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वैक्सीनल साइड इफ़ेक्ट्स के कारण वैस्कुलर इम्बोलिज़्म से लगभग पच्चीस लोगों की
मृत्यु की घटनाओं के बाद ज़र्मनी और फ़्रांस सहित दुनिया के कई विकसित देशों ने भी
अपने-अपने देशों में कोरोना वैक्सीन के पब्लिक शॉट्स को रोक दिया है जबकि ब्राज़ील
ने भारत से ख़रीदी जाने वाली वैक्सीन का ऑर्डर निरस्त कर दिया है । दूसरी ओर भारत
में वैक्सीन लगवाने के लिये लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो
मॉडर्ना की वैक्सीन के आने का इंतजार कर रहे हैं । कुछ समय पहले जब फ़ाइज़र की
वैक्सीन लॉन्च हुयी तो फ़ाइज़र के पूर्व प्रमुख वैज्ञानिक माइकल एदॉन (Dr. Michael Yeadon) ने यह कहते हुये दुनिया को चौंका दिया कि कोविड-19 के पैण्डेमिक को समाप्त
करने के लिये वैक्सीन की कोई आवश्यकता नहीं । लाइफ़साइटन्यूज़डॉटकॉम (lifesitenews.com)
के अनुसार – “There is absolutely no need for vaccines to
extinguish the pandemic. I’ve never heard such nonsense talked about vaccines.
…..You don’t vaccinate people who aren’t at risk from the disease. You also
don’t set about planning to vaccinate millions of fit and healthy people with a
vaccine that hasn’t been extensively tested on human subjects.”
जो लोग
वैक् से उत्पन्न होने वाली इन्ड्यूस्ड इम्यूनिटी की अपेक्षा प्रकृति द्वारा
उत्पन्न नेचुरल इम्यूनिटी के पक्ष में हैं उनका तर्क है कि इस तरह की इंड्यूस्ड
इम्यूनिटी अल्प अवधि के लिये ही होती है जबकि उसके साइड इफ़ेक्ट्स गम्भीर और घातक
हो सकते हैं । कोरोना वायरस के विश्वव्यापी होने के साथ ही हमारे अंदर हर्ड इम्यूनिटी
की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है, यह प्रकृति का इन्डिस्क्रिमिनेटिव वरदान है ।
चिकित्सा
विज्ञानी स्वीकार करते हैं कि एण्टी कोरोना वैक्सीन से उत्पन्न होने वाली
इम्यूनिटी की अवधि एक सप्ताह से लेकर छह माह तक के लिये ही होती है । यानी छह
महीने के बाद हमारे सामने फिर एक प्रश्नचिन्ह आकर खड़ा हो जायेगा । यह भी समझने की
आवश्यकता है कि कोई भी वैक्सीन अमृत नहीं होती बल्कि रोग के विरुद्ध हमारी कोशिकीय
लड़ाई को केवल सरल भर कर देती है । ध्यान रहे कि लेप्रोसी और ट्युबरकुलोसिस का
अस्तित्व अभी भी समाप्त नहीं हुआ है । वैज्ञानिकों का एक बड़ा समूह वैक्सीन के
विरुद्ध उठकर खड़ा हो गया है जिसके कारण भारत के शिक्षित समुदाय में भी कोविड
वैक्सीन को लेकर संदेह उत्पन्न होने लगे हैं । यह कितने आश्चर्य और दुःख की बात है
कि वैज्ञानिक युग में हममे से किसी को नहीं मालुम कि वैज्ञानिकों के दो श्रेष्ठ
समूहों में से किसकी बात सच है और किसकी झूठ ।
तर्कशास्त्र
में खण्डन और मण्डन के महत्व को हम सब जानते हैं किंतु बात जब विज्ञान की आती है
तो खण्डन और मण्डन के बीच एक स्पेस को स्वीकार न करना पूरी तरह वैज्ञानिक
सिद्धांतों का तिरस्कार करना होता है । विज्ञान के मौलिक सिद्धांत हाइपोथीसिस पर
आधारित सम्भावित परिणामों को पूरी तरह स्वीकार करने या अस्वीकार करने के पक्ष में
नहीं होते । जब हम कहते हैं कि कोविड-19 की वैक्सीन कोवीशील्ड हमारे लिये सुरक्षित
या असुरक्षित है तो विज्ञान के मौलिक सिद्धांतों के अनुसार ऐसा कहना या मानना पूरी
तरह सत्य नहीं होता । मोतीहारी वाले मिसिर जी प्रायः कहा करते हैं – “निश्चितता
से दूर सम्भावनाओं और हाइपोथीसिस के सहारे आगे बढ़ने वाले विज्ञान ने हम सबको ख़ूब
छला है । यदि इसमें छलिया राजनीति और व्यापार को भी मिला दिया जाय तो इसके परिणाम
मानवता के लिये सबसे क्रूर त्रासदी बन कर प्रकट होते हैं”।
मैं एक
बात कहना चाहता हूँ कि जब सीमेंट नहीं थी, तब भी दुनिया भर में विशाल
तिलस्मी दुर्ग और राजमहल बनाये जाते थे । सीमेंट के बाज़ार में आते ही हम सब आधुनिक
भवन निर्माण के दीवाने हो गये और बिना कुछ सोचे-समझे एक-दूसरे की देखा-देखी महँगे
