मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

भाकपा (माओवादी) प्रवक्ता के नाम खुला पत्र

         वंदे मातरम !

दिनांक 05 अप्रैल 2021 को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी के प्रवक्ता अभय के नाम से जारी विज्ञप्ति का बस्तर की आमजनता ने अवलोकन किया जिसे “भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के जनयोद्धाओं” को सम्बोधित किया गया है । तीन अप्रैल को सुरक्षा बलों के साथ हुयी मुठभेड़ में दोनों पक्षों को भारी जनहानि का सामना करना पड़ा है ।

मुझे नहीं मालुम कि आप किस भारत की और किस क्रांतिकारी आंदोलन की बात कर रहे हैं किंतु मैं जिस भारत की बात कर रहा हूँ उसके कई निर्दोष लोग परसों की मुठभेड़ में मारे गये हैं । आपके अधिकांश गोरिल्ले अविवाहित होते हैं किंतु मेरे भारत के जो योद्धा मारे गये हैं उनके मासूम बच्चों ने अपने-अपने पिता को खो दिया है जबकि वे लोग न तो पूँजीवादी थे, न शोषक, न ब्राह्मण और न फासीवादी । आपने शोषण के उन्मूलन की बात की है, मुझे नहीं मालुम कि अनाथ हो गये इन बच्चों को अब किस प्रकार की स्वतंत्रता और किन अधिकारों की प्राप्ति होगी ?

हत्या से किसी शोषण को समाप्त किया जा सकता तो रूस की बोल्शेविक क्रांति और फ़्रांस के ब्लड रिवोल्यूशन के बाद वहाँ शोषणमुक्त समाज की स्थापना कभी की हो चुकी होती । किंतु ऐसा नहीं हुआ, बोल्शेविक क्रांति के बाद भी व्लादीमीर एलिश उल्यानोव और उनके बाद ज़ोसेफ़ विस्सरियोनोविच स्टालिन के कार्यकाल में हत्याओं का दौर चलता रहा । कम्युनिज़्म एक ऐसा यूटोपिया है जो कभी धरातल पर उतर ही नहीं सका फिर चाहे वह स्पेन हो या रूस या फिर माओ ज़ेदॉन्ग का चीन । मेरे भारत के लोग जानना चाहते हैं कि क्या माओ ज़ेदॉन्ग का चीन पूरी तरह शोषणमुक्त हो चुका है? क्या वहाँ एक भी व्यक्ति ग़रीब नहीं है? क्या वहाँ असंतोष नहीं है? क्या वहाँ अपराध नहीं होते? क्या कम्युनिज़्म के मौलिक सिद्धांतों के अनुरूप वहाँ विवाह, परिवार और समाज नामक संस्थायें समाप्त कर दी गयी हैं?

आपने देश के संसाधनों और सम्प्रभुता को बचाने की बात की है । देश के नागरिकों की एम्बुश लगाकर हत्या कर देने से देश के संसाधनों और सम्प्रभुता की रक्षा किस तरह हो सकेगी यह मैं समझ नहीं सका । युद्ध आम जनता की प्रकृति नहीं है इसलिये किसी भी युद्ध को अंततः समाप्त होना ही होता है । साम्यवाद और पूँजीवाद के संघर्षों से दुनिया ने अभी तक यही देखा और जाना है कि जहाँ पूँजी और उद्योग है वहाँ इन्हें बनाये रखने के लिये शोषण है किंतु जहाँ पूँजी और उद्योग नहीं है वहाँ इनकी प्राप्ति के लिये शोषण है ।  

आपने “ब्राह्मणीय हिंदुत्व फासीवाद” और “ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष” जैसे बहुत बड़े-बड़े शब्दों का भी उल्लेख किया है । शब्दों का यह अद्भुत अमलगमेशन है जिसका आपस में कोई तालमेल समझ सकने में असमर्थ रहा हूँ । आपसे अनुरोध है कि एक बार कोरे मन से (without prejudices) ब्राह्मणत्व, हिंदुत्व, मनुस्मृति और फासीवाद का अध्ययन करने का कष्ट करें । मेरा विश्वास है कि इस अध्ययन के बाद आप भी हेगल और शॉपेनहॉर की राह पर चल पड़ेंगे ।

जय हिंदुस्थान !   

1 टिप्पणी:

  1. हिन्दुस्तान के लिए कौन सोच रहा है ? सब अपने लिए सोच कर बोल रहे हैं ... न जाने कब हम देश के लिए सोचेंगे .

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.