शनिवार, 14 सितंबर 2024

नोबल पुरस्कार सम्मान या क्रूरता का प्रतीक

            मैं कश्मीर से कहना चाहता हूँ कि आज़ादी के लिए तैयार रहो । मैं पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से कश्मीर का समर्थन करने, कश्मीर की आज़ादी के लिए काम करने का आह्वान करता हूँ । पाकिस्तान, अफगानिस्तान से मैं कहना चाहता हूँ कि तुम कश्मीर की मदद करो, कश्मीर की आज़ादी के लिए काम करो । तौहीद के झण्डे ज़ल्द ही दिल्ली की शाही मस्ज़िद पर लहरायेंगे” –जसीमुद्दीन रहमानी, बांग्लादेश के इस्लामिक नेता ।

नोबल पुरस्कार विजेता बांग्लादेशी मोहम्मद यूनुस द्वारा वहाँ के कट्टर साम्प्रदायिक नेता जसीमुद्द्दीन रहमानी को हाल ही में जेल से मुक्त किया गया है जिसने ममता बनर्जी से भारत से बंगाल की आज़ादी की घोषणा करने की माँग की है । भारत और हिन्दूविरोधी मोहम्मद यूनुस के कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनते ही बांग्लादेश में हिन्दूनरसंहार की क्रूरता और भी बढ़ती चली गयी जिसे रोकने का उसके द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया । यूनुस जैसे क्रूर और विघटनकारी व्यक्ति को नोबल पुरस्कार प्रदान किया जाना और अभी तक उसे वापस न लिया जाना “नोबल-पुरस्कार चयन प्रक्रिया” को दूषित और अपमानित करता है । मोहम्मद यूनुस के कारण नोबल पुरस्कार अब सम्मान का नहीं क्रूरता का प्रतीक बन गया है । 

बांग्लादेश के इस्लामिक नेता जसीमुद्दीन रहमानी ने भारत को खण्डित करने के लिए खुले मंच से पाँच घोषणायें की है –

1-    ख़ालिस्तान आंदोलन को सहयोग करने की कसम खाने की घोषणा ।

2-    जम्मू-कश्मीर की आज़ादी और उसमें पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान को सम्मिलित करने की घोषणा ।

3-    पश्चिम बंगाल को भारत से मुक्त कराने की घोषणा ।

4-    चीन के सहयोग से सिलीगुड़ी गलियारा बंद करने और पूर्वांचल के सात राज्यों को भारत से आज़ाद करने के लिए प्रोत्साहित किये जाने की घोषणा ।

5-    शीघ्र ही दिल्ली की शाही मस्ज़िद पर तौहीद के झण्डे फ़हराये जाने के संकल्प की घोषणा ।

 

भारत के भीतर और भारत से बाहर भारत को खण्डित करने के षड्यंत्रकारियों और योजनाकारों की कमी नहीं है । इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया के अधिकांश मुसलमान एक हो जाते हैं । पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी जसीमुद्दीन रहमानी के समर्थक नहीं हैं ऐसा सोचना आत्मघाती होगा ।

ढीठ ममता की हेकड़ी और वक्फ़ बोर्ड पर हिन्दूप्रतिक्रिया

           उसका आचरण और विचार माओ-जे-दांग की स्मृतियों को ताजा करता है । वह तानाशाह है, और हिंसा एवं क्रूरता में विश्वास रखती है । स्त्री होकर भी वह स्त्रियों के प्रति होने वाली क्रूरता में सहयोगी की भूमिका में पायी जाती रही है । वह अतिमहत्वाकांक्षी है और क्रूरता एवं छल से पूरे भारत की अधिनायक बनना चाहती है । कम से कम ममता के अभी तक के आचरण से यही निष्कर्ष निकलता है ।

ममता अपनी शर्तों पर डॉक्टर्स से बात करना चाहती है जिसका बंगाल के डॉक्टर्स ने बहिष्कार करके बहुत अच्छा उत्तर दिया है । ममता के निरंकुश अहंकार पर यह बहुत बड़ी चोट है, अब वह कुछ भी कर सकती है जबकि मोदी सरकार बंगाल में केवल तमाशा देखने में लगी हुयी है ।

