शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

रावण

श्री राम को सेना सहित समुद्र पार कर श्रीलंका जाने के लिये सेतु का निर्माण करना था । सेतु निर्माण के संकल्प और सफलता के लिये हवन-पूजन आदि कर्मकाण्ड के लिये उस समय के प्रकाण्ड वेद-विद्वान एवं सर्वश्रेष्ठ पुरोहित के रूप में रावण को आमंत्रित किया गया । युद्ध की तैयारी में एक शत्रु को दूसरे शत्रु के सहयोग की आवश्यकता थी । सेतु निर्माण में पुरोहित बनकर रावण ने न केवल अपने शत्रु को सहयोग किया बल्कि यजमान राम को अपने उद्देश्य में सफल होने का आशीर्वाद भी दिया । विश्व इतिहास में नैतिक चरित्र के ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं ।

रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्र हर किसी के लिये आसान गायन नहीं है, “जटाटवी गलज्जल प्रवाहपावितस्थले । गलेऽवलम्ब्य लम्बिताम भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्” -जैसे अद्भुत शिवस्तोत्र का रचनाकार रावण, वेद-विद्वान और महान चिकित्सा विशेषज्ञ दशग्रीव हमारी घोर घृणा और तिरस्कार का पात्र हो गया । मंत्र-तंत्र दक्ष रावण रचित कई मंत्रों का प्रयोग तो वे लोग भी करते हैं जो उसके घोर विरोधी हैं और उससे घृणा करते हैं । आप रावण को एक नोटोरियस किंग कह सकते हैं किंतु उसकी उपलब्धियों की क्रेडिट से उसे कैसे वंचित कर सकते हैं!      

सामवेद की ऋचाओं के गायन में प्रवीण रावण ने वेदपाठ के स्वाभाविक उच्चारण के लिये पदपाठकी रचना की जिसे परवर्त्ती वेदपाठियों द्वारा अपनाया गया । शब्द और ध्वनि विज्ञान में दक्ष रावण ने शब्दों के अर्थानुरणन के लिये Onomatopoeia और alteration की विधि विकसित की । ज्योतिष विज्ञान को समृद्ध करते हुये दशग्रीव ने “रावणसंहिता” की रचना की । रावण द्वारा संस्कृत में रचित ग्रंथ प्रकृत कामधेनुने डेयरी एवं विटरनरी साइंस को समृद्ध किया, युद्ध कला के लिये युद्धिश तंत्रकी रचना की, फ़ार्मेकोलॉज़ी को समृद्ध करने के लिये डिस्टिलेशन की पद्धति का विकास किया और अर्क प्रकाशनामक ग्रंथ की रचना की । डाय्ग्नोसिस के लिये नाड़ी विज्ञान पर संस्कृत भाषा में रचना की जिसे आज भी “रावणकृत नाड़ी विज्ञानम्” के नाम से व्यवहृत किया जाता है । स्त्री रोग, प्रसूति तंत्र एवं बाल रोग में निष्णात रावण ने मंदोदरी के अनुरोध पर कुमार तंत्रनामक ग्रंथ की रचना की जिसमें इन विषयों से सम्बंधित एक सौ से अधिक रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया गया है । शिव रसतंत्र और टॉक्ज़िकोलॉज़ी के आराध्यदेव हैं इसीलिये प्राचीन भारत के रस साधक” (फ़ार्मेकोलॉज़िस्ट) और टॉक्ज़िकोलॉसिट शिवभक्त हुआ करते थे । रावण की शिवभक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता । मर्करी और सल्फ़र के योग से औषधि निर्माण की विधि को विकसित करने वाला वैज्ञानिक रावण संगीत और कला में भी इस दुनिया को बहुत कुछ दे कर गया है । रुद्रवीणा वादन में दक्ष रावण ने वीणा जैसे एक यंत्र का भी आविष्कार किया जिसे आप रावणहत्था के नाम से जानते और उपयोग करते हैं ।

आज तो किसी रिसर्च का श्रेय लेने के लिये लोग सारी सीमायें तोड़ दिया करते हैं । भाषा-विज्ञान, वेद-विज्ञान, स्वर विज्ञान, युद्धकला, रसशास्त्र (फ़ार्मेकोलॉज़ी), मेडिकल साइंस, डेयरी एण्ड विटरनरी साइंस, ज्योतिष, संगीत, नीतिशास्त्र, प्रशासन और पौरोहित्य आदि में दक्ष विश्रवा पुत्र दशग्रीव वेदपाठी ब्राह्मण होते हुये भी आर्यावर्त्त में तिरस्कृत होता रहा । इस तिरस्कार को जस्टीफाइ करने के सैकड़ों तर्क दिये जाते रहे हैं । किंतु मुझे लगता है कि तिरस्कार की इस तीव्र आँधी में दशग्रीव की विद्वता और अद्भुत विलक्षणता की हम सभी अन्यायपूर्ण ढंग से उपेक्षा करते रहे हैं ।

किसी राजा का तिरस्कार तो हो सकता है किंतु किसी विद्वान और उसकी विद्वता का तिरस्कार किसी समाज के लिये श्राप से कम नहीं होता । भारत में स्वतंत्ररूप से देशी क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने वाले इसरो के वैज्ञानिक नम्बीनारायण के साथ हमने क्या नहीं किया? उन्हें न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक यातनायें भी दी गयीं, बल्कि पच्चीस साल तक जेल में भी बंद रखा गया, किस अपराध में? और इसका परिणाम यह हुआ कि स्पेस शटल के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता को दशकों का धक्का लगा । हम लगभग तीन दशक पीछे चले गये ।

