बुधवार, 29 मई 2024

शक्ति और शासन

- सतोगुण के बिना तप नहीं, रजोगुण के बिना शासन नहीं। यही व्यावहारिक सत्य है।        

- शक्तिविहीन शासकों को सत्ता से अपदस्थ होना पड़ता है, यही नियम है।

- भारत की पराधीनता के इतिहास से गांधी ने कोई पाठ नहीं पढ़ा, बल्कि वे जीवन भर नये आदर्श और नयी परिभाषायें थोपने के हठ में व्यस्त रहे और अंततः भारत को निर्बल हाथों में सौंप कर चले गये।

- गांधी के विरुद्ध टिप्पणी करने वाली साध्वी प्रज्ञा सिंह से कुपित रहने वाले नरेंद्र भाई मोदी ने भी इतिहास से वह नहीं सीखा जिसे सीखकर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी सत्ताधीशों के चंगुल से भारत को बचाया जा सकता।

- जवाहर लाल की निर्बलता ने नेपाल और भूटान को भारत संघ में सम्मिलित होने से रोका, कश्मीर का एक बड़ा भाग खोया ही नहीं बल्कि उसकी समस्या को स्थायी बना दिया, वीटो पॉवर लेने से मना ही नहीं किया बल्कि भारत के स्थान पर चीन को देने की अनुशंसा की, और सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा पर कभी ध्यान नहीं दिया जिससे अलगाववाद को प्रोत्साहन मिलता रहा।

- भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशी शासकों ने पाया कि “भारत में युद्ध शक्तिप्रदर्शन के लिये लड़े जाते हैं, आरपार के लिये नहीं”। वे भारतीय युद्ध परम्परा को देखकर विस्मित हुये और कहने लगे कि ऐसे युद्ध का क्या औचित्य जिसमें विजय के अवसरों को युद्धनीति के नाम पर हाथ से निकल जाने दिया जाता है। उन्होंने भारतीयों की शक्ति के इस स्वरूप को अपने हित में पहचान कर लाभ उठाया और उनसे सत्ता छीन ली। 

- भारतीय युद्धनीति के अनुसार सूर्य डूबने के बाद युद्ध बंद कर दिया जाता था, बिना चेतावनी के अनायास आक्रमण नहीं किया जाता था, स्त्रियों, बच्चों, निर्बलों और पीठ दिखाने वालों पर आक्रमण नहीं किया जाता था। शत्रुपक्ष के घायल हुये योद्धाओं की भी चिकित्सा की जाती थी। युद्ध में शत्रु को दिये गये वचनों का हर स्थिति में पालन किया जाता था। रात्रि में अचानक धोखे से आक्रमण करने वाले विदेशियों की दृष्टि में इस तरह की युद्ध नीति मूर्खतापूर्ण थी। भारत की पराधीनता में यह भी एक बहुत बड़ा कारण था।

- आधुनिक भारत की संघीय व्यवस्था में पश्चिम बंगाल और दिल्ली की प्रजा वहाँ के निरंकुश शासन का दंड भोग रही है। निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन का यह एक सफल प्रयोग है जिसके जनक लालू प्रसाद यादव जाने जाते हैं।

- भारत के प्राचीन इतिहास में दुष्ट एवं अत्याचारी राजाओं के उल्लेख मिलते रहे हैं, ऐसे उल्लेख भी मिलते रहे हैं कि अंततः उनका संहार करके ही समाज में शांति स्थापित की जा सकी।

- गांधी ने सत्ता और शासन के लिये अहिंसा का जो राग अलापा यह उसी का प्रभाव है कि अहिंसा ने प्रजा को निर्बल और सत्ताधीशों को निरंकुश बनने के लिये प्रोत्साहित किया।

- धर्मविहीन लोकतांत्रिक सत्ता व्यवस्थाओं में सत्ताधीशों को ऐसे विपक्ष की ऐषणा रहती है जो लोकहितकारी न हो। यही कारण है कि फ़ारुख़ अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती, ममता बनर्जी, सोनिया माइनो, रौल विंची, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और तेजस्वी यादव जैसे अयोग्य लोगों को राजनीति में बनाये रखने के लिये उनके आपराधिक कृत्यों के विरुद्ध चल रही किसी विधिक कार्यवाही को निर्णायक स्थिति तक पहुँचने ही नहीं दिया जाता।

- निर्बल और अयोग्य विपक्ष वैक्सीन बनाने के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले एटेनुएटेड विषाणु की तरह होता है जो अंततः सत्ता व्यवस्था का एक ऐसा वैरिएंट निर्मित कर देती है जो निरंकुश होती है। यही कारण है कि विपक्ष को मोदी के निरंकुश हो जाने का भय सताने लगा है।

- भारत का विपक्ष लोकहितकारी शासन व्यवस्था में अपनी रचनात्मक भूमिका से विमुख हो चुका है, उसका पूरा ध्यान एन-केन प्रकारेण सत्ता छीनने में ही लगा रहता है। तहर्रुश गेमिया की तरह सत्ता की छीन-झपट को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

-औद्योगिक और आर्थिक विकास के बाद भी भारतीय राजनीति अपने पतन की ओर निरंतर उन्मुख होती जा रही है। इस पतन के लिये जितने उत्तरदायी राजनेता हैं उससे भी अधिक उत्तरदायी वह जनता है जो राजनीति के अपराधीकरण में स्वयं को साधन के रूप में प्रयुक्त होने देती है।       

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