बंगाल ही नहीं पूरे देश में अपराधियों और सत्ता के गठबंधन ने न्याय और व्यवस्था को चुनौती दे रखी है । आम आदमी पार्टी के नेता जेल से बाहर आते ही जनता के बीच जाकर न्यायालय के निर्णय की भ्रामक और कई बार पूरी तरह मिथ्या व्याख्या करते हैं, इस तरह की व्याख्याओं से न्यायालयों को अपने निर्णयों की अवमानना का अनुभव क्यों नहीं होता, क्या यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता ? यदि यह अपराध नहीं है तो यह न्यायालयीन प्रक्रियाओं के साथ बहुत बड़ा परिहास है ।   

भारत में किसी को कानून का भय नहीं है, किसी को अपराध और क्रूरता करने से रोक पाने या दण्डित कर पाने में सारी व्यवस्थायें निष्फल हैं । पाकिस्तान से संचालित ट्रेन जिहाद भारत में प्रारम्भ हो चुका है, अलगाववादी कट्टरपंथियों को जेल में डालने से सरकारें घबराती हैं और आम आदमी का शांतिपूर्वक जीना दूभर हो गया है ।

सोमवार को बारावफ़ात है और सुरक्षा की व्यवस्थायें की जा रही हैं, किंतु जो होना तय है उसे रोक पाना किसी के वश में नहीं है, ऐसा क्यों है ? हिन्दू अपने पूर्वजों के लाखों वर्ष पुराने देश में सुरक्षित क्यों नहीं है ? इसका उत्तर कौन देगा ? क्या कोई हमें सत्ता के औचित्य को समझायेगा!

हिन्दूहितों की बलि चढ़ाने के लिए वक्फ़ बोर्ड को कांग्रेस सरकार द्वारा प्रदत्त असीमित और अन्यायपूर्ण अधिकारों को यथावत् बनाये रखने के लिए मुसलमान पूरी तरह सक्रिय हैं, वहीं हिन्दू समाज, जो कि पीड़ित पक्ष है, अपेक्षाकृत निष्क्रिय और दूरदृष्टिविहीन है । कम से कम संशोधन बिल के समर्थन और विरोध करने वालों की संख्या के अनुपात से तो यही प्रमाणित हो रहा है । यह बहुत ही निराशाजनक स्थिति है, ऐसे स्वाभिमानशून्य समाज की रक्षा तो ईश्वर भी नहीं करना चाहेगा ।

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

मार्क्सवादी ब्राह्मण का देहदान

            बहत्तर वर्ष के सीताराम येचुरी ने आज देहत्याग कर किसी “धर्मविहीन अनीश्वरीय-सत्ता के राज्य” में प्रवेश हेतु प्रस्थान किया । मार्क्सवादी परिवार के सॉफ़्ट कामरेड दुःखी हुये, हार्ड कामरेड भीतर ही भीतर प्रसन्न हुये । मैं उनका आलोचक रहा हूँ किंतु उनके महादानी होने का प्रशंसक भी हूँ । देहदान से बड़ा दान और कुछ नहीं हो सकता, यह अनुकरणीय है और प्रशंसनीय भी ।

दृश्य-श्रव्य संचार माध्यमों पर लोगों की कटु टिप्पणियाँ मार्क्सवादी ब्राह्मण के जीवन का मूल्यांकन कर रही हैं । मृत्यु के समय लोगों की अप्रिय टिप्पणियाँ मृतक के जीवन भर की यात्रा का मूल्यांकन करती हैं । सामान्यतः किसी की मृत्यु पर समाज में मिथ्या प्रशंसा करने की लौकिक परम्परा रही है, कटु-टिप्पणियों का प्रचलन नहीं रहा, किंतु यदि यह है तो गम्भीर बात है । रावण, हिरण्यकश्यपु, दुर्योधन आदि की मृत्यु पर आमजनता दुःखी नहीं हुई, प्रसन्न हुई थी ।

अर्थशास्त्री सीताराम येचुरी जी न सीता के थे, न राम के थे वे तो केवल मार्क्स के थे । भारतीय दर्शनों की अपेक्षा कार्ल हेनरिख मार्क्स के दर्शन ने उन्हें प्रभावित किया । पता नहीं उन्होंने भारतीय दर्शन कभी पढ़े भी थे या नहीं, किंतु मेरा विश्वास है कि यदि उन्होंने पढ़े होते तो आज वे भारत के बहुत सफल और सम्माननीय नेता होते ।  

