शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

लपटें फ़्रांस में, आँच भारत में...

कट्टरता की अभिव्यक्ति बनाम हत्या की स्वतंत्रता ने फ़्रांस ही नहीं पूरे योरोप को झकझोर दिया है । कई क्रांतियों के बाद योरोप में एक दीवार बनायी गयी थी जो सत्ता और धर्म को एक-दूसरे से अलग करती है । कुछ विदेशियों द्वारा उस दीवार को ढहाने के प्रयास किये जाते रहे हैं । यह प्रयास सत्ता पर धर्म के वर्चस्व को एक बार फिर से बहाल करने के अभियान का एक हिस्सा है ।

फ़्रांस की घटनाओं पर भारत के वे लोग उद्वेलित हैं जो सनातनधर्मियों के देवी-देवताओं पर किये जाने वाले अपमानजनक कुकृत्यों पर सदा चुपचाप बने रहते हैं या फिर इसे कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते रहे हैं । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, क्रिएटिव आर्ट और क्रिटिक के नाम पर श्रीकृष्ण, माँ काली, माँ सरस्वती, गणेश, शिव और ब्रह्मा आदि को लेकर सोशल मीडिया पर न जाने कितनी अश्लील कहानियाँ लिखने, उन्हें अश्लील गालियाँ देने और उनके आपत्तिजनक चित्र बनाने के अतिरिक्त सामूहिक प्रदर्शनों में उनके चित्रों पर थूकने और जूते मारने की घटनाओं के अनवरत सिलसिलों पर चुप रहने वालों को यह नैतिक अधिकार नहीं है कि वे फ़्रांस की घटनाओं पर भारत में हंगामा करें और भारत सरकार के निर्णय के विरुद्ध बगावत करें । सनातनधर्मी युवा पीढ़ी बड़ी हैरत से देखती है कि आख़िर अभिव्यक्ति की आज़ादी को भारत में क्यों नहीं है अभिव्यक्ति की आज़ादी ! क्यों यह आज़ादी कुछ आम लोगों से छीनकर कुछ ख़ास लोगों को सौंप दी गयी है !

कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति फ़्रेंच व्यंग्य पत्रिका शार्ली हेब्दो (फ़्रेंच उच्चारण - च्शर्लि एब्दो) के तरीकों का समर्थन नहीं कर सकता । मैं उन व्यंग्य कार्टूंस की बात कर रहा हूँ जो इस पत्रिका में इस्लामिक समाज के रीफ़ॉर्मेशन के उद्देश्य से प्रकाशित किये गये थे ...और जिन्होंने पूरे मुस्लिम समाज को उद्वेलित कर दिया है । माना कि गम्भीर विषय पर विमर्श के लिये व्यंग्य भी एक मान्य विधा के रूप में समाज में न जाने कबसे प्रचलित है किंतु व्यंग्य गुदगुदाते हुये चिकोटी काटता है और मस्तिष्क को कुछ सोचने के लिये बाध्य करता है । व्यंग्य का उद्देश्य समाज में व्याप्त मनुष्य जीवन की विसंगतियों और कुप्रथाओं से मुक्त होने और रीफ़ॉर्मेशन के लिये लोगों को प्रेरित करना है । मन को पीड़ा देना और भावनाओं को उद्वेलित करना व्यंग्य की मर्यादा से परे है । च्शर्लि एब्दो ने व्यंग्य की मर्यादाओं का उल्लंघन किया और हिंसा का शिकार हुआ फिर उल्लंघन किया ...और फिर हिंसा का शिकार हुआ । किंतु इस सिलसिले और च्शर्लि एब्दो की इस बगावत को समझने के लिये  हमें कुछ और पीछे जाना होगा ।

 

