“हिन्दू धर्म में जाति एक संवेदनशील विषय है । यदि किसी की प्रगति के लिए आवश्यक है तो जातीय जनगणना होनी चाहिए, चुनावी लाभ के लिए नहीं” – राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ।
अब संघ से कुछ
प्रश्न –
1.
क्या जाति-व्यवस्था को हिन्दू-धर्म का मौलिक एवं अभिन्न अंग स्वीकार
किया गया है ? यदि हाँ, तो किस प्राचीन ग्रंथ में ?
2.
जातिव्यवस्था के विरुद्ध रहने वाले संघ को अनायास ऐसा क्यों
लगने लगा कि जातिगणना से भेदभाव का नहीं बल्कि समाज और राष्ट्र का विकास संभव है ?
3.
स्वाधीनता के पश्चात् से अब तक सरकारों ने जातीय भेदभाव के आधार
पर कई कल्याणकारी योजनायें बनायीं, क्या वे उनके विकास के लिए पर्याप्त नहीं थी ? “किसी की प्रगति” में सहायक या बाधक कौन होता है, कुछ जातियाँ या सरकारें?
4.
क्या आप मानते हैं कि समाज के विकास के लिए सरकारों के पास अभी
तक पर्याप्त और तथ्यात्मक सांख्यिकी आधार नहीं थे और अब जातियों के आधार पर ही
समाज और देश का विकास किया जाना चाहिये, अवसरों की उपलब्धता और भौगोलिक आधार पर नहीं ?
5.
इस बात की क्या सुनिश्चितता है कि समाज को जाति और वर्ग में
बाँट देने से समाज विभाजित होकर क्षीण नहीं होगा, राष्ट्रीय एकता खण्डित नहीं होगी बल्कि समाज और देश विकास करने
लगेगा?
6.
समाज को जातियों में बाँटने से, अब तक के जातीय इतिहास में विभिन्न राजाओं, सुल्तानों और सरकारों के हित साधे जाते रहे हैं या समाज के ?
7.
क्या समाज को जातियों और समुदायों में बाँटे बिना समाज का
कल्याण और विकास सम्भव नहीं ?
8.
सामाजिक न्याय और विकास के लिए जातीय आधार महत्वपूर्ण होना
चाहिए या आर्थिक और भौगोलिक आधार ?
9.
यह कौन सुनिश्चित करेगा कि जातीय जनगणना का उद्देश्य चुनावी लाभ
नहीं होगा ?
10.
क्या इस तरह जाति-आधारित आरक्षण को और भी सुदृढ़ एवं स्थायी नहीं
किया जा रहा है जो कि वास्तव में संविधान की अवधारणा और व्यवस्था के विरुद्ध है ?
11. क्या कोई समाज या सरकार जातीय आधार पर किसी के साथ ईश्वरप्रदत्त उसकी नैसर्गिक क्षमता, दक्षता और गुणवत्ता को छीन सकता है, जिसे वापस किए जाने के लिए अब जातीय जनगणना की आवश्यकता है ? जो भी भेदभाव हैं वे सब अवसरों की उपलब्धता को लेकर हैं जिसके लिए सरकारें ही उत्तरदायी हैं, क्या ऐसी सरकारें जातिगणना के बाद समान अवसर उपलब्ध करवायेंगी इस बात की क्या सुनिश्चितता है ?
जातीय
वर्गीकरण को समाज और देश के लिए विभाजनकारी और हानिकारक मानने वाले
राष्ट्रीय-स्वयं-सेवक-संघ का अपने ही पूर्व सिद्धांतों के विरुद्ध जाकर ऐसा वक्तव्य
एक तरह से हिन्दूविरोधियों और विपक्षी दलों की जातीय जनगणना की माँग का समर्थन करता
है ।
फलादेश ज्योतिषीय
वर्गीकरण से स्पष्ट है कि सनातनी हिन्दूसमाज में जातीय वर्गीकरण कभी भी मौलिक सिद्धांत
नहीं रहा, यह तो कालक्रम से निर्मित
राजकीय और सामाजिक व्यवस्था रही है जिसका अस्तित्व दो हजार वर्ष पूर्व तक तो था ही
नहीं । जातीय विभाजन के अस्तित्व में आने के बाद से यह विषय निरंतर विवादास्पद
होता चला गया तथापि यह विषय इतना संवेदनशील भी कभी नहीं रहा जितना कि आज ।
राष्ट्रीय-स्वयं-सेवक-संघ
के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर संघ के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध अब
यह मानते हैं कि – “...जातिगत गणना देश की एकता से भी
जुड़ा हुआ प्रश्न है इसलिए इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है, न कि चुनाव और राजनीति को ध्यान में रखकर ! ...देश और समाज के
विकास के लिए सरकार को सांख्यिकी तथ्यात्मक आधारों की आवश्यकता होती है, इसका व्यवहार भिन्न-भिन्न जातियों और समुदायों की भलाई के लिए
करना चाहिये । समाज की कुछ जाति के लोगों के प्रति विशेष ध्यान देने की आवश्यकता
होती है जिसके लिए जातीय-जनगणना करवानी चाहिए । इसका व्यवहार लोककल्याण के लिए
होना चाहिए”।
तथाकथितरूप
से “सामाजिक न्याय और कल्याण के लिए जातीय-जन-गणना की माँग” पर विपक्षी राजनीतिक दलों के सुर
में सुर मिलाते हुये अब संघ भी भाजपा नीति के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है । अब से पहले
तक तो संघ के नेता इसे समाज को बाँटने वाला और असमानता का मूल बताते रहे हैं ।
वर्ष २०२३ के माह दिसम्बर में संघ प्रचारक और विदर्भ प्रांतप्रमुख श्रीधर गाडगे
देश में जातिगत जनगणना को प्रोत्साहित किए जाने के विरुद्ध वक्तव्य देते रहे हैं ।
संघ-प्रचार-प्रमुख
सुनील आंबेकर का यह विचार पूरी तरह से “तथाकथित सेक्युलर” एवं वामपंथी सिद्धांतों
का समर्थन करता है । जनसंघेतर विचारक धर्म, जातिवाद और राष्ट्रवाद का विरोध तो करते हैं पर अपनी कूटनीतिक
चालों से इन्हें बनाये भी रखना चाहते हैं । अभी तक भाजपा भी जातीय जनगणना को
सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए बाधक मानती रही है किंतु अब उसकी मातृ-संस्था के
करवट लेने से उसे भी एक बार गहन मंथन करना होगा जिसके परिणाम पूरे भारतीय समाज के
लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होंगे ।
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