही हैं । उनके दो मेमने उछल-उछल कर शरारतें कर रहे हैं और बारबार अपनी माँ के पास जाकर थन से दूध पीने का प्रयास कर रहे हैं जबकि बकरी घास चरने में व्यस्त है और आगे बढ़ती जाती है जिससे मेमनों के मुँह से थन निकल जाता है और मेमने फिर उछल-कूद करने लगते हैं । यह सब ठीक वैसा ही है जैसा कि हमारे बिहार के गाँवों में होता है किंतु इन बकरियों और मेमनों को नहीं पता कि अब वे भारत नहीं हैं बल्कि पाकिस्तान हो गये हैं ।

मैं कुछ आगे गाँव की ओर बढ़ता हूँ । एक घर के बाहर खूँटे से बँधी गाय चरनी में सानी खा रही है और उसका बछड़ा रँभा रहा है । कमाल है ...बिल्कुल उसी तरह जैसे कि भारत भर के बछड़े रँभाते हैं । ज़ाहिर है कि विभाजन के बाद भी पाकिस्तान के बछड़ों ने अपनी भाषा को नहीं बदला । शायद उन्होंने अपने धर्म को भी नहीं बदला है । धरती के वे प्राणी कितने भाग्यशाली हैं जो कभी अपनी भाषा और धर्म नहीं बदलते !

शाम हो गयी है, सूरज ने यहाँ भी उतना ही रंग बिखेर दिया है जितना कि भारत के गाँवों में अस्ताचल के समय बिखेर दिया करता है । बातूनी चिड़ियाँ दिन भर दाना चुँगने के बाद वापस अपने-अपने नीड़ की ओर आने लगी हैं । इन्हें किसी से कोई मतलब नहीं होता सिवाय आपस में चींचीं चूँचूँ करते रहने के ..ठीक भारत की बातूनी चिड़ियों की तरह ।

एक घर के बाहर अलाव जल रहा है, बुज़ुर्ग लोग आग ताप रहे हैं । घर के बच्चों ने कुछ शकरकंदें भून ली हैं और अब उनके लिये आपस में झगड़ा कर रहे हैं । एक बुज़ुर्ग मुझसे पूछते हैं – “किसके घर जाना है”?

मैं उत्तर देता हूँ – “बस ...आपके घर”।

बुज़ुर्ग हँस कर बुलाते हैं – “तो आ जाइये न! वहाँ क्यों खड़े हैं”?

 

घर के भीतर से एक स्त्री ने आवाज़ दी है – “शाम हो गयी, अभी तक कुँये से पीने का पानी नहीं भरा किसी ने”।

मेरे मन में आया कि कुँये से भी एक बार पूछ लूँ – “तुम अब भारत नहीं हो पाकिस्तान हो गये हो ..यह बात तुम्हें पता है न!”

युवक ने कुँये में बाल्टी को फाँस दिया है और अब डुबो कर दो बार झम्म-झम्म करने के बाद बाल्टी को ऊपर खींचने लगा है ।

पानी में बाल्टी की झम्म-झम्म ...ठीक वही आवाज़ जैसी कि मोतीहारी में हमारे इनार से निकलती है ।

मुझे लगता है कि कहीं कुछ भी नहीं बदला ...यहाँ तक कि हरी धनिया की पत्तियों की ख़ुश्बू भी नहीं और न सर्दी की रातों में रोते हुये कुत्तों का दर्द ...फिर भी सियासत कहती है कि सब कुछ बदल गया है ।

मुझे पता है कि बच्चों की किलकारी, सूरज की धूप, हिमाच्छादित चोटियों, बहती हुयी नदियों, ऊँचे पर्वत शिखरों की दिव्यता, खेतों में उगी फसलों, गुलाब की ख़ुश्बू और दाना चुँगती चिड़ियों की तरह धरती पर कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं किंतु सियासत की ज़िद है कि वह उन चीजों को भी बदल सकती है ।

...और सियासतों का आलम यह है कि वे सिर्फ़ वादा करती हैं ...सिर्फ़ वादा तोड़ने के लिये । ये सियासतें न होतीं तो शायद हम इतने ठगे न जाते और पाकिस्तान के गाँव में खड़े बूढ़े बरगद की स्थूल काया को भी सुहागिनों के हाथ कच्चे धागों से लपेटे जाने से वंचित न होना पड़ता । 


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