च्शर्लि एब्दो फ़्रांस की सेक्युलरिस्ट और एंटीरिलीजियस साप्ताहिक कार्टून पत्रिका है जो वहाँ प्रचलित कैथोलिसिज़्म, ज़ूडाइज़्म और इस्लाम के धर्मावलम्बियों पर कटाक्ष करती रही है । फ़्रेंच रिवोल्यूशन के बाद धर्म को महत्व न देने वाले नवनिर्मित फ़्रांस में च्शर्लि एब्दो का प्रकाशन सन् 1969 में प्रारम्भ हुआ । प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही फ़्रांस ही नहीं पूरे योरोप में राजसत्ता पर धर्म के वर्चस्व को समाप्त करने के प्रयास किये जाते रहे हैं । यह पत्रिका उन्हीं प्रयासों का एक हिस्सा थी । प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व तक योरोप के राज्यों पर चर्च के प्रभुत्व से उत्पन्न भ्रष्टाचार और अराजकता से जनता त्रस्त रहा करती थी । राजा की अपेक्षा चर्च कहीं अधिक शक्तिशाली हो गये थे, योरोप की जनता इस अराजक स्थिति से मुक्त होना चाहती थी, मुक्त हुयी भी किंतु कोई भी विचार कभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाया करता । कुछ लोग अभी भी ऐसे थे जो राज्य पर धर्म के वर्चस्व के पक्ष में थे । ऐसे लोगों में वैचारिक आंदोलन का सूत्रपात करने के लिये च्शर्लि एब्दो जैसी पत्रिकाओं ने व्यंग्य का सहारा लिया । अभिव्यक्ति और वैचारिक आंदोलन का यह उनका अपना तरीका था ।

 

योरोप में तो सामाजिक क्रांतियों ने सत्ता और धर्म के रास्ते अलग-अलग कर दिये किंतु एशिया में धर्म ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करनी प्रारम्भ कर दी । इस्लाम का नाम लेकर और अल्लाह-हो-अकबर के नारों के साथ दुनिया भर में क्रूर हिंसायें और युद्ध होते रहे । कुछ लोग मरते और अपमानित होते रहे ...और बहुत से लोग केवल तमाशा देखते रहे । इसी बीच योरोप में अरबी खेल तहर्रुश गेमिया ने भी प्रवेश किया जिसने ज़र्मनी और फ़्रांस सहित पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था । फिर एक समय आया जब इस्लाम को लेकर दुनिया भर में एक स्वस्थ बहस की आवश्यकता महसूस की गयी । दुर्भाग्य से इतने गम्भीर विषय पर चर्चा के लिए कार्टून और व्यंग्य को माध्यम चुना गया । डेनमार्क ने इसका बीड़ा उठाया और “क्रिटिसिज़्म ऑफ़ इस्लाम” और “सेल्फ़ सेंसरशिप” पर एक बहस प्रारम्भ करने के प्रयास में डैनिश समाचार पत्र ज़िल्लैण्ड्स पोस्टेन ने सितम्बर 2005 में पैगम्बर पर कुछ कार्टून प्रकाशित किये जिसका डेनमार्क के मुस्लिम समुदाय सहित दुनिया भर के मुस्लिम देशों द्वारा न केवल कड़ा विरोध किया गया बल्कि कई जगह तो धार्मिक दंगे भी हुये । ज़िल्लैण्डस पोस्टेन की परम्परा को आगे बढ़ाते हुये च्शर्ली एब्दो ने भी 2011 में पैगम्बर को लेकर कई कार्टून प्रकाशित किये जिस पर पत्रिका के कार्यालय में तोड़फोड़ हुयी । पत्रिका ने पुनः 2012 में पैगम्बर पर कार्टून प्रकाशित किये जिस पर पुनः तोड़फोड़ और हिंसा हुयी ।

फ़्रांस के समाज और संविधान में धार्मिक कट्टरवाद के लिये कोई स्थान नहीं है । धर्म फ़्रांस के नागरिकों के लिये व्यक्तिगत विषय है जिसे सार्वजनिक किया जाना संविधानसम्मत नहीं है । च्शर्लि एब्दो एक वामपंथी पत्रिका है जिसकी दृष्टि में धर्म मनुष्य जीवन के लिये एक आवश्यक विषय नहीं है । तो क्या डेनमार्क और फ़्रांस में प्रकाशित किये गये कार्टून्स ने कम्युनिज़्म और परम्परावादियों को आमने-सामने ला कर खड़ा कर दिया है ?