किशोरावस्था में येचुरी जी के भीतर ब्राह्मणत्व (सामाजिक न्याय के लिए परिवर्तन) की जो चिंगारी थी उसने मार्क्स से अपना हव्य प्राप्त किया, जे.एन.यू. में दिशा प्राप्त की और आपातकाल में बंदी होकर भड़क उठी ।

कार्ल मार्क्स के कठोर एवं अव्यावहारिक साम्यवाद ने एक ब्राह्मण की दिशा बदल दी, वह धर्मद्वेषी होकर धर्मनिरपेक्षवादी हो गया और फिर एक दिन भारतीय मूल्यों का विरोधी भी हो गया । येचुरी भारत को जर्मनी और चीन बनाने की दिशा में आगे बढ़ चले । फिर एक समय ऐसा भी आया जब साम्यवादी देश टूटने और बिखरने लगे, उन्हें पूँजीवादी देशों की आर्थिक उदारता के सिद्धांतों को स्वीकार करना पड़ा । निजीकरण और आर्थिक उदारीकरण येचुरी के सामने दो बहुत बड़ी चुनौतियाँ रहीं जिनके कारण वे सी.पी.आई.एम. के कठोरतावादी कामरेड्स से वैचारिक और सैद्धांतिक सामंजस्य नहीं बना सके । आपातकाल में जिस कांग्रेस ने उन्हें बंदी बनाया और जिसके कारण उनकी पीएच.डी. कभी पूरी नहीं हो सकी उसी कांग्रेस से गठबंधन के पक्षधर रहे येचुरी अपने राजनीतिक जीवन में दक्षिणपंथी शक्तियों को साम्प्रदायिक और मानवताविरोधी मानते रहे । उन्होंने जीवन भर स्वयं को धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील विचारक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया ...और यही उनका सैद्धांतिक भटकाव रहा ।

सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता जैसे शब्द बहुत लुभावने और न्यायपूर्ण लगते हैं किंतु इन्हीं शब्दों का ध्वज लेकर चलने वाले लोग एक दिन सामाजिक अन्याय और आर्थिक असमानता के प्रतीक बनते चले जाते हैं । लेनिन और स्टालिन इसके ऐतिहासिक उदाहरण हैं । काश! सीताराम येचुरी मार्क्स की अपेक्षा श्रीराम के होते तो वंचितों, दलितों, कृषकों और वनवासियों के लिए वास्तविक धरातल पर वह सब कुछ कर पाते जो वे करना चाहते थे । 

अमर उजाला ने लिखा – “वामपंथ के युगदृष्टा का निधन; ख़ामोश हो गयी वंचितों, दलितों, किसानों और आदिवासियों की आवाज

किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए इतने भारी-भारी शब्दों का प्रयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए अन्यथा यह प्रयोग जनता में मिथ्या संदेश और भ्रम का कारण बनता है । वंचितों, वनवासियों, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों की शक्ति के प्रतीक तो श्रीराम और श्रीकृष्ण थे । कर्मयोगीश्रीकृष्ण से बड़ा भी कोई साम्यवादी हुआ है आज तक !  

रविवार, 8 सितंबर 2024

समाचार संवेदना और युवा कामसमस्यायें

 समाचार या चटखारे

घटना, दुर्घटना, युद्ध या कोई प्राकृतिक आपदा कितनी भी क्रूर और हृदयविदारक क्यों न हो, दूरदर्शन को छोड़कर अन्य सभी दृश्य-संचार-माध्यमों पर उनके समाचार जिस तरह सुनाये जाने की परम्परा बनती जा रही है, उससे कभी ऐसा नहीं लगता कि समाचार प्रस्तोता का हृदय घटना की क्रूरता से लेश भी प्रभावित हुआ है । उनका सारा ध्यान समाचार को सनसनी बनाने में लगा रहता है गोया किसी बच्चे को कोई कहानी सुनायी जा रही हो इसलिए उनके प्रस्तुतीकरण में संवेदनशून्यता दिखायी देती है जो हमारी कुंद होती संवेदना और पतित होते नैतिक मूल्यों का परिचायक है ।