लोक हित के लिये राजाओं से जीवनभर युद्ध करने वाले श्रीकृष्ण को मथुरा से पलायन करना ही पड़ा । इसरो में शोध करने वाले हमारे वैज्ञानिक रहस्यपूर्ण ढंग से या तो गायब हो जाते हैं या फिर आत्महत्या कर लेते हैं । प्रतिभा पलायन और आत्महत्या की घटनाओं से आर्यावर्त्त अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं को खोता जा रहा है । यदि आप सजग और हर पल चौकन्ने नहीं हैं तो आज कोई भी आपकी रिसर्च चुरा कर सारा श्रेय अपनी झोली में डाल लेता है और आप हाथ मल कर रह जाते हैं । चलिए छोड़िये, हम कलियुग से वापस त्रेतायुग में चलते हैं जहाँ रावण का वध हो चुका है और श्रीराम को अयोध्या लौटने के लिये तीव्र गति वाले वाहन की जुगाड़ करनी है ।

श्रीलंका की धरती पर लड़े गये युद्ध में अयोध्या की विजय हुयी, लंकेश का वध कर दिया गया । विजयी श्रीराम के पास एयरोप्लेन नहीं था, श्रीलंका से वापस आने के लिये उन्हें अपने शत्रु रावण के पुष्पक विमान का सहारा लेना पड़ा । आज के खोजी वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि उस समय श्रीलंका में रावण के पास कई एक एयर हैंगर्स थे जिनमें विमानों को रखा जाता था । यह खोज अभी भी चल रही है ।

जिस रावण का पतन उसके अहंकार के कारण हुआ, उसी ने अपने आराध्य शिव को अपने सिर काट-काट कर समर्पित कर दिये थे । क्या अर्थ है इसका? वाज़ ही अ मॉन्स्टर ऑफ़ टेन हेड्स? नो, मेडिकली सच अ मॉन्स्टर कैन नॉट सर्वाइव, हैव यू सीन अ सच पर्सन इवर? वी मे हैव टू हेड लाइंस इन अवर पाम्स बट नेवर टू हेड्स ऑन अवर नेक । इट इज़ सिम्बोलिक, जस्ट सिम्बोलिक । कथा है कि विश्रवापुत्र बचपन से ही बहुत सुदर्शन और बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न था । माँ ने बच्चे के गले में एक माला पहना दी जिसके मनकों में उसके चेहरे का प्रतिबिम्ब दिखायी देता था । साथियों ने इसीकारण उसे दशग्रीव कहना शुरू कर दिया । किंतु मुझे लगता है कि विश्रवा पुत्र की विलक्षणता के कारण उसे दशग्रीव की संज्ञा दी गयी होगी । ही वाज़ अ सुपर इंटेलीज़ेण्ट पर्सन हैविंग मल्टीडायमेंशनल पर्सनॉलिटी – “बहुमुखी प्रतिभा” । अपने अहंकार को समाप्त करने के लिये ही रावण ने अपनी दक्षतायें और उपलब्धियाँ अपने आराध्य को समर्पित करने का प्रयास किया जिसे सिम्बोलिकली “सिर काट कर चढ़ाना” कहा गया ।  

हमने रावण की बहुत सी उपलब्धियों को अपना तो लिया है किंतु उसका लेश भी श्रेय हम रावण को देना नहीं चाहते । कम से कम ज्योतिष और चिकित्सा विज्ञान में रावण की उपलब्धियों को स्वीकार करते समय हमें उसका ऋणी होना ही चाहिये । हमें विभीषण का भी ऋणी होना चाहिये जिसने रावण की मृत्यु का रहस्य हमारे आराध्य श्रीराम के समक्ष उजागर कर दिया किंतु हमने विभीषण का भी अपमान किया और उसके नाम को ही विश्वासघात का मुहावरा बना डाला । श्रीराम विजयी होकर वापस अयोध्या पहुँचे, तो हमने राम के पारिवारिक जीवन की इतनी निंदा कर डाली कि उन्हें अग्नि परीक्षा के बाद भी अपनी पत्नी को राजमहल से निष्कासित करना पड़ा । हम आर्यावर्त के निवासी न तो रावण के साथ न्याय कर सके, न विभीषण के साथ, न श्रीराम के साथ और न श्रीकृष्ण के साथ । हम अपने सनातनधर्म के साथ भी न्याय कहाँ कर पा रहे हैं! न हम अपने धर्म को अक्षुण्ण रख पा रहे हैं, न अपने मंदिरों को लुटने और तोड़े जाने से बचा पा रहे हैं, न अपने देश की सीमाओं को बचा पा रहे हैं और न अपने समाज को धर्मांतरण से बचा पा रहे हैं फिर भी हमें अपने आर्यत्व पर इतना गर्व है कि हम फूले नहीं समाते । 

2 टिप्‍पणियां:

  1. हम सनातन धर्म जिसे कहते हैं वह जीवन जीने का नियम या पद्धति है जिसका पालन राम ने भी किया और कृष्ण ने भी. आज हम सभी कर रहे हैं. इसलिए मेरा तो यही मानना है कि किसी धर्म का नाश नहीं हो रहा है. रावण की विद्वता के बारे में बचपन से सुनते आए हैं. अगर यह राम कथा सच है तो यह बेहद ख़ुशी की बात होगी कि आज से हज़ारों साल पहले हम तकनीकी और मानवीय गुणों से कितने परिपूर्ण थे. आपका अल्लेख पढ़कर कुछ नई जानकारी भी मिली. आभार.

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    1. जी हाँ ! सनातन धर्म एक जीवन पद्धति है, सही, किंतु उसे बिसरा दिया है हमने । लोकधर्म भी और राजधर्म भी इसीलिये तो तमाम अत्याधुनिक संसाधनों के होते हुये भी हम सब निस्सहाय हो गये हैं ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.