 

घोषणा फ़्रांस में, हंगामा भारत में...

 

भारतीय मुसलमानों ने मुम्बई की सड़कों पर जुलूस निकालने से पहले फ़्रांसीसी राष्ट्रपति के चित्रों को सड़क पर चिपका दिया जिससे आने जाने वाले लोग अपने जूतों से राष्ट्रपति के चेहरे को रौंदते हुये निकल सकें । फ़्रांस के राष्ट्रपति को अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं देते भारत के मुसलमान ।

फ़्रांस के राष्ट्रपति के विरुद्ध अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बरेली, मुम्बई और भोपाल में मुसलमानों के उग्र प्रदर्शन ने प्रमाणित कर दिया है कि भारत के बहुसंख्य मुसलमानों की नीतियाँ भारत सरकार की विदेश नीतियों के विरुद्ध हैं । भारत का संविधान इस तरह के विरोध प्रदर्शन को बगावत मानता है ।

भारतीय मूल के भारत विरोधी डॉ. ज़ाकिर नाइक ने घोषणा कर दी है कि अल्लाह के बंदे को गाली देने वाले को दर्दनाक सज़ा मिलेगी । यानी ज़ाकिर नाइक किसी भी देश के संविधान को चैलेंज कर सकते हैं और क़ानून अपने हाथ में ले सकते हैं ।  

पाकिस्तान के राजनेता उबल रहे हैं, वे अपने प्रधानमंत्री से कह रहे हैं कि फ़्रांस पर एटम बम फेको ।

टर्की के एर्दोगन ने जहाँ गुस्से में आकर कह डाला कि फ़्रांस के राष्ट्रपति के दिमाग की जाँच करायी जाय वहीं ईरान ने तो फ़्रांस के राष्ट्रपति का चित्र ही शैतान का बना डाला ।

आख़िर क्यों भारतीय टीवी चैनल पर किसी एंकर को इस्लामिक स्कॉलर इलियास शराफ़ुद्दीन से गाली न देने के लिये बारम्बार निवेदन करना पड़ता है इसके बाद भी इस्लामिक विद्वान गाली देने से बाज नहीं आता ? अभिव्यक्ति की यह कैसी आज़ादी है जिसे अल्लाह ने सिर्फ़ कुछ लोगों को ही दी है बाकी लोगों को बिल्कुल भी नहीं ?

नमाज के बाद की जाने वाली दुआ – “अल्लाह हमें क़ौम-उल-क़ाफरीन पर फतह अता करे” से दुनिया के ग़ैरमुस्लिम लोग कैसे महफ़ूज़ रह सकेंगे ? यह कैसी नैतिकता है जो “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” गीत गाने के बाद मज़हब के लिये अपनी मातृभूमि से बगावत करके पाकिस्तान जाकर बस जाने की अनुमति दे देती है ।

 

फ़्रांस के लोग भयभीत हैं कि कहीं उनके राष्ट्रपति ने धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध कड़े कदम उठाये जाने की आवश्यकता बता कर दुनिया भर के कट्टर मुसलमानों को एकजुट होने का अवसर तो नहीं दे दिया है ।

 

फ़्रेंच समाज की चिंता फ़्रेंच रिवोल्यूशन के बाद 1905 में ही फ़्रांस में एक ऐसे खुले समाज का उदय हुआ जिसमें राज्य पर चर्च के प्रभुत्व को समाप्त कर दिया गया । साल 1945 में संविधान में इस पृथक्त्व का प्रावधान करके इसे फ़्रांसीसी समाज के अधिकारों में सम्मिलित कर दिया गया । इसीलिये फ़्रांस के लोग सत्ता पर धर्म के वर्चस्व को फिर से स्थापित नहीं होने देने के लिये दृढ़ संकल्पित हैं ।  

