सत्ता
में बैठे लोगों ने कोरोना युद्ध की कमान तो अपने हाथ में ले ली लेकिन अब संक्रमण एवं
मौतों को नियंत्रित न कर पाने की पराजय का ठीकरा डॉक्टर्स और जनता पर फोड़ कर अपनी
अकाउण्टेबिलिटी से पल्ला झाड़ लिया है । कैमरे और लाइट की दुनिया में आने से पहले
मैं बायोटेक्नोलॉज़ी का छात्र रहा हूँ और वायरोलॉज़ी एवं सेलुलर बायोलॉज़ी में अच्छी
रुचि होने के कारण कोरोना युद्ध के लिये बनायी जाने वाली नीतियों का तमाशा भी समझता
रहा हूँ । आज एक-एक कर जब सारी सच्चाइयाँ सामने आती जा रही हैं तो राजनैतिक दलों
के प्रवक्ता स्वीकार करने लगे हैं कि केवल सत्ता को ख़ुश करने के लिये वैज्ञानिकों
ने झूठे आँकड़े पेश किये और वैक्सीन की असंतोषजनक कार्मुकता को छिपाया । डॉक्टर्स
और वैज्ञानिकों पर आरोप लगाते समय असावधानीवश भाजपा के प्रवक्ता धोखे में अपनी
कार्यप्रणाली की पोल भी खोलने लगे हैं । “सत्ता को ख़ुश करने के लिये”
यह एक ऐसा सच है जो सत्ता की कार्यप्रणाली, आई.ए.एस.
अधिकारियों और वैज्ञानिकों से सत्ता की अपेक्षाओं की वास्तविकता को कटघरे में खड़ा
करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि सत्ता ऐसा वातावरण निर्मित कर सकने में असफल रही है
जिसमें आई.ए.एस. अधिकारी, डॉक्टर्स और वैज्ञानिक सही तथ्य
प्रस्तुत कर सकें, वे बाध्य हैं सत्ता को एन-केन प्रकारेण
ख़ुश करने के लिये जिसके लिये उन्हें झूठे आँकड़े और झूठी बातें निर्मित करनी पड़ती हैं
। इस तरह की कार्यप्रणाली से सत्ता ख़ुश होती है लेकिन उसका ख़ामियाजा जनता को ही
नहीं बल्कि पूरी सभ्यता को भुगतना पड़ता है ।
अब जब
कोरोना का डबल म्यूटेण्ट दहशत मचाता घूम रहा है और स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गयी
तो राजनीतिज्ञों ने आरोप लगा दिया कि जनता ने ही नियमों का पालन नहीं किया । राजनीतिज्ञों
का दूसरा आरोप है कि डॉक्टर्स ने कोरोना वायरस की प्रकृति, वैक्सीन
की कार्यक्षमता और कोविड 19 के उपचार के बारे में सही तथ्यों को छिपाकर सत्ता को
अँधेरे में रखा (यानी विश्वासघात किया?) ।
मैं
कोरोना के शुरुआती दिनों को याद करता हूँ जब फ़िल्म सिटी में रसूखदार लोग और जनता
को उपदेश देने वाले नेतागण गले में मास्क लटकाकर या ठोड़ी के पास सरका कर घूमा करते
थे । मौलाना मोहम्मद साद के धार्मिक मरकज़ में देश-विदेश के लोगों का जमावड़ा लगा
रहा और दिल्ली के अधिकारी उनसे नियमों का पालन करने के लिये प्रार्थना करते रहे । शाहीन
बाग का जमावड़ा हो या किसान आंदोलन का या फिर कुम्भ स्नान का ताजा मामला, सभी
जगह भीड़ को नियंत्रित करने में असफल प्रशासन और सरकार ने अपनी दुर्बलताओं और
असमर्थताओं का ही प्रदर्शन किया है । एक ओर लॉक-डाउन और ठीक उसी समय अनियंत्रित
भीड़ के आगे पानी भरती हमारी सत्ता । जन आंदोलनों और सामूहिक धार्मिक क्रियाकलापों
पर न सत्ता का नियंत्रण था और न सुप्रीम कोर्ट ने ही कोई प्रभावी संज्ञान लिया ।
विरोधाभास की चरम स्थिति के साथ जनता को अपने हाल पर मरने के लिये छोड़ दिया गया और
अब सत्ता के प्रवक्ता कहते घूम रहे हैं कि वैक्सीन समाधान नहीं है, हर किसी को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन ही होगा ।
जहाँ तक
डॉक्टर्स और साइंटिस्ट्स की बात है तो यह समझना होगा कि सत्ता ने अपने तंत्र को सच
बोलने के लिये उपयुक्त स्थितियाँ निर्मित नहीं कीं और जिसने सच बोला भी तो उसकी
बात को सुना ही नहीं गया । कोरोना वैक्सीन के वर्तमान इण्डीविडुअल की सेलुलर
कार्मुकता अनिश्चित है, उसकी क्षमता और कार्य-अवधि भी बहुत कम है, और सच बात
तो यह है कि आज कोरोना की जितनी भी वैक्सीन्स व्यवहार में लायी जा रही हैं वे सब
