बहत्तर वर्ष के सीताराम येचुरी ने आज देहत्याग कर किसी “धर्मविहीन अनीश्वरीय-सत्ता के राज्य” में प्रवेश हेतु प्रस्थान किया । मार्क्सवादी परिवार के सॉफ़्ट कामरेड दुःखी हुये, हार्ड कामरेड भीतर ही भीतर प्रसन्न हुये । मैं उनका आलोचक रहा हूँ किंतु उनके महादानी होने का प्रशंसक भी हूँ । देहदान से बड़ा दान और कुछ नहीं हो सकता, यह अनुकरणीय है और प्रशंसनीय भी ।
दृश्य-श्रव्य
संचार माध्यमों पर लोगों की कटु टिप्पणियाँ मार्क्सवादी ब्राह्मण के जीवन का
मूल्यांकन कर रही हैं । मृत्यु के समय लोगों की अप्रिय टिप्पणियाँ मृतक के जीवन भर
की यात्रा का मूल्यांकन करती हैं । सामान्यतः किसी की मृत्यु पर समाज में मिथ्या
प्रशंसा करने की लौकिक परम्परा रही है, कटु-टिप्पणियों का प्रचलन नहीं रहा, किंतु यदि यह है तो गम्भीर बात है । रावण, हिरण्यकश्यपु, दुर्योधन आदि की मृत्यु पर
आमजनता दुःखी नहीं हुई, प्रसन्न हुई थी ।
अर्थशास्त्री
सीताराम येचुरी जी न सीता के थे, न राम के थे वे तो केवल
मार्क्स के थे । भारतीय दर्शनों की अपेक्षा कार्ल हेनरिख मार्क्स के दर्शन ने
उन्हें प्रभावित किया । पता नहीं उन्होंने भारतीय दर्शन कभी पढ़े भी थे या नहीं, किंतु मेरा विश्वास है कि यदि उन्होंने पढ़े होते तो आज वे भारत के
बहुत सफल और सम्माननीय नेता होते ।
किशोरावस्था
में येचुरी जी के भीतर ब्राह्मणत्व (सामाजिक न्याय के लिए परिवर्तन) की जो चिंगारी
थी उसने मार्क्स से अपना हव्य प्राप्त किया, जे.एन.यू. में दिशा प्राप्त की और आपातकाल में बंदी होकर भड़क
उठी ।
कार्ल
मार्क्स के कठोर एवं अव्यावहारिक साम्यवाद ने एक ब्राह्मण की दिशा बदल दी, वह धर्मद्वेषी होकर धर्मनिरपेक्षवादी हो गया और फिर एक दिन
भारतीय मूल्यों का विरोधी भी हो गया । येचुरी भारत को जर्मनी और चीन बनाने की दिशा
में आगे बढ़ चले । फिर एक समय ऐसा भी आया जब साम्यवादी देश टूटने और बिखरने लगे, उन्हें पूँजीवादी देशों की आर्थिक उदारता के सिद्धांतों को स्वीकार
करना पड़ा । निजीकरण और आर्थिक उदारीकरण येचुरी के सामने दो बहुत बड़ी चुनौतियाँ रहीं
जिनके कारण वे सी.पी.आई.एम. के कठोरतावादी कामरेड्स से वैचारिक और सैद्धांतिक सामंजस्य
नहीं बना सके । आपातकाल में जिस कांग्रेस ने उन्हें बंदी बनाया और जिसके कारण उनकी
पीएच.डी. कभी पूरी नहीं हो सकी उसी कांग्रेस से गठबंधन के पक्षधर रहे येचुरी अपने राजनीतिक
जीवन में दक्षिणपंथी शक्तियों को साम्प्रदायिक और मानवताविरोधी मानते रहे । उन्होंने
जीवन भर स्वयं को धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील विचारक के रूप में स्थापित करने का प्रयास
किया ...और यही उनका सैद्धांतिक भटकाव रहा ।
सामाजिक न्याय
और आर्थिक समानता जैसे शब्द बहुत लुभावने और न्यायपूर्ण लगते हैं किंतु इन्हीं शब्दों
का ध्वज लेकर चलने वाले लोग एक दिन सामाजिक अन्याय और आर्थिक असमानता के प्रतीक बनते
चले जाते हैं । लेनिन और स्टालिन इसके ऐतिहासिक उदाहरण हैं । काश! सीताराम येचुरी
मार्क्स की अपेक्षा श्रीराम के होते तो वंचितों, दलितों, कृषकों और वनवासियों के लिए
वास्तविक धरातल पर वह सब कुछ कर पाते जो वे करना चाहते थे ।
अमर उजाला
ने लिखा – “वामपंथ के युगदृष्टा का निधन; ख़ामोश हो गयी वंचितों, दलितों, किसानों और आदिवासियों की आवाज”।
किसी भी राजनीतिक
व्यक्ति के लिए इतने भारी-भारी शब्दों का प्रयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए
अन्यथा यह प्रयोग जनता में मिथ्या संदेश और भ्रम का कारण बनता है । वंचितों, वनवासियों, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों
की शक्ति के प्रतीक तो श्रीराम और श्रीकृष्ण थे । कर्मयोगीश्रीकृष्ण से बड़ा भी कोई
साम्यवादी हुआ है आज तक !
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