ऐसे प्रस्तुतीकरण को व्यावसायिक निर्दयता की संज्ञा दी जा सकती है । संवेदनशून्यता, निर्दयता और अवसरवादिता की रही-सही कमी राजनीतिक कबीलों के लोग अपनी टिप्पणियों और आरोपों-प्रत्यारोपों से पूरी कर देते हैं । व्यावसायिकता की ऐसी प्रवृत्ति चिंता का विषय है । हम संवेदनशून्यता के अभ्यस्त होते जा रहे हैं । इसकी छाया समाज पर भी पड़ने लगी है । भीड़ सड़क के किनारे पड़ी हुई घायल और निर्वस्त्र लड़की का वीडियो बनाती रहती है, कोई उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आता ।

युवा कामसमस्यायें 

सहज संवेदनाओं के प्रति कुंद पड़ते जा रहे मस्तिष्क का एक अन्य परिणाम मेडीसिन विभाग की ओ.पी.डी. में भी दिखायी देने लगा है । दृश्य-संचार-माध्यमों के धारावाहिकों और विज्ञापनों के कामुक दृश्यों एवं लड़के-लड़कियों के पारस्परिक व्यवहार ने नयी पीढ़ी की प्राकृतिक काम संवेदना को भी कुंद बना दिया है । आप इसे असमय में मस्तिष्क का सैचुरेशन कह सकते हैं । लॉस ऑफ़ लिबिडो और इरेक्टाइल डिसफ़ंक्शन आज के युवाओं की एवं सेक्सुअल अरौसल डिसऑर्डर, ऑर्गैस्मिक डिसऑर्डर, अवर्ज़न टु सेक्स और डिसपरयूनिया लड़कियों की समस्यायें होती जा रही हैं । अब अविवाहित युवकों को भी काउंसलिंग और अफ़्रोडिज़ियक्स की आवश्यकता होने लगी है ।

इन समस्याओं के कारण भारतीय दूरदर्शन आज और भी अधिक प्रासंगिक होता जा रहा है । अब यह किशोरों और युवाओं को तय करना है कि उन्हें दूर-संचार-माध्यमों पर क्या देखना है और क्या नहीं ।   

शनिवार, 7 सितंबर 2024

हिन्दुस्तान किसका?

 *हमारे नहीं तो किसके बाप का है*

तृणमूल कांग्रेस के विधायक हमायूँ कबीर ने हुंकार भरी – “हिन्दुओं को गंगा में बहा देंगे

आल इंडिया कुर-आन प्रतियोगिता में तीन जुलाई २०२४ को कैबिनेट मंत्री फ़िरहाद हकीम ने हिन्दुओं को धमकाया – “जो इस्लाम में पैदा नहीं वो बदकिस्मत । हिन्दू भी किस्मतवाला हो सकता है, मुसलमान होकर । हिन्दू धर्मपरिवर्तन करें, दावत-ए-इस्लाम में ईमान लाएँ । हिन्दू को जन्नत का रास्ता मुस्लिम बनकर ही मिलेगा । ग़ैर मुस्लिम बेचारे बदकिस्मत होते हैं ।

राम के होने पर प्रश्न, कृष्ण के होने पर प्रश्न, बहुदेवों के होने पर प्रश्न, मन्दिरों के अस्तित्व पर प्रश्न ...और अब भारत पर अधिकार का प्रश्न ! हमारे घर में घुसकर हमसे ही इतने प्रश्न करने का अधिकार किसने दिया तुम्हें ?

हमने तालियाँ बजायीं, जब तीन दशक पहले राहत इन्दौरी ने कहा – “...किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है”।

तुम्हारे लोगों ने इस शेर को लपक लिया और नया नारा बना लिया जिसे नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में ख़ूब गाया गया – “हिन्दुस्तान किसी के बाप का नहीं”।

भारत में वे कहते हैं – “यह देश किसी के बाप का नहीं है” (कोई देश लावारिस कैसे हो सकता है?)

ब्रिटेन में वे कहते हैं – “यह देश किसी के बाप का नहीं है”। 

बांग्लादेश में वे कहते हैं – “यह देश तुम्हारे बाप का नहीं है”।

लंदन में कहते हैं – “यह देश इस्लामिक कानून से चलेगा”।

नीदरलैण्ड में कहते हैं – “इस्लामिक कानून हमारा हक है” (तुम्हारे हक हर कहीं हैं, औरों के हक कहीं भी क्यों नहीं हैं?)

