बस्तर के जंगलों में माओ के संसार ने अपनी जड़ें जमा ली हैं । यहाँ माओ की जनताना सरकार की हुकूमत चलती है । जिस देश में ज़रूरी फ़ाइल्स वर्षों नहीं सरकतीं उसी देश में लाल सरकार का कोई सैनिक कागज के कटे-फटे टुकड़े पर लाल रंग से टूटी-फूटी हिंदी में एक हुकुम जारी कर सड़क किनारे किसी पेड़ के तने पर चस्पा कर देता है तो नेशनल हाइवे थम जाता है और भारतीय रेलवे के कोत्तावालसा-किरंदूल मार्ग पर चलने वाली सारी रेलगाड़ियाँ एक-एक सप्ताह तक साँस लेना भी भूल जाती है । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओ) का सशस्त्र सैन्य संगठन “जनताना सरकार” के नाम से बस्तर सम्भाग के दण्डकारण्य क्षेत्र सहित छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, और मध्य प्रदेश के कई जिलों में एक समानांतर सरकार चलाता है ।
माओ
गुरिल्ला क्रूर और वीभत्स युद्ध के लिये जाने जाते हैं । सैन्यबलों के साथ माओ
गुरिल्लाओं की अक्सर मुठभेड़ें होती रहती हैं । दोनों पक्षों से मारे जाने वाले
लोगों में जनजातीय समूह के लोग भी होते हैं जिनके अधिकारों के लिये इस जंग का दावा
किया जाता है ।
दुनिया
भर के जंग लड़ने वाले लोग अपनी जंग और विचारधारा को जस्टीफाई करने के लिये असुरक्षा, भय और
शोषण से मुक्ति का तर्क देते आये हैं । जनताना सरकार के जनमिलिशिया सदस्य जंगल के
लोगों को बताते हैं कि भारत सरकार की नीतियाँ उनके अधिकारों को छीन लेने वाली हुआ
करती हैं जिसके कारण वे असुरक्षित हैं, पूँजीपति उनका शोषण
करते हैं जिसके कारण वे ग़रीब हैं, पढ़ने-लिखने से अधिक
महत्वपूर्ण है जनवादी युद्ध लड़ना । उन्हें बताया जाता है कि जल-जंगल-ज़मीन पर केवल
उन्हीं लोगों का अधिकार है, सरकार का नहीं । मैं इस
ज़स्टीफ़िकेशन को अर्धसत्य का कूट प्रस्तुतिकरण मानता हूँ ।
कई
गाँवों में सरकारी स्कूल और अस्पताल ढहा दिये गये हैं किंतु जंगल में जनताना सरकार
की पाठशालायें चलती हैं जिनमें माओवाद की शिक्षा दी जाती है और ढपली बजाकर क्रांति
के गीत गाना सिखाया जाता है । आम दुनिया से अलग जंगल में एक दूसरी दुनिया विकसित
हो चुकी है जहाँ के नियम-कानून-क़ायदे बिल्कुल अलग हैं । उस दुनिया के लोगों को
विश्व के समग्र इतिहास के केवल काले पृष्ठ ही पढ़ाये जाते हैं । उनका धर्म ख़ूनी
क्रांति है, उनका कर्म ख़ूनी क्रांति है जिन्हें ख़त्म करने के लिये सरकारों द्वारा वादे
और दावे किये जाते रहे हैं, दूसरी ओर दशकों से ये तथाकथित
क्रांतियाँ होती रही हैं । वादे और दावे आज भी किये जाते हैं, क्रांतियाँ आज भी होती रहती हैं ।
लगभग दो
दशक पहले बस्तर के जंगलों में फ़िनलैण्ड के ट्राइब्स से मेरी भेंट हुयी थी । मुझे
बताया गया था कि वे बस्तर में जल, जंगल, ज़मीन
पर जंगल के लोगों के अधिकारों की स्थिति का आकलन करने आये थे । वनोपजों को लेकर
सरकारों और बिचौलियों की भूमिका पर माओवादियों की अंगुली बाबा साहब की अंग़ुली वाली
मूर्ति की तरह स्थिर हो चुकी है । सरकारों और माओवादियों के अपने-अपने दावे हैं ।
सरकारें दावा करती हैं कि उन्होंने ट्राइब्स के विकास के लिये बेहतरीन व्यवस्थायें
और योजनायें बनायी हैं जबकि माओवादी दावा करते हैं कि सरकारें ट्राइब्स का शोषण
करती हैं ।
पिछली
शताब्दी के सन् 1991 में दक्षिण बस्तर स्थित उसूर विकासखण्ड में प्रवास के समय
मुझे बताया गया कि माओवाद का गढ़ माने जाने वाले उस विकासखण्ड के थाने में साल भर
में मात्र अंगुलियों पर ही गिने जा सकने लायक कुछ साधारण से अपराध पंजीबद्ध होते
हैं । अपराध करने के बाद अपराधी स्वयं ही थाने जाकर सूचना देता है और आत्मसमर्पण
कर देता है । स्थानीय लोगों की आवश्यकतायें बहुत सीमित हुआ करती हैं, वहाँ
दहशत का साम्राज्य तब भी था आज भी है किंतु वहाँ का आम आदमी तब भी मस्त था आज भी
मस्त है, सरकारें और माओवादी तब भी अपना-अपना काम किया करते
थे आज भी किया करते हैं, सरकारी दफ़्तरों में रिश्वतखोरी और
सरकारों के विरुद्ध माओ की ख़ूनीक्रांति की जुगलबंदी तब भी थी आज भी है, सरकारी दफ़्तरों के अधिकारियों-कर्मचारियों में माओवाद से दहशत तब भी थी आज
भी है किंतु पता नहीं यह कैसी दहशत है जो रिश्वत लेते समय तब भी कहीं काफ़ूर हो
जाया करती थी आज भी कहीं काफ़ूर हो जाया करती है । यह एक अद्भुत रहस्य है जिसमें
हमारी व्यवस्था और माओवाद का सम्मिलित दर्शन समाया हुआ है । इस दर्शन की एक छोटी
सी झलक सन् 2014 में विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म “बुद्ध इन अ
ट्रैफ़िक जाम” (Buddha in a Traffic jam) में देखने को मिल
जायेगी ।
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