गुरुवार, 30 मई 2024

गांधी का प्रबल विरोधी होता

         भारत में ही नहीं, विदेशों में भी मोहनदास करमचंद गांधी को विश्वनायक के रूप में अतिसम्मानजनक स्थान प्राप्त है। तथापि, गांधी की नीतियों, आदर्शों और आचरण के प्रशंसक एवं उपदेशक स्वयं उनकी नीतियों और आचरण का अनुसरण नहीं करते। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि गांधी की अधिकांश नीतियाँ, आदर्श और आचरण व्यावहारिक नहीं थे!

वर्धा के सेवाग्राम में गांधी के बाद उनके पदचिन्हों पर जैसे-तैसे चलने का प्रयास किया जा रहा है। गांधी की स्वावलम्बनमुखी शिक्षा प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था की ही तरह थी जो बहुत व्यावहारिक हो सकती थी यदि गांधी के अनुयायियों ने उसे उसी रूप में समझकर अपना लिया होता। गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहर लाल जानते थे कि स्वावलम्बनमुखी शिक्षा वास्तव में शिक्षा से अधिक व्यावसायिक दक्षता है जो वंशपरम्परा के साथ आगे बढ़ती और निखरती है। प्राचीन और मध्यकालीन भारत में उत्कृष्ट कुटीर उद्योगों की सफलता के पीछे उत्तराधिकार से प्राप्त व्यावसायिक दक्षता ही थी जिसने भारत को सोने की चिड़िया बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जवाहर लाल पारिवारिक कुटीर उद्योगों के स्थान पर बड़े और अत्याधुनिक उद्योगों के पक्षधर थे। इस व्यवस्था में उद्योग का स्वामित्व कुलीन वर्ग को मिलता है और श्रम का दायित्व उद्योग में दक्ष व्यक्ति को दिया जाता है। इस व्यवस्था के बाद कुटीर उद्योगों के स्वामी श्रमिक बन गये और जिससे उत्पाद की गुणवत्ता प्रभावित हुयी। भारत के कुटीर उद्योगों को समाप्त करने में पहले अंग्रेजों और फिर जवाहरलाल की औद्योगिक नीतियों ने अपनी सारी शक्ति लगा दी थी।

जवाहरलाल और मोहनदास में कई विषयों पर मतैक्य नहीं हो पाता था फिर भी मोहनदास उन्हें भारत का सारथी बनाने के हठ पर अड़े रहे और अंततः भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के लिये जवाहरलाल का मार्ग प्रशस्त करने में सफल रहे। कई प्रकार की मानवीय दुर्बलताओं से ग्रस्त और हठी गांधी जीवन भर महानता के कवच में लिपटे आत्मसंतुष्टि के बोध से भरे रहे और अंततः भारत को दुर्बल हाथों में सौंप कर चले गये।

गांधी को पता था कि अंग्रेज उन्हें किसी भी स्थिति में आमरण अनशन से मरने नहीं देंगे। गांधी को यह भी अच्छी तरह पता था कि भारत की पराधीन जनता से निपटने के साथ-साथ देशी राजाओं और उनकी प्रजा से निपटने के लिये भी ब्रिटिश सत्ता को गांधी की बहुत आवश्यकता थी। गांधी अंग्रेजों के लिये स्वैच्छिकप्रस्तुत कवच की तरह थे जो भारतीय क्रांतिकारियों के उतने ही प्रबलविरोधी थे जितने कि अंग्रेज। गांधी जीवन भर भारत की शोषित प्रजा को अपने शोषण के विरुद्ध उग्र और हिंसक होने से रोकते रहे, अंग्रेजों को निष्कंटक राज्य करने के लिये भला और क्या चाहिये था!   

जॉर्ज ऑरवेल ने अपने एक पत्र में लिखा है कि “गांधी बीस सालों से ब्रिटिश शासन के दाहिने हाथ बने रहे। गांधी का आत्मबल एक तरह की रणनीति थी जिससे ब्रिटिशर्स को भारत पर शासन करने में आसानी हुयी”।

स्वाभिमान को पीड़ित करने वाली विदेशी दासता और पराधीनता से गांधी को कोई आपत्ति नहीं थी। यही कारण था कि वे आजीवन मुगल शासन के प्रशंसक और दीर्घकाल तक ब्रिटिश शासन के सहयोगी बने रहे। दीर्घकाल तक भारत में उनके आंदोलनों का उद्देश्य ब्रिटिश शासन व्यवस्था में सुधार और सत्ता में भारतीयों की सहभागिता की माँग ही हुआ करती थी न कि पूर्णस्वराज्य की माँग! वह बात अलग है कि अंग्रेजों के बढ़ते उत्पीड़न और क्रांतिकारियों एवं भारतीयों के दबाव के कारण परिवर्तित हुयी परिस्थितियों ने गांधी को पूर्ण स्वराज्य की माँग के लिये विवश कर दिया था।   

रोमिला थापर जैसे छद्म इतिहासकारों की तरह गांधी भी औरंगजेब को महिमामंडित करने और भारतीय इतिहास को विकृत करने में कभी पीछ नहीं रहे।

