दुनिया भर ने देखा कि वह बार-बार घायल हुआ, कभी-कभी राख भी हुआ लेकिन उसी राख में से फड़फड़ाकर पुनः आकाश में उड़ान भरने लगा । बाढ़ और भूकम्प जैसे प्राकृतिक प्रकोपों को झेलते और कोरोना वायरस से लड़ते हुये वह एक बार फिर सिर उठाकर खड़ा हो चुका है । उसे अपने घर के कूड़ा-करकट को उठाकर जला देने में विश्वास है, और इसके लिए वह किसी से आज्ञा नहीं लेता, किसी से कोई परामर्श नहीं करता, किसी न्यायालय के निर्णय के लिए वर्षों प्रतीक्षा नहीं करता, किसी की निंदा सुनकर अपने बढ़े हुए एक कदम को अढ़ाई कदम पीछे पलट कर नहीं ले जाता । वह वही करता है जो उसे अपने देश के लिए करना चाहिये ।
वह बोलता बहुत कम है पर अपने देश के विकास और समृद्धि के काम बहुत करता है, करता ही रहता है, दुनिया उसके विकास को देखते रहती है, देख-देख कर ईर्ष्या में जलती रहती है। अमेरिका और यूरोप में उसकी निंदा होती है, उस पर प्रतिबंध लगाये जाते हैं, पर वह अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटता, प्रतिबंध लगाने वाले देशों को कुछ समय बाद झख़ मारकर प्रतिबंध हटाने पड़ते हैं, यही बात विचारणीय है । चीन पर लगाये प्रतिबंध हटाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प क्यों नहीं होता किसी के पास ? हमने मेक-इन-इंडिया का नारा दिया, लेकिन चीन के सहयोग के बिना वह भी नहीं हो सका । हम असेम्ब्लर बन कर रह गये । हम चीन के सहयोग के बिना पैरासिटामोल तक बना सकने की स्थिति में नहीं हैं । सेमी-कंडक्टर्स के लिए हमें अभी तक चीन का मुँह ताकना पड़ता है । कम्प्यूटर्स, ब्रॉडकास्टिंग उपकरण, इंटीग्रेटेड सर्किट्स, मेडिकल उपकरण, प्लास्टिक्स, कार्बनिक पदार्थ… जैसी कई चीजों के लिए हम चीन पर निर्भर हैं । कहाँ है आत्मनिर्भर भारत ? क्यों नहीं हो सका आत्मनिर्भर भारत ?
हम आतंकवादियों को संतुष्ट करने में अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं, उनके द्वारा की जाने वाली हिंसा और तोड़फोड़ की क्षतिपूर्ति में ही लगे रहते हैं । ऐसा देश कभी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता जो अपने आंतरिक शत्रुओं को पहचान कर भी न पहचानने का पाखंड करता रहता है । चीन में कोई आतंकवाद क्यों नहीं है? वहाँ कोई रेल की पटरियों की फ़िश-प्लेट्स क्यों नहीं खोलता, वहाँ कोई ट्रेन में आग क्यों नहीं लगाता, वहाँ की संसद पर आतंकी आक्रमण क्यों नहीं होता, वहाँ निर्भया जैसी हृदयविदारक अपराधों की श्रंखला क्यों नहीं होती, वहाँ के मदरसों में आतंकवाद क्यों नहीं पढ़ाया जाता, वहाँ कोई पुलिस महानिरीक्षक “RSS मुल्क में सबसे दहशतगर्द तंज़ीम” जैसी पुस्तक क्यों नहीं लिखता...?
बहुत कुछ अप्रिय और अवांछित है जो अलोकतांत्रिक चीन में नहीं होता, बहुत कुछ अप्रिय और अवांछित है जो लोकतांत्रिक भारत में होता है... होता ही रहता है, कोई संविधान, कोई न्यायालय, कोई सरकार उसे रोक सकने में समर्थ क्यों नहीं हो पाती ? हमें साम्यवादी, जनवादी, राजतांत्रिक और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की समीक्षा कर एक ऐसी नयी व्यवस्था बनाने की आवश्यकता है जिसमें अनुशासन की कठोरता हो, सैद्धांतिक दृढ़ता हो, राष्ट्रीय मूल्यों का सम्मान हो और लोककल्याण के लिए समर्पण हो अन्यथा हमें अभी और भी कई हिंसापूर्ण विभाजनों को होते हुये देखना ही पड़ेगा ।
कभी-कभी चौड़े सीने से वे काम नहीं हो पाते जो बहुत छोटी-छोटी आँखों से हो जाते हैं । उसकी आँखें भले ही बहुत छोटी हों पर उनकी दूरदृष्टि की क्षमता की प्रशंसा करनी होगी । छोटी आँखों वाले चीनियों पर तानाशाही का ठप्पा लगा हुआ है पर क्या यह सच नहीं कि वह ठप्पा लोकतंत्र के कागजी फूलों की अपेक्षा कहीं अधिक व्यावहारिक और लोककल्याणकारी है ! वहाँ का सरकारी तंत्र अपराधियों को बचाने के लिए निर्लज्ज होकर सारी मर्यादायें नहीं लाँघता, सीधे गोली मार देता है । यहाँ तो यौनदुष्कर्म करने वाले अपराधियों का इनकाउंटर करने वाले पुलिस अधिकारी को ही जेल में ठूँस दिया जाता है (बंगलुरु की घटना)।
हमारी स्वेच्छाचारी लोकतांत्रिक व्यवस्था हमें हर दृष्टि से अपंग, पराश्रित और स्वाभिमानशून्य बना रही है, हम न जी पाने की स्थिति में होते हैं और न मर पाने की स्थिति में, हम केवल तड़पते और सुलगते हुये ही रह पाते हैं जीवन भर ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.