शुक्रवार, 24 मई 2024

करे कोई, भरे कोई

            जातियाँ तुम बनाओ, गालियाँ ब्राह्मणों और मनुस्मृति को दो।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से अब तक कई बार सत्ताधीशों द्वारा जातियों और उनके वर्गीकरणों में परिवर्तन किये जाते रहे हैं। सन् २०१६ में दरकोट (मुंश्यारी) के एक वयोवृद्ध ने मुझे बताया कि वह क्षत्रिय है पर सरकार ने उन्हें जनजातीय समुदाय का सदस्य घोषित कर दिया। संविधानप्रदत्त आरक्षण के लालच में कुछ जातीय समुदाय भी अपने समूह को अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, पिछड़ा वर्ग या दलित वर्ग में घोषित करने के लिये आंदोलन करने लगे हैं। आरक्षण के लालच में ये लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य नहीं बनना चाहते (वह बात अलग है कि अनुसूचित वर्ग के लोग अपने उपनामों में ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के उपनाम यथा – तिवारी, पांडे, तोमर, सेंगर, अग्रवाल और जैन आदि लिखने लगे हैं जिससे कि सवर्णों में आसानी से विवाह किये जा सकें)।

संविधान की यह कैसी दूरदर्शिता और श्रेष्ठता है जो समाज को आगे बढ़ने के स्थान पर पीछे जाने के लिये प्रोत्साहित कर रहा है? जातीय वर्गीकरण को कोसने वाले लोग जातीय वर्गीकरण में अपने आप को नीचे-और नीचे रखे जाने की माँग करने लगे हैं, फिर भी जातिवाद के लिये गालियाँ सत्ताधीशों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों और मनुस्मृति को ही देते हैं। ब्राह्मण गालियाँ सुन-सुन कर अपमानित होते हैं क्योंकि उन्हें वास्तव में सामाजिक रूप से दलित बना दिया गया है।

जातिनिर्माण और जातीय वर्गीकरण का यह क्रम आज तक चला आ रहा है। सरकार आयोग बनाती है, और आयोग के अधिकारी समाज का वर्गीकरण करते हैं। समाज को बाँटने का यह घृणित षड्यंत्र समाज के उत्थान के लिये नहीं, उसके पतन के लिये है। सत्ताधीश यहीं नहीं रुके, उन्होंने मुस्लिम समुदाय को भी आरक्षण का लाभ देने के लिए उनका जातीय वर्गीकरण करना प्रारम्भ कर दिया (इस सम्बंध में कोलकाता उच्चन्यायालय ने ममता बनर्जी सरकार के निर्णय को विधिसम्मत स्वीकार नहीं किया जिसके बिरोध में ममता ने हुंकार भर दी है – कोर्ट का निर्णय आमी मानबो ना)। स्मरण कीजिये, शाहबानो प्रकरण में भी सत्ता (कांग्रेस) ने न्यायालय के निर्णय को पलट दिया था। क्या इस तरह के सामाजिक और जातीय विभाजन के लिये ब्राह्मणों को दोष देना उचित है? क्या इसके लिये वेदों और मनुस्मृति को दोष देना उचित है?

कोपीनधारी ब्राह्मण तो भिक्षावृत्ति से ही संतुष्ट रहा है, तथापि उसका चिंतन व्यापक और लोकहितकारी रहा है। सुदामा की निर्धनता ही उसके बौद्धिक स्तर को श्रेष्ठ बनाती है। वास्तविकता तो यह है कि ब्राह्मण तभी तक ब्राह्मणत्व से सम्पन्न है जब तक वह धन और पद से दूर है। धन और पद मिलते ही फिर वह ब्राह्मण नहीं रह पाता। धन, ऐश्वर्य, भोग और पद में ब्राह्मण ही नहीं, किसी को भी पथभ्रष्ट कर सकने की क्षमता होती है।

जहाँ आर्थिक दरिद्रता है वहाँ सामाजिक दलन और उत्पीड़न है। इस दृष्टि से तो ब्राह्मण वास्तव में एक दलित समुदाय रहा है, आज भी है। प्रगतिशील साहित्यकार, जिनमें ब्राह्मण और क्षत्रिय भी हैं, पानी पी-पी कर मनुस्मृति और ब्राह्मणों को भारतीय कुरीतियों के लिये कोसते रहे हैं, आज भी कोसते हैं।

मनुस्मृतिकार ने वर्णों का उल्लेख किया है पर जातियों का नहीं। वर्ण वह शास्वत सत्य है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता। यह एक वैज्ञानिक वर्गीकरण है जो पूरी तरह गुणात्मक स्तर पर स्वनिर्धारित होता है। मैं इस विषय पर किसी से भी (विशेषकर प्रगतिशील और वामपंथी ब्राह्मणों से) विमर्श के लिये तैयार हूँ, बशर्ते आप गालियाँ न बकने लगें और तर्कपूर्ण तरीके से अपना पक्ष रखें।   

2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. जी! सत्य वचन! पर यह कितना अद्भुत है कि वोट देने वाले की जाति है, वोट लेने वाले की भी जाति है पर बेचारे वोट की कोई जाति नहीं होती। मधुशाला याद आ रही है।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.