संविधान के जन्म की कहानी लगभग आठ सौ वर्ष पुरानी है। यानी आठ सौ वर्ष पहले किसी भी देश का कोई संविधान नहीं हुआ करता था। दुनिया का पहला संविधान ब्रिटेन में लिखा गया और १५ जून सन् १२१५ को तत्कालीन राजा द्वारा जनता के हित में लागू किया गया। संविधान का अर्थ है एक ऐसा अभिलेख जो किसी भी देश के शासक और वहाँ की जनता के बीच बनी सहमति से लिखा और लागू किया जाता है। भारत का संविधान संविधानसभा के सदस्यों के बीच बनी आपसी सहमति का अभिलेख है।
भारतीय संविधान को बचाने की बात की जा रही है। कैसे बचेगा
संविधान, यह किसी ने नहीं बताया। सब एक ही बात कहते हैं
कि संविधान बचाने के लिये मोदी को भगाओ और मुझे प्रधानमंत्री बनाओ। झोली फैलाये
राजनेता प्रधानमंत्री का पद माँग रहे हैं। उनका अश्वासन है कि वे इसके बदले में
संविधान को बचा लेंगे।
क्या इससे पहले कभी संविधान को बचाया किसी ने? सन् २०१४ से पहले तक संविधान में ९८ बार संशोधन
किये जा चुके थे, तब तो किसी ने नहीं बचाया था संविधान को।
संविधान की आत्मा को तोड़ा-मरोड़ जाता रहा, उसमें लिखे शब्दों
की ग़लत व्याख्यायें की जाती रहीं, व्यक्तिगत हित में संविधान
के साथ छेड़छाड़ की जाती रही और उसकी आत्मा को ठेस पहुँचायी जाती रही तब किसी को
संविधान बचाने की चिंता क्यों नहीं हुयी?
संविधान बचाने का अर्थ है संविधान को यथावत् उसके मूल रूप में
बनाये रखना, न कि व्यक्तिगत हित के लिये उसमें परिवर्तन
करना!
संविधान निर्माण के समय संविधानसभा के सदस्यों द्वारा यह
अपेक्षा की गयी थी कि सभा में निर्णीत सभी विषयों और अनुबंधों को विधायिका, न्यायपालिक और कार्यपालिका द्वारा यथावत् माना
जायेगा और संविधान में अभिलिखित विषयों पर न कभी पुनर्विचार किया जायेगा और न
उसमें काट-छाँट की जायेगी। किंतु ऐसा नहीं हुआ, संविधान में
लिखित रामराज्य की अवधारणा की धज्जियाँ उड़ायी जाती रहीं, सर्वधर्मसमभाव
के स्थान पर “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को स्थान दे दिया गया और निर्धारित समयावधि के लिये
लागू किये गये आरक्षण को स्थायी बना दिया गया जिससे आरक्षण का मूलउद्देश्य ही समात
हो गया।
अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये धार्मिक
और भाषायी अल्पसंख्यकों की स्थिति का अध्ययन करने के बहाने संविधान के विरुद्ध
जाकर देश में धार्मिक और भाषायी भेदभाव के द्वारा समाज को खंडित करने के लिये वर्ष
२००४ में तत्कालीन सरकार द्वारा रंगनाथ आयोग का गठन किया गया। सरकार इतने से ही
संतुष्ट नहीं हुयी इसलिये बाद में उसने मुस्लिमों और ईसाइयों की कुछ जातियों को
अनुसूचित जाति की सूची में सम्मिलित करने की जाँच का दायित्व भी आयोग को सौंप
दिया। आयोग के प्रतिवेदन के आधार पर मनमोहन सिंह की सरकार ने उसे लागू करने की
अनुशंसा भी कर दी किंतु बढ़ते विरोधों और विवादों के कारण यह स्वीकार नहीं किया जा
सका।
कांग्रेस सरकार मुसलमानों और ईसाइयों की कुछ जातियों को संविधान
के विरुद्ध जाकर अनुसूचित जाति में सम्मिलित करना चाहती थी। अनुसूचित जाति और
अनुसूचित जनजाति के विवादित प्रकरणों के समाधान के लिये संविधान के अनुच्छेद ३३८
में राष्ट्रपति द्वारा एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
कांग्रेस सरकार ने संविधान में संशोधन करते हुये “अधिकारी की नियुक्ति” को
अनुसूचितजाति-जनजाति “आयोग के गठन” में स्थानापन्न कर दिया। संविधान बचाने की
गुहार लगाने वाले लोग तो संविधान को खेत की मूली समझ कर मनमाने ढंग से अपने लिये
प्रयुक्त करते रहे, आज उन्हें
संविधान की चिंता हो रही है!
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