भवन बनाने लगे । सीमेंट, आयरन रॉड्स, टाइल्स,
पुट्टी, व्हाइट सीमेंट और ऑयल पेंट्स का एक
बहुत विशाल मार्केट अस्तित्व में आ गया । लोहे और सीमेंट के बने भवन की औसत उम्र
महज साठ साल होती है जबकि मिट्टी से निर्मित भवन की उम्र एक सौ से लेकर दो हजार
साल तक होती है ।
यह
बिज़नेस का ज़माना है जिसमें आई.टी. का जोरदार तड़का लगा हुआ है । आई.टी. में दक्ष एक
युवक के दिमाग़ में एक आइडिया आता है – पारिवारिक कलह से दुःखी लोगों
को राहत दिलाने के लिये क्यों न हम उन्हें तलाक की सुविधा उपलब्ध करवायें और फिर
तलाकशुदा लोगों की ज़िंदगी में बहार लाने के लिये क्यों न हम उनकी शादी करवाने का
काम शुरू करें! समझने वाली बात यह है कि यहाँ बाज़ार ने आवश्यकता को उत्पन्न किया
है जबकि सभ्यता के सरलतम युगों में आवश्यकता बाज़ार को उत्पन्न किया करती थी ।
सार्स (SARS) को लेकर कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह
दुनिया का उस समय तक का सबसे बड़ा मेडिकल छल था । विज्ञान के आसुरी दुरुपयोग और
छलावे की घटनायें नयी नहीं हैं । घातक केमिकल-वीपंस के बाद जनसंहारक बायो-वीपंस के
निर्माता देशों में दुनिया भर के विकसित और सभ्य देश सम्मिलित हैं । ये सारे काम
अत्यंत गोपनीय तरीकों से किये जाते हैं और आम जनता ही नहीं उच्च शिक्षित जनता को
भी बेवकूफ़ बनाया जाता है ।
हम
कोरोना पैण्डेमिक की बात कर रहे थे । एण्टी कोरोना वैक्सीन के बाजार में आते ही
विज्ञान के मौलिक सिद्धांतों को मानने वाले वैज्ञानिक समुदाय में इसके औचित्य, सफलता,
विश्वसनीयता और निरापदता को लेकर खण्डन और मण्डन की विश्वव्यापी लहर
चल पड़ी है । भारत के डॉक्टर्स, उद्योगपति और राजनेता वैक्सीन
स्वीकार करने के पक्ष में वक्तव्य दे कर जनता को प्रेरित कर रहे हैं तो दूसरी ओर Dr.
Michael Yeadon, Dr. Heinrich Fiechtner, Dr. keith Moran और Professor
Sunita Gupta जैसे विश्वस्तरीय धुरंधर वैज्ञानिक इसके विरोध में
उठकर खड़े हो गये हैं । डॉ. कीथ मॉरन गैस्ट्रोइंटेरोलॉज़िस्ट और कार्डियोलॉज़िस्ट हैं
। टोरोण्टो वि.वि. के ट्रिनिटी कॉलेज़, मैकमास्टर
विश्वविद्यालय हैमिल्टन और लंदन के यूनीवर्सिटी ऑफ़ वेस्टर्न ऑन्टारियो से मेडिकल
की तमाम उपाधियाँ लेने वाले Doctor Heinrich Fiechtner तो इस
वैक्सीन के पीछे ही पड़ गये हैं । ऑन्कोलॉज़िस्ट और हीमेटोलॉज़िस्ट यानी कैंसर और
रक्त विशेषज्ञ डॉ. हेनरिक फ़ेइश्नर (Heinrich Fiechtner) ज़र्मनी
के बाडेन वूर्टेम्बर्ग से मेम्बर ऑफ़ पार्लियामेंट हैं । वे ज़र्मन सेना में भी
चिकित्सक के रूप में अपनी सेवायें दे चुके हैं, उनकी बात को
सहजता से नकारा नहीं जा सकता । ऑक्स्फ़ोर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर सुनीता
गुप्ता एक एपीडेमियोलॉज़िस्ट हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को वैक्सीन दिये जाने के पक्ष
में नहीं हैं और लॉक-डाउन के पक्ष में तो बिल्कुल भी नहीं, जिसके
कारण कुछ लोग उन्हें Professor reopen भी कहने लगे हैं ।
बच्चों और गर्भवती स्त्रियों को ज़बरिया वैक्सीन दिये जाने की घटनाओं पर एक
साक्षात्कार में भावुक हो जाने वाली Ilana Rachel Daniel जेरुसलेम
में heath advisor और politician हैं ।
दुनिया
भर के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों के दो परस्पर विरोधी खेमों ने संदेह के घने बादल खड़े कर
दिये हैं, किसी को नहीं मालुम कि इनमें से कौन सा खेमा हमारे साथ वैज्ञानिक छल कर
रहा है । हमें अपने जीवन और उसकी सुरक्षा के लिये स्वयं ही निर्णय लेने होंगे ।
उच्च और वैज्ञानिक सभ्यता ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा ।
आज एक
बार फिर मुझे हिमालय में याक और भेंड़ें चराने वाले घुमंतू और अशिक्षित चरवाहों का
जीवन कहीं अधिक पवित्र, सुखी और सुरक्षित लगने लगा है ।
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