शायद कुछ गिर गया है जिसे वह उठाने का प्रयास कर रहा है ...वेरी स्लो मोशन में... यह प्रयास घण्टों तक चलता रहता है । उधर एक युवक कचरे के ढेर पर बहुत देर से एक ही मुद्रा में मूर्तिवत खड़ा है। इधर एक वृद्ध व्यक्ति बहुत देर से आगे और पार्श्व की ओर विचित्र किंतु कष्टकारी मुद्रा में बैठा हुआ है। पता नहीं, यह लड़की सोने की चेष्टा कर रही है या जागने की, वह युवक उठकर खड़े होने की चेष्टा कर रहा है या बैठने की ...। इस दुनिया से अपरिचित लोगों के लिये इन विचित्र मुद्राओं से कुछ अनुमान लगा पाना सरल नहीं है। यह एक अद्भुत दुनिया है जहाँ मनुष्य की देह में कुछ अज्ञात से जीव बसेरा करते हैं ...और इन मनुष्यों का अपना कोई बसेरा नहीं होता।
फ़िलाडेल्फ़िया (यानी भाई का
प्रेम) की केन्सिंग्टन-एव में कुछ ऐसी बस्तियाँ हैं जो वास्तव में बस्तियाँ नहीं
होतीं और जिन्हें देखकर चेतना काँप उठती है। बस्तीनुमा इन बसाहटों को देखकर यह सहज
ही अनुमान लगाया जा सकता है कि तालिबान जैसे संगठनों के पास इतना अथाह पैसा कहाँ
से आता है! यह हर किसी को पता है कि आतंकी संगठनों के अनैतिक और विनाशकारी
उत्पादों के उद्योग दुनिया भर में फैले हुये हैं, फिर भी वह कौन सी विवशता है कि बड़े-बड़े सत्ताधीश इन पर अंकुश नहीं लगा पा
रहे हैं!
आज किसी और शहर चलने से पहले
मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या आपने किसी शहर की सड़कों पर समंदरों के गाँव देखे
हैं कभी, …व्हेयर एवरी ओशन कंटेन्स द सलाइन वाटर ऑफ़ आल द
ओशंस ऑफ़ दिस अर्थ?
क्या फ़िलाडेल्फ़िया और लास
एंजेलेस की उस दुनिया को “स्टिग्मा
ऑन द फ़ेस ऑफ़ सिविलायजेशन” कहना उचित नहीं होगा? मैं ड्रग्स की बात कर रहा हूँ और बहुत सोच-विचार के बाद भी यह तय नहीं कर
सका कि ड्रग्स एडिक्ट्स की दुनिया स्टिग्मा है या वह दुनिया स्टिग्मा है जो ड्रग्स
का व्यापार करती है?
जॉम्बी-ड्रग मनुष्य को मूर्ति
की तरह निर्विकार और संवेदनशून्य बना देती है। यह वह संसार है जो सुख की खोज में
भटकते-भटकते दुःखों की प्रतिमूर्ति हो गया है।
अफ़गानिस्तान, बहमास, बोलीविया, कोस्टारिका, हैती, मेक्सिको,
कोलम्बिया और वेनेजुएला जैसे देशों में मृत-जीवन जी रही एक विचित्र दुनिया
के सामने सारी सृष्टि सिमट कर अदृश्य हो गयी है।
एफ़टीआई से पढ़कर निकलने वाले
लड़के-लड़कियाँ अक्सर एक ख़ूबसूरत सा सपना देखा करते हैं जिसमें एक ख़ूबसूरत सा शहर
होता है, जहाँ बड़े बजट वाली ख़ूबसूरत फ़िल्में बनायी जाती
हैं ...और जहाँ डॉलर्स की वारिश होती है। पिछले साल अचिंत्य ने जब अपने सपने के
बारे में मुझे बताया तो मैं ख़ुश होने के स्थान पर भयभीत हो गया था, उसने मेरी आँखों को पढ़ा और बोला– “बी पॉज़िटिव...
देयर इज़ हेल ...बट बिलीव ...देयर इज़ हैवेन टू” । अचिंत्य का
सपना मुझे आज भी भयभीत करता है। उस शहर में जाने वाले हर लड़के-लड़की के पास
प्रारम्भ में पॉज़िटिव विज़न ही हुआ करता है किंतु वहाँ जाने के बाद वह विज़न कब
धराशायी हो जाता है किसी को कानो कान ख़बर नहीं लगती ...और जब लगती है तब तक सब कुछ
समाप्त हो चुका होता है।
मैंने कहा – “हाँ! एक ख़ूबसूरत शहर ...जो अपनी ख़ूबसूरती से
भी ज़्यादा बदसूरती लिये हुये नकली मुस्कान ओढ़े खड़ा रहता है”।
अचिंत्य ने कहा – “ओह नो...दीज़ आर सम डर्टी पैचेज़ ...ऐज़ इन
कोलकाता एण्ड मुम्बई, द रियल ब्यूटी इज़ इनसाइड द काउन्टी...