मोहनदास गांधी मानते थे कि “भारत में अंग्रेजों से पहले का समय भारतीयों के लिये दासता का समय नहीं था। मुगल शासन में हमें एक तरह का स्वराज्य प्राप्त था। अकबर के समय में महाराणा प्रताप का जन्म लेना सम्भव था और औरंगजेब के समय शिवाजी फल-फूल सकते थे, लेकिन एक सौ पचास वर्षों के ब्रिटिश शासन ने क्या एक भी प्रताप और शिवाजी को जन्म दिया है? कुछ सामंती राजा अवश्य हैं पर सब के सब अंग्रेजों के सामने घुटने टेक देते हैं और अपनी दासता स्वीकार करते हैं। ...क्या आज के शासकों के दरबार में बीरबल जैसा कोई मुँहफट और निर्भीक हो सकता है”? – कटक में २१ मार्च १९२१ को गांधी के सार्वजनिक भाषण का अंश।

यानी गांधी मानते थे कि महाराणा प्रताप, शिवाजी और बीरबल का जन्म लेकर जीवित रहना मुगलों की कृपा के कारण ही सम्भव हो सका। उनकी दृष्टि में भारतीय क्रांतिकारियों की वीरता और निर्भीकता का कोई मूल्य नहीं था। गांधी द्वारा भारतीय क्रांतिकारियों का यह अवमूल्यन अपमानजनक और सम्पूर्ण भारत के लिये लज्जाजनक है।   

औरंगजेब को सादगी और श्रमनिष्ठा का प्रतीक मानने वाले मोहनदास गांधी सार्वजनिक सभाओं में भी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। मोहनदास को भारतीय इतिहास में कोई ऐसा स्वदेशी उदाहरण नहीं मिला जिसकी वे प्रशंसा कर सकते। यदि अफ़्रीका में ब्रिटिशर्स द्वारा उनके साथ उत्पीड़न की घटनायें न हुयी होतीं तो वे अंग्रेजों के भी प्रशंसक और आजीवन सहयोगी बने रहते।

मुस्लिम शासकों की प्रशंसा के आगे उन्होंने हिंदूकुश के नरसंहार की पीड़ा को भी महत्व नहीं दिया। भारत में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा ढहाये गये मंदिरों, मुस्लिमसैनिकों द्वारा किये गये यौन-उत्पीड़नों, जजिया कर, बलात् धर्मांतरण और विश्वविद्यालयों को जलाकर राख कर देने की ऐतिहासिक घटनाओं ने भी मोहनदास गांधी को कभी पीड़ित नहीं किया। मोहनदास ने बंदा बैरागी और गुरु गोविंद सिंह जी को दी गयी प्रताड़नाओं को भी महत्व नहीं दिया। वे अपने भाषण में कहते हैं – “अंग्रेजों से पहले भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगों के इतने अधिक उदाहरण नहीं मिलते जितने कि आज। औरंगजेब के शासनकाल में हमें (हिन्दू-मुस्लिम दंगों का) कोई उल्लेख नहीं मिलता”। –एक नवम्बर १९३१ को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पेम्ब्रोक कॉलेज में मोहनदास के भाषण का अंश।

मोहनदास की दृष्टि में भारतीय आदर्शों का मूल्यांकन, हिन्दुओं की सहिष्णुता और समावेशी प्रवृत्ति का कोई अर्थ नहीं था। गांधी के हृदय की गहराई में हिन्दूविचारों की अपेक्षा मुस्लिमविचारों के प्रति आदरपूर्ण आग्रह के दर्शन होते हैं। उनका यह पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण भारत के हिन्दुओं के लिये बारबार घातक सिद्ध होता रहा पर मोहनदास को इससे कभी कोई प्रयोजन नहीं रहा।    

भारत की स्वतंत्रता के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाली क्रांतिकारी अजीजन बाई, जद्दन बाई, राजेश्वरी बाई, गौहर जान आदि महिलाओं को मोहनदास “कोठेवालियाँ” होने के कारण “नैतिकरूप से पतित” मानकर घृणा करते थे जिसके कारण उनका व्यवहार इन महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण हुआ करता था। मोहनदास गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उनके द्वारा प्रस्तावित आर्थिक सहयोग राशि को ठुकरा दिया था। कोठेवालियों के प्रति मोहनदास के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण एक अधिवेशन में पहुँची आमंत्रित कोठेवाली को पृथक से भोजन परोसा गया। गांधी अपने विचारों, दृष्टिकोणों और तरीकों को सर्वश्रेष्ठ मानते थे यही कारण है कि वे अपने साथियों को अपनी हर बात मनवाने के लिये अनशन का सहारा लेकर उन्हें विवश कर दिया करते थे। अहिंसा के पुजारी के रूप में प्रचारित किये गये मोहनदास की यह प्रवृत्ति क्या वैचारिक हिंसा नहीं थी?

मोहनदास और जवाहरलाल के समकालीन आदर्श व्यक्तियों में सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और अजीजन बाई जैसे लोगों का स्थान हर भारतीय के लिये कहीं अधिक आदर्श और आदरणीय है। यदि मैं मोहनदास गांधी के काल में रहा होता तो उनका प्रबल विरोधी होता। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा है गांधी जी को २०१४ से पहले कोई नहीं जानता था |

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  2. जानते पहले भी थे, आज भी और आगे भी जानते रहेंगे। किंतु विमर्श तो होना चाहिये न!

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.