3 अप्रैल 2021 को तर्रेम के जंगलों में हुये गुरिल्ला युद्ध में युद्धबंदी बनाये गये सी.आर.पी.एफ़. की कोबरा बटालियन की 210वीं वाहिनी के जवान राकेश्वर सिंह मनहास को अंततः 8 अप्रैल को माओ की जनअदालत में पेश किया गया जहाँ उन पर आरोप लगाये गये और फिर निर्णय का अधिकार लगभग बीस गाँवों के हजारों लोगों के जनसमूह पर छोड़ दिया गया । उपस्थित जनसमूह में माओ समर्थकों ने सैन्यबलों पर अत्याचारों का आरोप लगाते हुये सैनिक को सजा देने का आग्रह किया जबकि अन्य कई ग्रामीणों ने रिहा कर दिये जाने का फ़ैसला सुनाया । इट सीम्स टु मी ऐज़ इफ़ स्क्रिप्टेड एण्ड वेल ड्रामेटाइज़ ।
जनताना सरकार
की कार्यप्रणाली और जन-अदालत के तौर तरीकों का संदेश प्रसारित किये जाने की दृष्टि
से माओवादियों का यह एक प्रदर्शन मात्र था । इससे पहले कोबरा जवान को रस्सी से बाँधकर
तीन दिन तक तर्रेम के आसपास के पंद्रह गाँवों में घुमाया गया जिससे माओवादियों के दो
उद्देश्य पूरे हुये, पहला यह कि गाँवों में उनकी दहशत की बादशाहत में थोड़ा और इज़ाफ़ा हुआ और दूसरा
यह कि उन्होंने सरकार सहित पूरी दुनिया को यह संदेश देने में सफलता प्राप्त कर ली कि
दण्डकारण्य में माओ की जनताना सरकार की हुक़ूमत चलती है छत्तीसगढ़ सरकार की नहीं । भारत
की स्वतंत्रता के बाद भी कश्मीर से लेकर दण्डकारण्य तक भारतीय सैन्यबलों को कई बार
इस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ा है । यह हमारी सम्प्रभुता के दावों की सच्चायी
उजागर करने का एक उदाहरण मात्र है ।
1947 में
भारतीय उपनिवेश का सत्ता हस्तांतरण हुआ था जिसको लेकर भारत में रहने वाले कई गुटों
में तभी से सत्ता की छीना-झपटी चल रही है । अलगाववाद की तमाम पगडण्डियाँ बन चुकी हैं
। भारत को खण्डित कर अपने-अपने कुनबे स्थापित कर हुक़ूमत के सपने देखने वालों की कमी
नहीं है । पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सार्वजनिक मंचों से कई बार ख़ून की नदियाँ बहाने
और चुनाव के बाद अपने राजनैतिक शत्रुओं को सजा देने की बात कह चुकी हैं । भारत में
सत्ता को लेकर ख़ून की नदियाँ बहाने का इरादा रखने वाले लोग लोकतंत्र को मात्र एक हथियार
की तरह स्तेमाल करने लगे हैं ।
भारत के
सामने अपनी सम्प्रभुता की रक्षा करने की चुनौती है, एक ओर सत्तालोलुप राजनैतिक
दल हैं तो दूसरी ओर है माओवादी सरकार जिसके दहशत के साम्राज्य को टक्कर देने का साहस
फ़िलहाल कहीं दिखायी नहीं देता ।
अपने लैपटॉप
पर यह सब लिखते-लिखते अचानक मेरी दृष्टि सामने एक जगह अटक जाती है जहाँ मैं ईंटों से
लदे गधों के एक समूह को एक दूसरे के पीछे जाते हुये देख रहा होता हूँ । मेरी इच्छा
होती है कि मैं इस दृश्य को अपने कैमरे के हवाले कर दूँ और कैप्शन में लिख दूँ –“परम्परा
ढोते-ढोते हम कितने सहनशील और फिर प्रतिक्रियाविहीन हो जाया करते हैं”।
–फ़िल्म सिटी नोयडा से अचिंत्य
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