फ़्रांस के खुलेपन का सामाजिक मूल्य फ़्रांस ने खुले दिल से सभी धर्मों को अपने यहाँ रहने और काम करने की आज़ादी दी ...लोगों को अपने धर्मानुसार जीवनयापन की आज़ादी दी जो आगे चलकर उनपर भारी पड़ने लगी । फ़्रांसीसी लोगों ने अपने समाज में नवागंतुक विदेशियों के व्यक्तिगत आचरण की सामाजिक अभिव्यक्ति को ही नहीं बल्कि सत्ता से अपनी धार्मिक पहचान एवं आवश्यकताओं की अपेक्षाओं से उत्पन्न अंतर्विरोधों का भी अनुभव किया । फ़्रांस में आये विदेशी मुसलमानों ने अपने दीन के अनुसार स्थानीय समाज में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया । प्रारम्भ में उन्होंने अपेक्षायें कीं कि उन्हें उनके दीन के अनुसार मदरसे खोलने और दीनी तालीम देने की आज़ादी दी जाय, स्थानीय विद्यालयों में उनकी अलग पहचान बनाये रखी जाय और उन्हें उनके मज़हब के ही अनुसार खाना दिया जाय, उन्हें नमाज़ के लिये स्कूल्स और कार्यालयों में अलग स्थान उपलब्ध करवाया जाय । कुल मिलाकर नवागंतुक विदेशियों ने फ़्रांस के समाज में अपनी अलग पहचान स्थापित करने और उसका विस्तार करने का प्रयास किया जिसके कारण फ़्रांसीसी समाज का वह ढाँचा जो फ़्रेंच रिवोल्यूशन के बाद बना था दरकने लगा । यह स्थानीय लोगों में एक बेचैनी का कारण बना और उनके धर्मनिरपेक्ष सामाजिक ढाँचे की पहचान पर संकट मँड़राने लगा । अब फ़्रांस के ग़ैरमुस्लिम समाज को यह सोचने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है कि क्या उनका खुलापन वाकई उनके लिये अभिषाप बन गया है ? 


गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

हाथ में छुरे के साथ अल्ला-हू-अकबर का नारा...

पिछले कुछ वर्षों से फ़्रांस में धार्मिक कट्टरवाद एक ज्वलंत विषय बन गया है । नये घटनाक्रम में एक बार फिर अल्ला-हू-अकबर के नारों के साथ फ़्रांस में नीस शहर की नोत्रे दम चर्च के बाहर तीन लोगों की गला काटकर हत्या कर दी गयी और कई लोगों को घायल कर दिया गया । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार मानते हुये छात्रों को प्रेरित करने के उद्देश्य से इस्लाम के नबी का कार्टून बनाने वाली फ़्रांसीसी शिक्षक की भी एक अठारह साल के चेचेन युवक ने लगभग एक माह पूर्व हत्या कर दी थी । भारत के कई मौलाना और इस्लामिक स्कॉलर्स इन हत्याओं के समर्थन में पूरे जोर-शोर से खड़े हो गये हैं । इन लोगों को इस बात से भी ऐतराज़ है कि उन्हें कट्टरवादी या आतंकवादी कहकर सम्बोधित न किया जाय ।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत में हिंदू देवी-देवताओं के अपमान के नये-नये अपकीर्तिमान स्थापित होते रहते हैं, हवायें ख़ामोश रहती हैं ...गोया मर गयीं हों और इस ख़ामोशी पर अक्सर अतिबुद्धिजीवी लोग चीखते रहते हैं कि भारत में हिंदू आतंकवाद फैल गया है ।    