एक जिहादी ने हुँकार भरी – “हिन्दुस्तान छोड़ दो, यह तेरा नहीं है, मेरे ख़्वाज़ा रहमत-ए-उल्ला मोइनुद्दीन चिश्ती का है”।

तुम कव्वालियों में गाते हो – “हिन्दुस्तान मेरे ख़्वाजा का है”।    

...और अब असम में लोकगीत बिहू की धुन में गाने लगे हो – असम तोमार बापोर नेकी, खाली मियाँ खेदिबो खुजा” – अल्ताफ़ हुसैन

तुमने कहा – हिन्दुस्तान किसी के बाप का नहीं है । सच है, हिन्दुस्तान तुम्हारे बाप का तो नहीं ही है पर हमारे होते हुए यह लावारिस भी नहीं है । हिन्दुस्तान हमारे बाप के पूर्वजों के पूर्वजों के... पूर्वजों का था, इसलिए हमारा ही है, किसी और का कैसे हो सकता है!

वर्तमान से विद्रोह आवश्यक नहीं किंतु आवश्यक हो तो अवश्य होना चाहिये, होता भी रहा है, भारत में ही नहीं दुनिया भर के देशों में भी ।

विद्रोह जब विद्रोह के लिए नहीं किसी सभ्यता को मिटाने के लिए हो तो उसे कुचला भी जाना चाहिए । विद्रोह का असैद्धांतिक और असभ्य स्वरूप मर्यादा की सारी सीमाएँ तोड़ देता है । तुम्हारे विद्रोह में परिमार्जन नहीं, अहंकार है, असहिष्णुता है, समावेशिता का अभाव है और किसी भी देश की सांस्कृतिक धरोहर पर आक्रमण है ।

अब तनिक ध्यान से पढ़िये राहत इन्दौरी की ये दो नज़्में –

१.

हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है (यही बात जिहादी भी सोचता है और अ-मुसलमानों को शक्तिहीन मानता है)

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है (अहंकार की पराकाष्ठा)

हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर स्वेच्छाचारिता)

जो आज साहिब-इ-मसनद हैं कल नहीं होंगे (सत्ता को ललकार)

किरायेदार हैं जाती मकान थोड़ी है (पैतृक सम्पत्ति को चुनौती)

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में (शामिल होता तो मिट्टी से बगावत नहीं करता, और मिट्टी को वंदे मातरम् कहता)

किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है (क्या यह गजवा-ए-हिन्द की खुली घोषणा नहीं?)।

२.

आँख में पानी रखो होठों पे चिंगारी रखो (पाखंड करने और कटुभाषी होने का संदेश)

ज़िंदा रहना है तो तरक़ीबें बहुत सारी रखो (वर्चस्व के लिए हर तरह की रणनीति अपनाने का आह्वान)।

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर (दरिया एक परम्परा है, सनातन प्रवाह है जिसे ललकारा जा रहा है)

जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ (धमकी)

तूफ़ानों से आँख मिलाओ सैलाबों पर वार करो (हिंसा का संदेश)

मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो (परम्परा से हटकर केवल अपनी शक्ति पर भरोसा)।

किसी के द्वारा भिन्न-भिन्न रंगों में भिन्न-भिन्न मंचों से परोसे जाने वाले झूठ को झूठ क्यों नहीं कहा जाना चाहिए ?

और हमें अपने चिर-सत्य की यशोगाथा क्यों नहीं गानी चाहिए ?   

सावधान! झूठ की श्रंखला इतनी बड़ी और पुरानी मत होने दो कि उनके हर झूठ दुनिया को सच लगने लगें ।


*हाँ! हिन्दुस्तान हमारा है* 

स्पेनिश, जर्मन, पोर्टगीज़, फ़्रेंच, डच या ब्रिटिशर्स ने कभी भी पूरे भारत पर राज्य नहीं किया । स्वतंत्रता के समय १९४७ में ब्रिटिश पराधीन भारत में कुछ राज्य ही सम्मिलित थे, शेष 565 राज्य देशी रजवाड़े या रियासतें थीं ।

