बनाने चले थे वैक्सीन किंतु बन गया घातक बायो-वीपन । चीनियों की मासूम सी लगने वाली इस बात को मान लिया जाय तो भी मैं कहूँगा कि जिस उद्देश्य से वुहान में वैक्सीन की खोज की जा रही थी वह पूरी तरह अवैज्ञानिक और समाज में अनैतिक आचरण को प्रोत्साहित करने वाली थी जिसके परिणामस्वरूप सन् दो हजार उन्नीस में चाहे-अनचाहे हम सब कोरोना विषाणु युद्ध में झोंक दिये गये ।
यह जानते हुये भी कि संयमित यौन-सम्बंध
ही एड्स का बचाव है, नैतिक
आचरण को प्रोत्साहित करने के स्थान पर अनैतिक आचरण को प्रोत्साहित करने और क्रूर
व्यापारिक उद्देश्यों के लिये एक ऐसे वैक्सीन की आवश्यकता का अनुभव किया गया जो
असुरक्षित यौन सम्बंधों के बाद भी लोगों को एड्स से बचा सके । वैज्ञानिकों के इस अनैतिक
और असामाजिक दृष्टिकोण का ख़ामियाजा अब पूरी दुनिया को भोगना पड़ रहा है ।
ईसवी सन् दो हजार में विदित हुआ कि
वुहान स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉज़ी में चीनी वैज्ञानिक चमगादड़ों में पाये जाने
वाले एक कोरोना वायरस के ज़ेनेटिक मैटेरियल में परिवर्तन कर एड्स की वैक्सीन तैयार
करने का प्रयास कर रहे हैं । चीन पर अविश्वास करने वाले लोगों को यह संदेह था कि
कहीं चीन वैक्सीन के बहाने से कोई विषाणु अस्त्र तो नहीं तैयार करने में लगा है? प्रयोगशाला
में काम करने वाले एक कर्मचारी की असावधानी से एक दिन विषाणु को खुली हवा में आने
का अवसर मिल गया और देखते-देखते उसने पहले तो चीन में और फिर पूरी दुनिया में
तबाही मचानी शुरू कर दी । सारी दुनिया औद्योगिक वैश्वीकरण के सबसे बड़े दुष्प्रभाव
से जूझने के लिये विवश हो गयी ।
वुहान की प्रयोगशाला से मुक्त होते ही
कोरोना वायरस ने दुनिया को जहाँ के तहाँ ठहरने के लिये विवश कर दिया, भीड़ भरे
बाजार निर्जन हो गये, सड़कें
सूनी हो गयीं और लोग अपने-अपने घरों में कैद हो कर रह गये । मरघटों में शव रखने के
लिये स्थान की कमी पड़ने लगी और कोरोना वायरस के व्यवहार से दिग्भ्रमित हुये डॉक्टर्स
में भ्रांतियों की बाढ़ आ गयी । अनुमानों और हाइपोथीसिस को ही प्रमाण मानते हुये कोरोना
वायरस, उसके संक्रमण
एवं बचाव के तरीकों और चिकित्सा के सम्बंध में आये दिन नई-नई बातें गढ़ी जाने लगीं जो
अगले कुछ ही दिनों में सही प्रमाणित न हो पाने पर बदल दी जाया करती थीं । संक्रमितों
की जान बचाने के लिये वेंटीलेटर्स का उपयोग किया जाने लगा जो कुछ वैज्ञानिकों को
उपयुक्त नहीं लगा । इस नयी व्याधि के लिये किसी के पास न तो कोई औषधि थी और न कोई वैज्ञानिक
व्याख्या, सारे तीर
अँधेरे में चलाये जाते रहे । डॉक्टर्स ने अनुमानों और जुगाड़ को ही वैज्ञानिक आधार मानते
हुये लाक्षणिक चिकित्सा करनी शुरू कर दी । निजी चिकित्सालयों में धन की अभूतवर्षा होने
लगी और रोगी कंगाल होने लगे । मृत्यु की सम्भावनाओं का सघन वातावरण तैयार किया जाता
रहा जिससे चारो दिशाओं में भय व्याप्त हो गया । भय की बुलेट ट्रेन अनैतिक धन-वर्षा
करने लगी । कोरोना वायरस के रिप्लीकेशन को रोकने के लिये किसी ने मलेरिया की
दवाइयाँ दीं तो किसी ने ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एण्टीवायरल-एज़ेण्ट दिये किंतु वायरस का
रिप्लीकेशन रुकने के स्थान पर उसके नये-नये म्यूटेण्ट्स तैयार होने लगे जिन्होंने
और भी तबाही मचानी शुरू कर दी । पहले से उपलब्ध हाड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन, इवरमेक्टिन, रेम्डेसिविर
और फ़ैवीपिराविर से सफलता नहीं मिली तो कन्वल्सेंट प्लाज़्मा पर भरोसा किया गया, किंतु
किसी के भी परिणाम पर्याप्त और संतोषजनक नहीं मिल सके । पहले से ही इण्टेलेक्चुअल
ब्लैस्फ़ेमी के शिकार लोगों ने सत्य को अनदेखा करना जारी रखा और परिस्थितिजन्य
जैविक अनुकूलन के लिये अपनी जीवनशैली में उपयुक्त परिवर्तन करने से मना कर दिया ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और
शीर्ष वैज्ञानिकों की तरह एम.टेक की उपाधि प्राप्त वाराणसी के कलेक्टर कौशल राज
शर्मा ने भी अप्रैल 2021 में रेम्डेसिविर का इन्डिस्क्रिमिनेटली स्तेमाल करने से
डॉक्टर्स को कठोर शब्दों में मना किया तथापि सारी चेतावनियों की अनदेखी करते हुये रेम्डेसिविर
इंज़ेक्शन की माँग बढ़ती ही गयी, इसके
बावज़ूद कि वह पहले से ही अपने चिकित्सा उद्देश्यों में बारम्बार असफल होती रही है । एक ओर
राजनीतिक विपक्षियों द्वारा कौशल राज शर्मा की विज्ञानसम्मत चेतावनी को मोदी की
फासीवादी नीति के प्रमाण के रूप में प्रचारित किया जाने लगा तो दूसरी ओर संकट की
घड़ी में हमेशा की तरह इस बार भी असामाजिक तत्वों ने लोगों की विवशता और पीड़ा में
से अपने लिये अवसर तलाश लिये और ऑक्सीजन एवं रेम्डेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी
शुरू कर दी । वहीं हल्दी, कालीमिर्च, लौंग, चक्रफूल, दालचीनी, तुलसी, नीम और
गिलोय जैसी पूरी तरह सुरक्षित और सहज उपलब्ध एण्टीवायरल औषधियों पर लोगों का
अविश्वास बना रहा । सभ्य और विकसित मानव सभ्यता के युग में भी लोग इण्टेलेक्चुअल
ब्लैस्फ़ेमी के शिकार होते रहने से स्वयं को रोक नहीं सके ।
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