फ़्रांस के प्रधानमंत्री ने धार्मिक कट्टरवाद के विरुद्ध कठोरता से कार्यवाही करने का संकल्प लिया है जिस पर भारत के मौलानाओं और पाकिस्तान की संसद में हंगामा बरपा है, वहीं भारतीय मूल के मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महाथिर बिन मोहम्मद ने “शांति और भाईचारा” वाला एक उग्र वक्तव्य दे कर फ़्रांस में लाखों लोगों का क़त्ल कर दिये जाने की आवश्यकता बतायी है । पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने संसद में फ़रमाया कि फ़ांस के राष्ट्रपति इम्मैनुअल मैक्रॉन में नरेंद्र मोदी की रूह आ गयी है ।

टीवी डिबेट में फ़्रांस में हुयी हत्या के भारतीय समर्थक मौलाना अली क़ादरी से जब यह पूछा गया कि इन कट्टरपंथियों को आम नागरिकों की हत्या करने का अधिकार किसने दिया, तो उनका स्पष्ट उत्तर था कि उन्हें यह अधिकार उनके दीन ने दिया है । यानी मौलाना अली क़ादरी के अनुसार उनके नबी की शान में ग़ुस्ताख़ी करने वालों का क़त्ल कर देना मुसलमानों का दीनी अधिकार है । मौलाना ने गुस्से में कहा कि दुनिया भर में कहीं भी ऐसी ग़ुस्ताख़ियों को मुसलमान हर्गिज़ बर्दाश्त नहीं करेंगे ।

यह वही फ़्रांस है जिसने ज़र्मनी की तरह पिछले कुछ सालों में तमाम विदेशियों को अपने देश में समय-समय पर शरण दी है और अब आज ज़र्मनी की तरह वह भी अपनी दरियादिली का ख़ामियाज़ा भुगत रहा है । क्या इसका यह अर्थ निकाला जाय कि हर दुःखी और मज़लूम व्यक्ति दया का पात्र नहीं हुआ करता । चौदहवीं शताब्दी में कश्मीर के तत्कालीन राजा ने एक विदेशी नागरिक शाह मीर को अपने यहाँ शरण दी थी जो 1339 में शरणार्थी से राजा बन गया । बीसवीं शताब्दी में उसी कश्मीर के मूलनिवासी पंडितों को उनकी ही मातृभूमि में शरणार्थी बना दिया गया और भारत की स्वदेशी सरकार उनके नागरिक अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकी । रंक ने राजा के सिंहासन पर अधिकार कर लिया और उस राज्य के समृद्ध लोगों को भिखारी बना दिया । भारत के निवासी राजदीप सर देसाई, प्रशांत भूषण, बरखा दत्त, शोभा डे और अरुंधती राय जैसे अतिबुद्धिजीवी लोग कश्मीरी पंडितों और सिखों को नहीं बल्कि मुसलमानों को कश्मीरी मानते हैं और उनके पक्ष में हर समय अपना ज्ञान परोसने के लिये तैयार रहते हैं ।

यह दरियादिली का नतीज़ा है कि कश्मीरी पंडित शरणार्थी हो गये हैं, ज़र्मनी के लोग तहर्रुश गेमिया की दहशत से परिचित हो गये हैं और फ़्रांस के लोग छुरों से ज़िबह किये जाने का दर्दनाक अनुभव प्राप्त कर रहे हैं ।  

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

भारत में निकिताओं की हत्या का दौर...

इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो हत्या कर दी । काश! भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश न होकर हिंदू देश होता तो बलात् धर्मांतरण की घटनायें न होतीं और न हिंदू लड़कियों की आये दिन हत्यायें होती । 