ब्रिटिश भारत की रेसीडेंसीज़ –

हैदराबाद रेसीडेंसी (उस्मान अली ख़ान),

जम्मू और कश्मीर रेसीडेंसी (महाराजा हरि सिंह),

मैसूर रेसीडेंसी (जयचामराजेंद्र वाडियार),

सिक्किम रेसीडेंसी (चोग्याल वांग्चुक नामग्याल),

त्रावणकोर रेसीडेंसी (महाराजा पद्मनाथ दास)

ब्रिटिश एजेंसी के रूप में –

1-    बलूचिस्तान एजेंसी, कुल चार रजवाड़े – कलात, खारान और लासबुला मकरान (सभी में मुस्लिम शासक)।

2-    काठियावाड़ एजेंसी, कुछ छह रजवाड़े ध्रोल, नवानगर, राजकोट, गोंडल, मोरबी और मकाजी मेधपर (सभी में हिन्दू शासक)।

3-    दक्खन राज्य एजेंसी एवं कोल्हापुर रेसीडेंसी, कुल 14 रियासतें – अक्कालकोट, औंध, भोर, जमखंडी, जंजीरा, जथ, कोल्हापुर, कुरुंदवाद वरिष्ठ, कुरुंदवाद कनिष्ठ, मुधोल, फलटण, सांगली, सवानुर और सावंतवाड़ी, (जंजीरा एवं सवानुर में मुस्लिम शासक, अन्य सभी में हिन्दू शासक) ।

4-    ग्वालियर रेसीडेंसी, कुल छह रियासतें – ग्वालियर, गढ़ा, खनियाधाना, रामगढ़ी, राजगढ़ और रामपुर (रामपुर में मुस्लिम शासक, अन्य सभी में हिन्दू शासक)

5-    मद्रास प्रेसीडेंसी, कुल चार रियासतें – बनगानपल्ली, कोच्चि, पुदुकोट्टई और संदूर, (बनगानपल्ली में मुस्लिम शासक, अन्य सभी में हिन्दू शासक)। 

6-    उत्तर-पश्चिमी सीमांत राज्य एजेंसी, कुल पाँच रियासतें – अम्ब,चित्राल, दिर, फुलरा और स्वात (सभी में मुस्लिम शासक )।

7-    गिलगित एजेंसी, कुल दो रियासतें – हुंजा और नगर रियासत (दोनों में हिन्दू राजा के अधीन मुस्लिम शासक )।

8-    सिंध प्रांत, कुल एक रियासत – खैरपुर (मुस्लिम शासक )।

9-    पंजाब एजेंसी, कुल 15 रियासतें – बहावलपुर, बिलासपुर, फ़रीदकोट, जिंद, कल्सिया, कांगड़ा, कपूरथला, लोहारू, मलेरकोटला, मण्डी, नाभा, पटियाला, सिर्मूर, सुकेत और टिहरी गढ़वाल (बहावलपुर, लोहारू, मलेरकोटला में मुस्लिम शासक अन्य सभी में हिन्दू शासक)।

10- राजपूताना एजेंसी, कुल 23 रियासतें – अलवर, अहीरवाल, भरतपुर, बीकानेर, बूंदी, धौलपुर, डूंगरपुर, जयपुर, जैसलमेर, झालावाड़, जोधपुर, करौली, किशनगढ़, कोटा, कुशलगढ़, लवा-सरदारगढ़, मेवाड़, तोरावटी, प्रतापगढ़, शाहपुरा, सिरोही, टोंक और अमरकोट (टोंक में मुस्लिम शासक, अन्य सभी में हिन्दू शासक ) ।

11- कुल 33 रजवाड़े ब्रिटिश कम्पनी में पूरी तरह विलित छोटे-बड़े राज्य –  अनुगुल, कोडगू, सहारनपुर, कर्नाटक की नवाबत, कुलाब, संबलपुर, कोज्झीकोड, बांदा, सतारा, गुलेर, कोल्लू, जयंतिया, कर्नूल, सूरत, कुट्लेहार, जातिपुर, मकराई, जालौन, जसवान, नागपुर, झांसी, नारगुंड, सिब, तंगावुर, कछारी, अवध, तुलसीपुर, कांगड़ा, पंजाब, कन्नौर, रामगढ़, उदयपुर (छत्तीसग़ढ़) और कित्तूर ।

पूरी सूची देखने के लिए गूगल से पूछ सकते हैं ।