डोन्ट गो टुवर्ड्स डाउन टाउन ऑफ़ द लॉस एंजेलेस”।
जी हाँ ...“लॉस एंजेलेस”, यही है वह
शहर जहाँ सारी सीमाओं को पार कर दर्द के समंदर अपने में समाये कुछ लोग न जाने कैसे
हिलते-डुलते रहते हैं। मैं उन्हें मृत नहीं कह सकता, जीवित
भी नहीं कह सकता। मनुष्य जैसे दिखने वाले इन लोगों को मैं समंदर कहना चाहता हूँ।
ख़ूबसूरत शहर की सड़कों के किनारों पर रहने वाले इन हजारों लोगों के पास घर नहीं
होता। बर्फ़ीली सर्दी और वर्षा से बचने के लिये इन्होंने पॉलीथिन से घोसले बना लिये
हैं …कुछ-कुछ इग्लू जैसे। इन लोगों में कुछ शिक्षित हैं,
कुछ अशिक्षित हैं, कुछ अपराधी हैं, कुछ अपने आप में खोये हुये हैं, कुछ भिखारी हैं,
कुछ भिखारी न होते हुये भी भीख पर निर्भर हैं ... तो कुछ ऐसे भी हैं
जो कचरे के डिब्बों में से खाने-पीने की चीजें खोजते हुये दिखायी दे जाया करते हैं।
यह एक अलग ही दुनिया है जहाँ केंसिंग्टन-एव की तरह ड्रग-एडिक्ट्स की भरमार है। दे
लिव इन वेरी अनहाइजेनिक कंडीशंस, मोस्ट ऑफ़ देम आर सफ़रिंग
फ़्रॉम वेरी सीरियस डिस-ऑर्डर्स ।
उनके पास भोजन के लिये पैसे
नहीं होते लेकिन उनमें से कई लोगों के पास हेरोइन, हशीश या कोकीन के लिये पैसे होते हैं। ड्रग्स के लिये ये लोग कुछ भी कर
सकते हैं, पुरुष अपराध कर सकते हैं और लड़कियाँ वेश्यावृत्ति।
ड्रग्स की आवश्यकता पूरी करने के लिये इनके पास ये ही दो सहज उपाय हुआ करते हैं।
मुम्बई की धारावी, लॉस एंजेलेस की इस घोसला बस्ती से लाख गुना
अच्छी है। स्वर्ग के दरवाजे पर नर्क का पहरा देखना हो तो एक बार फ़िलाडेल्फ़िया या
लॉस-एंजेलेस चले जाइये। बेहद बदनुमा दाग लिये इस बेहद ख़ूबसूरत शहर में डॉलर्स की
वारिश होती है। महँगी कारें इन घोसलों के पास आकर रुकती हैं, कार से उतरने वाले व्यक्ति के हाथ में भोजन के पैकेट्स होते हैं ...घोसला
बस्ती के लोगों को देने के लिये।
इन बस्तियों में हर उम्र के
लोग रहते हैं, लड़कियाँ भी ...और वे स्त्रियाँ भी जिनका
फ़र्टाइल पीरियड अभी समाप्त नहीं हुआ है ...और जिन्हें हर महीने मेंस्ट्रुएशन की एक
विशिष्ट फ़िज़ियोलॉजिकल सायक्लिक कण्डीशन से हो कर गुजरना होता है। इन घोसलों में गर्भवती
भी हैं और प्रसूतायें भी। इन स्त्रियों का नर्क, हर महीने
कुछ दिनों के लिये कुछ और अधिक हो जाया करता है।
इस अधर्ममूलक विकास ने हमें एक आदमखोर सभ्यता की ओर ढकेल दिया है ...जहाँ या तो केवल अतिसम्पन्न लोग रहते हैं या फिर अतिनिर्धन। पश्चिमी देशों में संसाधनों, अवसरों और सम्पत्ति के ध्रुव बन जाया करते हैं जो आगे चलकर रक्तक्रांतियों को आमंत्रित करते हैं। आम आदमी की दृष्टि में घोसला बस्ती के लोगों की समाज के लिये कोई उपयोगिता नहीं होती सिवाय इसके कि वे ड्रग्स व्यापार की एक पहत्वपूर्ण कड़ी हुआ करते हैं। इस दृष्टि से देखा जाय तो वर्ल्ड-इकोनॉमी में उनकी भागीदारी भी कोई कम नहीं होती। आख़िर आने वाले लम्बे समय तक अफ़गानिस्तान में भी तालिबान का सबसे प्रमुख आर्थिक स्रोत अफीम ही रहने वाला है। तो क्या लॉस एंजेलेस की घोसला बस्ती को जानबूझकर स्टिग्मा बनाये रखा गया है ...गोया बुरी नज़र से बचाने के लिये ख़ूबसूरत चेहरे पर काला टीका?
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