गुरुवार, 11 मार्च 2021

समाधान की महाशिवरात्रि...

 


आज शिव की दिव्य महारात्रि के पर्व पर पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि सबकी देखा-देखी हम भी सत्यम् शिवम् सुंदरम् को ...जीवन में नहीं बल्कि जीने की भव्यता में खोजते रहे । खोजने में हम इतने व्यस्त हो गये कि कई दशक कब बीत गये कुछ पता ही नहीं चला ।

भव्यता हमारे पास थी जिसमें हम सत्यम् शिव सुंदरम् की दिव्यता को खोजते रहे ...यह भूलकर कि भव्यता में दिव्यता नहीं हुआ करती ।

अब हम जीवन के अंतिम पड़ाव पर आ पहुँचे हैं ...तो आँखें खुलीं कि अब तक की यात्रा निष्फल ही रही ...हमारे हाथ रीते हैं ...नितांत रीते ।

हमने विस्तृत धरती के एक तनिक से हिस्से को सीमित करके एक हवेली बना ली और अनंत आकाश में से अपने लिये एक तनिक सा टुकड़ा सीमित कर लिया । फिर हम आँगन में चारपायी पर लेट कर आकाश की ओर देखते हुये यह सोच-सोच कर खूब ख़ुश होते रहे कि थोड़ी सी धरती और थोड़ा सा आकाश हमारा है ...सिर्फ़ हमारा । तभी आकाश से एक उल्का पिंड गिरा ...लगा जैसे कि हमारे ही आँगन में गिरने वाला है । हमने भय से अपनी आँखे बंद कर लीं । सौभाग्य से उल्का पिंड कहीं लुप्त हो गया ....हम बच गये । हमारे हिस्से का आकाश भी सुरक्षित नहीं है ...ठीक हमारे घर के उन कमरों की तरह जहाँ चूहों ने अधिकारपूर्वक उत्पात मचा रखा है ।

कदाचित ...एक छोटी सी झोपड़ी पर्याप्त होती ...कुछ दशकों की इस छोटी सी जीवन यात्रा के लिये । हमारी झोपड़ी में होते कुछ मिट्टी के बर्तन, एक चूल्हा और खाने के लिये थोड़ा सा अनाज । हमारे सामने होती अपनी धुन में बहती नदी, नदी के किनारे कछार में उगी होतीं कुछ सब्जियाँ । नदी के उस पार जंगल में होते सेव, अखरोट और प्लम के कुछ पेड़ । सुन पाते भोर होते ही पेड़ों पर गाती हुयी चिड़ियों को और देख पाते रात भर भौंक-भौंक कर रखवाली करने वाले झबरीले बालों का कोट ओढ़े कुत्तों को ...अपने पिल्लों के साथ ...तलाशते हुये अपने लिये कोई सुरक्षित जगह ...दिन में सोने के लिये । सर्दियों में, जबकि धरती को ढक लेती बर्फ ...पीते हुये थुनेर और तिम्बुरु की मसालेवाली नमकीन चाय ...देख पाते दूर-दूर तक विस्तृत हिम के शुभ्र साम्राज्य को । ...और फिर बसंत में पिघलते ही हिम के ...अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिये नम धरती में खोजने यारसा गुम्बा ...शून्य से छह डिग्री नीचे के ताममान में ...चार दिन की लम्बी यात्रा के लिये ...बनाकर झुण्ड ...देते हुये एक-दूसरे को सहारा ...बर्फ़ में गिरते-फिसलते और चोट खाते हुये बढ़ रहे होते छोटे-छोटे बच्चों के साथ ...अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिये ...हिमालय के कुछ चीन्हे कुछ अनचीन्हे दुर्गम रास्तों से । तब होता यह जीवन सत्य भी, शिव भी और सुंदर भी ।

...किंतु नहीं, हमने तो चुन लिया था जुगनुओं की उस भव्य चमक को ...जो इतनी नहीं होती कि देख पाते हम कुछ और ...कुछ दिव्य ।

यात्रा के अंत में भव्य हवेली को छोड़ देना होगा हमें । जब छोड़ना ही है तो हवेलियों के लिये इतनी कलह क्यों! इतनी अशांति क्यों!

हम लालची हैं ...मोहांध हैं ...कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते । ...किंतु सब कुछ छोड़े बिना यात्रा का अंत सम्भव नहीं । कुछ भी पास न होता तो कुछ भी छोड़ना न पड़ता ...हाँ यही तो ....यही तो सर्वश्रेष्ठ समाधान है ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. किंतु नहीं, हमने तो चुन लिया था जुगनुओं की उस भव्य चमक को ...जो इतनी नहीं होती कि देख पाते हम कुछ और ...कुछ दिव्य ।

    ये त्यौहार मन में जहाँ उत्साह भरते हैं वही सोचने पर मजबूर भी कर देते हैं कि आखिर ये भाग दौड़ किस लिए ? सुन्दर लेख .

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.