“इस धूर्त को तो जेल में होना चाहिये था, और यह हमारा राजा बना बैठा है” –राजमार्ग से गुजरते हुये शाही रथों के काफ़िले को देखकर मोतीहारी वाले मिसिर जी अक्सर बड़बड़ाते हैं । पान के खोखे वाले उपाध्याय जी लौंग-इलायची और गुलाबजल वाला मीठा पान बनाकर मिसिर जी की ओर बढ़ाते हैं –“लीं रउवा पनवा खाईं, बुढ़ापा मँ आपन करेजवा मत जराईं”।
पान अभी
भी मिसिर जी के हाथ में है, मुख तक की यात्रा में अभी समय लगेगा । यह समय भड़ास के विस्फोटित होने का
है, पान खाने का नहीं । विस्फोट की अगली श्रंखला में मिसिर
जी की आतिशबाजी कुछ इस तरह हुआ करती है – “उपाध्याय जी! आपको
पता है, ये जो सम्मान छीनकर अपने लिये तालियाँ बजवा लेते हैं,
सही में कोटि-कोटि हिकारत के पात्र होते हैं । हमारे देश में ऐसे
लोगों की कमी नहीं है जिनका विज्ञान से कभी कोई सरोकार नहीं रहा होता किंतु वे
विज्ञान और मेडिकल साइंस पर वैज्ञानिकों और डॉक्टर्स से घण्टों निर्णायक कुतर्क कर
सकते हैं । जो अपराधी हैं वे राजनीतिशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित बन जाते हैं । जॉन
मसीह को देखिये, कभी पाणिनि की अष्टाध्यायी के दर्शन नहीं
किये किंतु वे वैदिक साहित्य के विशेषज्ञ बने बैठे हैं, और
हिंदी साहित्यकारों एवं समीक्षकों की उस बारात की तो पूछिये ही मत जिनके रिश्ते
व्याकरण के साथ ठीक वैसे ही हैं जैसे कि भारत के साथ पाकिस्तान के”।
उपाध्याय
जी अवसर की नज़ाकत के उतार-चढ़ाव को पहचानने में प्रायः भूल नहीं किया करते, तुरंत
रिकॉर्ड प्लेयर ऑन कर दिया ...फूल गेंदवा न मारो ...न मारो... लगत करेजवा में बान
...। लेकिन इस बार चूक हो गयी, मिसिर जी तुनक कर बोले –
“ए हो उपधिया! बंद करा हो मरदे ....फूल गेंदवा...। हमार करेजवा मँ
अगिया लागल बिया ..आ तहरा के फूल गेंदवा के परल बा”।
उपाध्याय
जी भी मिसिर जी की रग-रग पहचानते थे, रिकॉर्ड बदल कर दूसरा लगा
दिया –“आली रे मोहे लागे वृन्दावन नीको... निर्मल नीर बहत
जमुना को ...आली रे मोहे लागे...”
मिसिर
जी के ज्वालामुख पर एक निर्मल मुस्कान तिर आयी, विस्फोट की गति मंद हुयी ।
भजन समाप्त हुआ तो बोले –“संगीत ही है जो समाज को प्राण देता
है । गनीमत है कि संगीत के क्षेत्र में इन पिंडारियों की दाल नहीं गल पाती वरना
यहाँ भी ऐसे ही लोग संगीतकार और गायक बने बैठे होते”।
उपाध्याय
जी ने बात सरकाई –“कलजुग मँ बिप्र लोग के बड़ा सौधानी के आवश्यकता बा मिसिर जी! रिसइबा त कुल ममलवय गड़बड़ा जाई, सांत
रहीं, पनवा खाईं, आपन सृजनात्मक ऊर्जा
के बचा के रखीं आ असंत लोग के सामने से पलायन करीं... आपन अस्तित्व बचाय खातिर ई
कुल अकदम अपरिहार्य बा”।
उपाध्याय
जी के परामर्श पर मिसिर जी पुनः उवाच – “नहीं ...पलायन नहीं, सामना ...सामना करना होगा । पलायन किसी समस्या का समाधान नहीं है । जीवन
के हर क्षेत्र में अयोग्य और कुपात्र लोगों ने बलात अधिकार कर लिया है । योग्य एवं
सुपात्र वंचित हैं और कर्मयोग के नाम पर केवल झूठ और छल का मायाजाल फैलाया जा रहा
है । आख़िर हम अपनी अगली पीढ़ियों के लिये क्या छोड़कर जाना चाहते हैं? संत चुप हैं, समाज को जगाने वाला कलमकार भी चुप है
...किंतु हम साधारण मनुष्य हैं ...हमें बोलना ही होगा ...बल्कि हमें ही बोलना होगा”।
उपाध्याय
जी ने जैसे याद दिलाते हुये पूछा – “कलमकार की अच्छी कही आपने ।
आज तो अनुरागी जी की प्रणयधारा का विमोचन कार्यक्रम था सुदामा भवन में । कैसा रहा
कार्यक्रम”?
मिसिर
जी की विस्फोट प्रक्रिया में किंचित व्यवधान हुआ । कुछ क्षण मौन रहकर विस्फोट का
एक नया क्रम प्रारम्भ हुआ, बोले –“कार्यक्रम का पता नहीं, मुझे कुछ ‘असाहित्यिक’
साहित्यकारों से बहुत डर लगता है, वे आतंकवादियों की तरह
अपनी उपस्थिति के प्रदर्शन मात्र के लिये ही किसी के भी साथ मारपीट भी कर सकते हैं,
इसलिये मैं गया नहीं । दूसरे, भारत का
साहित्यकार भी किसी न किसी खेमे के बंधन में है, स्वतंत्रचिंतन
के अभाव में जो भी लिख जायेगा वह पक्षपातपूर्ण ही होगा इसीलिये यहाँ तो और भी
सत्यानाश हो रहा है । लोग लिखे जा रहे हैं ...क्या लिख रहे हैं ...क्यों लिख रहे
हैं ...स्वयं कलमकार को ही पता नहीं होता । विमोचन कार्यक्रम को भव्य बनाने के
प्रयास होते हैं । साहित्यधर्म दूर-दूर तक कहीं दिखायी भी नहीं देता । समीक्षायें
होती हैं ...गोया मिथ्या प्रशंसाओं के पुल बाँधने की प्रतियोगिता हो । समीक्षक और
आलोचक पता नहीं कहाँ से पकड़ कर ले आये जाते हैं, साहित्य और
मौलिक चिंतन से दूर-दूर तक उनका कोई रिश्ता नहीं होता । हर जगह ...हर जगह
कुपात्रों ने कब्ज़ा कर रखा है । हमें समाज को इन कुपात्रों से मुक्त करना होगा”।
उपाध्याय
जी ने याद दिलाया – “रउवा पनवा हथवय मँ धरले बानी ...मुखवा मँ धर लीं”।
मुस्कुराहट
के साथ मिसिर जी उवाच –“मुखवा मँ धर लेब त बोले पर प्रतिबंध नू लागि जाई हो!”
अंततः
मुख तक पान की यात्रा सम्पन्न हुयी । मिसिर जी के हाथ मुक्त हुये ।
इधर
मिसिर जी के हाथ पान से मुक्त हुये, उधर उपाध्याय जी ने छक्का जड़
दिया – “मिसिर जी! संत अपने पथ का अकेला पथिक होता है ।
संगठन भीड़ का होता है, संत का नहीं । संत और भीड़ दोनों के
मार्ग पृथक हैं ...और यह मत भूलिये कि यह कलियुग है जहाँ सत्य का क्षरण अपने चरम
पर होता है”।
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