यह घटना न तो बांग्लादेश की है और न इस्लामिक देश पाकिस्तान की बल्कि धर्मनिरपेक्ष भारत की है जहाँ बल्लभगढ़ में साल 2018 में तौसीफ़ ने निकिता का अपहरण कर लिया था । निकिता के पिता ने पुलिस में रिपोर्ट की थी, पुलिस ने दोनों पक्षों में समझौता करवा दिया था जो कभी व्यवहार में नहीं आ सका । तौसीफ़ ने निकिता पर धर्मांतरण और शादी करने का दबाव बनाये रखना जारी रखा । और आज ...जब निकिता परीक्षा देकर कॉलेज से बाहर से निकली तो पहले से प्रतीक्षारत तौसीफ़ और रेहान ने उसके अपहरण का प्रयास किया । निकिता ने भागने का प्रयास किया तो तौसीफ़ ने दिन-दहाड़े गोली मार कर उसकी हत्या कर दी ।

अब आगे के कार्यक्रम में इस घटना को लेकर टीवी पर डिबेट्स के सिलसिले शुरू होंगे जो अगले कई दिन तक चलेंगे । निकिता की हत्या का राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और डेमोग्राफ़िक विश्लेषण किया जायेगा जिसमें कुछ लोग अगले कई दिन तक छोटे पर्दे पर चीखते हुये दिखायी देंगे और तथ्यों की अपेक्षा छीछालेदर पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाता रहेगा । कुछ लोग विरोधप्रदर्शन करेंगे, जुलूस निकाले जायेंगे, न्याय की माँग की जायेगी । दिनदहाड़े हत्या कर देने वाले आरोपियों के विरोध में कोई सबूत नहीं मिलेंगे जबकि उनके निरपराध होने के कई सबूत मिल जायेंगे । अदालत में मुकदमा दर्ज़ होगा किंतु सबूत के अभाव में आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुये दोषमुक्त कर दिया जायेगा । इसके बाद एक और निकिता का शिकार किया जायेगा, उसके बाद फिर एक और निकिता का ...यह सिलसिला चलता रहेगा ...क्योंकि भारत धर्मनिरपेक्षता की आड़ में पक्षपात करने वाला एक देश है जहाँ हिंदुओं को सम्मानपूर्वक जीने के लिये कोई भी स्थान नहीं है ।

इस्लाम स्वीकार न करने पर भारत में हिंदू लड़कियों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर देने का सिलसिला नया नहीं है । यह सिलसिला थमेगा भी नहीं । भारत के सनातनधर्मियों को अब यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि भारतीय समाज और भारतीय राजनीति की स्थितियाँ सनातन धर्म और सनातनधर्म में संस्कारित नागरिकों, विशेषकर लड़कियों की रक्षा के लिये उपयुक्त नहीं हैं । यह देश विदेशी शासनकाल में भी हिंदू लड़कियों के लिये उपयुक्त नहीं था और आज स्वाधीन होने के बाद भी नहीं है । सनातनधर्मी लड़कियों को भारतीय उपमहाद्वीप के किसी भी देश में सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार नहीं है । भारत एक इस्लामिक देश बनने की ओर बढ़ रहा है और इसे रोकने के लिये हमारे पास दृढ़ इच्छाशक्ति का पूर्ण अभाव है ।

 

बहस चल पड़ी है - भारत में निकिताओं की क्रूर हत्याओं का कारण हमारी सहिष्णुता है या भीरुता?  

निकिता की हत्या पर दो लोगों की त्वरित टिप्पणियाँ उल्लेखनीय हैं –

पहली टिप्पणी गोरखपुर वाले ओझा जी की है – “निश्चित ही भीरुता । स्वाभिमानशून्य समाज की रक्षा ईश्वर भी नहीं कर सकेंगे, भारत को भारत के रूप में समाप्त हो जाना चाहिये” ।

अगली टिप्पणी है मोतीहारी वाले मिसिर जी की – “अपने अस्तित्व पर आये गम्भीर संकट का शौर्यपूर्वक सामना करने के स्थान पर चुप बने रहने की बाध्यता को सहिष्णुता नहीं भीरुता कहते हैं” ।

 

तो क्या अब हमें भयभीत होकर अपनी बच्चियों को शिक्षण संस्थानों में भेजना फिर से बंद करना होगा? तो क्या अब हमें अपनी बच्चियों की रक्षा के लिये फिर से बालविवाह का आसरा लेना होगा ? तो क्या अब हमें घूँघट प्रथा को फिर से ओढ़ना होगा? तो क्या अब हमें जौहर प्रथा अपनाने के लिए फिर से बाध्य होना होगा ? तो क्या अब हमें दबे-कुचले समुदाय के रूप में जीने के लिये फिर से बाध्य होना पड़ेगा ?

