शुक्रवार, 19 मार्च 2021

चाई ना, चाई ना, अमर्यादा-उन्माद चाई ना ...

    भय से देश बनते हैं, अहंकार से देश टूटते हैं” –मोतीहारी वाले मिसिर जी ने गमछे से चेहरे का पसीना पोंछते हुये जब यह सूत्र वाक्य बोला तो मैं समझ गया कि आज मिसिर जी कोई बहुत गहरी बात कहने वाले हैं । गोरखपुर वाले ओझा जी हुलफुलिया आदमी हैं, उन्हें पहेलियाँ पसंद नहीं हैं, बोले – “सीधे-सीधे बतियावा ना मिसिर बाबा, पहेली काहें बुझावत हऽ“।

मिसिर जी शुरू हुये – “आपने देखा ओझा जी! हमारे देश के भाग्यविधाता किस तरह एक-दूसरे पर अभद्र और अमर्यादित शब्दबाणों से प्रहार करते हैं । चुनावों के समय तो सारी सीमायें टूट जाया करती हैं, लगता है कि इस बार तो अब ख़ून-ख़राबा होकर ही रहेगा । इस अमर्यादित वाक्युद्ध का जनता के हितों और समग्र विकास से रत्ती भर भी कोई अभिप्राय नहीं हुआ करता, चिड़िया की आँख की तरह इन सबका एक ही लक्ष्य होता है –सत्ता । फ़िलहाल पश्चिम बंगाल में जिस तरह राजनेताओं के बीच धर्मविहीन, मर्यादाविहीन और लज्जाविहीन वाक्युद्ध चल रहा है उसकी दिशा कालांतर में अलगाव और एक पृथक देश के निर्माण की ओर संकेत करती है । इस अमर्यादा के दूरदर्शी प्रभाव बहुत गम्भीर होंगे । वृहत आर्यावर्त कालांतर में इसी तरह छिन्न-भिन्न होकर खण्ड-खण्ड होता रहा । सत्ता की छीनाझपटी के लिये उन्मादित रहने वाले राजनेताओं के व्यक्तिगत अहंकार से धरती पर जिस प्रकार की छुद्र राजनीतिक रेखायें बनती और बिगड़ती हैं उन्हीं से देश बिखरते हैं ...खण्ड-खण्ड होते हैं । भय भीड़ को समीप लाता है और लोगों को सहकारिता एवं एकजुटता के लिये बाध्य करता है । सामूहिक भय की ऐसी ही स्थितियों के परिणाम से दुनिया का पहला देश अस्तित्व में आया होगा । सामूहिक भय के अभाव में आज हर कोई अपने को बहुत सुरक्षित मानता है । यू.पी.-बिहार में जिसे देखो वही रँगबाज बना घूमता है, गोया हिटलर की आत्मा विरासत में लेकर आया हो । बंगाल ने यू.पी-बिहार को भी मात दे दी है, व्यक्तिगत अहंकार हिंसा बनकर विस्फोटित हो रहा है । भारत की जनता को आँखें खोलकर सब कुछ देखना और कान खोलकर सब कुछ सुनना होगा”।

सचमुच, मिसिर जी की बात में दम है । दीदी नाम की एक स्त्री बंगाल में कुछ भी कर सकती है ।

धर्म राजनेताओं का एक अस्त्र है जिससे भीड़ को सम्मोहित किया जाता है । इसकी मारक क्षमता कितनी संहारक होती है, यह हम न जाने कितनी बार धर्मोन्मादी हिंसक दंगों में देख चुके हैं । चुनावों के बाद यही धर्म पाखण्ड हो जाता है और राजनेता सेक्युलरिज़्म की छद्म चादर ओढ़कर घी पीने में लग जाया करते हैं ।

माँ... माटी... मानुष... । बंगाल की माँ, बंगाल की माटी, बंगाल का मानुष । इसमें भारत कहीं नहीं है । क्या यह बंगाल के पृथक अस्तित्व की पूर्ब घोषणा है ! क्या यह भारत और बांग्लादेश से अलग एक वृहत्बंगाल की कोई योजना है ! हवा के रुख को भाँपना होगा ।

 प्रजा सदा स्तेमाल हुआ करती है, प्रजा मनुष्यों की वह जाति है जो सदा विक्टिम होने के लिये ही जन्म लिया करती है । किंतु अब प्रजा को अपने अस्तित्व के लिये यह परम्परा तोड़नी होगी ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सही कह रहे हैं .. वैसे कोई भी किसी से कम नहीं है ... लेकिन केवल बंगाल की बात कर देश को दर किनारे कर देना कहीं से भी उचित नहीं है ...

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    1. जी ! पूरे देश में सभी का यही हाल है । कम कोई नहीं, हाल के घटनाक्रमों ने यादों को फिर ताजा कर दिया ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.