आज भी अपने ट्रायल फ़ेज़ में ही हैं यह इसी से प्रमाणित है कि वैक्सीन के दूसरे डोज़
के अंतराल के बारे में डॉक्टर्स को भी पूरी दृढ़ता और विश्वास के साथ कुछ भी पता
नहीं है, सब कुछ अनुमानों और हाइपोथीसिस के सहारे आगे होता
जा रहा है । साइण्टिस्ट्स ने तो यह भी बता दिया कि इस वैक्सीन के उपयोग से कोरोना
के कई और नये म्यूटेण्ट्स बनने की सम्भावना है और मात्र एक साल बाद ही यह वैक्सीन
निष्प्रभावी हो जायेगा । इस सबके बाद भी वैक्सीन के पीछे जनता की गाढ़ी कमायी में
आग लगायी जा रही है । दुःखद बात यह है कि जॉन्सन एण्ड जॉन्सन की वह वैक्सीन ख़रीदने
का मन भारत ने बना लिया है जिसे उसके वैस्कुलर इम्बोलिज़्म वाले साइड इफ़ेक्ट के
कारण अमेरिका ने रिजेक्ट कर दिया है ।
दुनिया
भर की प्राचीन सभ्यतायें इस तरह के संकटों का समय-समय पर सामना करती रही हैं ।
कहीं प्रकृति ने संतुलन बनाया तो कहीं उन्नत सभ्यताओं ने सत्य का अनुसंधान करते
हुये सामाजिक जीवनशैली में अस्पर्श्यता को अपनाया । कभी विदेशी आक्रमणकारियों ने
तो कभी राजनीतिक बेहयाई ने भारत की प्राचीन जीवनशैली को वैदिक और मनुवादी सोच कहते
हुये विकृत किया और सोशल डिस्टेंसिंग को ब्राह्मणवादी अभिषाप कहते हुये छुआछूत की
विकृत परिभाषायें गढ़ डालीं जबकि भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था नेचुरो-साइंटिफ़िक व्यवस्था
रही है जहाँ किसी प्रकार के सामाजिक वर्गभेद का कोई स्थान नहीं होता । आज हर कोई
छुआछूत का ही उपदेश “सोशल डिस्टेंसिंग” के नाम से देने लगा है । स्पर्श में
डिस्क्रिमिनेशन और भोजन में शुचिता की आवश्यकता को यदि आप छुआछूत कहते हैं तो आज
पूरी दुनिया को क्या उसी की आवश्यकता नहीं है?
कोरोना
की दवाइयाँ अज्ञात हैं, रोकथाम के जो ज्ञात उपाय हैं वे संतोषजनक परिणाम दे सकने में असफल रहे हैं
फिर भी इलाज़ हो रहा है और रोकथाम के उपाय भी अपनाये जा रहे हैं । आर.टी.पी.सी.आर.
कोरोना की विश्वसनीय जाँच नहीं है फिर भी जाँच आवश्यक है । यह उसी तरह है जैसे
हमें हमें रेल का टिकट तो लेना पड़ेगा भले ही रेलों का परिचालन पूरी तरह बंद ही
क्यों न हो । यह कैसी वैज्ञानिक सोच है जिसका कोई औचित्य मेरे जैसे विज्ञान के
विद्यार्थी रहे व्यक्ति की भी समझ से परे है! क्या कोई मुझे बतायेगा कि, -
1-
यह जानते हुये भी कि कोरोना की जाँच के लिये आर.टी.पी.आर.
विश्वसनीय उपाय नहीं है, दूसरी ओर वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि फेफड़ों की कोशिकाओं के तरल
द्रव्य (ब्रॉन्को-एल्विओलर लैवेज़) की जाँच से कोरोना संक्रमण की कहीं अधिक
भरोसेमंद जानकारी मिल सकेगी, तब आर.टी.पी.आर. पर इतना समय और
धन ख़र्च करने की क्या आवश्यकता है?
2-
Marcia
Frellick ने 30 मार्च 2021 के अपने एक लेख – “COVID Vaccines
could lose their punch within a year” में मौज़ूदा वैक्सीन की हकीकत
का बयान कर दिया है और अब यह जानते हुये भी कि वैक्सीन से उत्पन्न होने वाली
इम्यूनिटी हमें कोरोना से हमेशा के लिये राहत नहीं दे सकेगी इसलिये हमें इम्यूनिटी
की अगली खेप के लिये फिर कुछ नया करना ही होगा, तब वैक्सीन
के पीछे इतना पागलपन क्यों?
3- विश्व के कई देश वैक्सीन ख़रीद पाने की स्थिति में नहीं हैं, पैंडेमिक से मुक्ति के लिये रोकथाम की सामूहिक प्रक्रियायें अपनायी जानी चाहिये । यदि आप वैक्सीन को इतना प्रभावी मानते हैं तो क्या उसके सिद्धांतों का ईमानदारी पालन कर रहे हैं ? ग़रीब देशों में वैक्सीनेशन किये बिना संक्रमण की श्रंखला को तोड़ पाना सम्भव नहीं है, इस बहुत बड़ी चुनौती का किसी के पास क्या समाधान है?
-अचिंत्य की कलम से कोरोना चिंतन
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