राजा ने हमारी ओर से आँखें मूँद ली हैं और न्याय की आँखों में पट्टी बँधी है जिसके कारण हम इन दोनों की दृष्टि से ओझल हैं ।

अशिक्षा, बालविवाह, घूँघट और जौहर से पहले का भारत ऐसा नहीं था । ईसापूर्व तीसरी शताब्दी तक भारत में नारी शिक्षा के जैसे उच्च मानक हुआ करते थे वैसे मानक पूरे विश्व में और कहीं नहीं थे । वेद पारंगत विदुषी ब्रह्मवादिनियों द्वारा रची गयीं ऋचायें प्राचीन भारत में नारियों की स्थिति को गौरवान्वित करती हैं । गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, और विश्ववारा का भारत अब कहीं नहीं है । उस तरह के भारत को फिर से निर्मित करने का संकल्प भी अब कहीं नहीं है । स्वाधीनता के बाद हमने कैसा भारत गढ़ा है ?

सनातनधर्मी नारियों के लिये आधुनिक भारत के निर्बल समाज में कहीं कोई सुरक्षित स्थान दिखायी नहीं देता । क्या उन्हें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी ...या फिर निकिता और निर्भया की तरह नारकीय यंत्रणा भोगते हुये कभी भी, कहीं भी मर जाने के लिये तैयार रहना होगा ?   


शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

पारिजात की निर्मम हत्या

कल विद्युत विभाग के कर्मचारियों ने पॉवर मैंटीनेंस के नाम पर मेरे प्रिय मित्र पारिजात की निर्मम हत्या कर दी । खेत में उसका क्षत-विक्षत शरीर देखकर मैं दुःख और रोष से भर उठा । वह मेरा मित्र था, वह एक बहुत अच्छा डॉक्टर था, वह कन्नौज के इत्र वालों का कच्चा माल था, वह परिंदों का एक मोहल्ला था, वह क्या नहीं था!

धरती से आसमान की ओर दस फ़िट ऊपर उठकर अपनी बाहें फैलाते हुये अनजान परिंदों को बुलाकर आश्रय देने वाले मेरे मित्र से किसी को भला क्या ख़तरा हो सकता था! पारिजात की फैली बाहों से बिजली के तारों की ऊँचाई अभी भी लगभग पंद्रह फ़िट दूर थी । विद्युत विभाग के कर्मचारियों ने मुझसे कुछ भी पूछने या सूचना देने की भी आवश्यकता नहीं समझी थी और मेरे खेत में खड़े मात्र चार साल की उम्र वाले पारिजात की कुल्हाड़ी से काटकर निर्मम हत्या कर दी ।

मुझे मालुम है कि आज वे तमाम लोग भी मेरी ही तरह बहुत दुःखी होंगे जो कभी धरती पर बिखरे पारिजात के मदहोश कर देने वाले नन्हें पुष्पों को चुनकर ख़ुश होते रहे होंगे, या जिन्होंने ज्वर में तपती अपनी बिटिया को उसके पत्तों का रस पिलाकर बिटिया के ज्वर को शांत किया होगा, या जिन्होंने सियाटिक शूल से पीड़ित और तमाम इलाज़ करवाकर थक चुकने के बाद पारिजात के पत्तों का रस पिलाकर अपने वृद्ध माता-पिता की पीड़ा को दूर किया होगा, या जिन्होंने न्यूराइटिस या डायबिटिक न्यूरोपैथी से पीड़ित किसी व्यक्ति की पीड़ा का शमन पारिजात के पत्रस्वरस पिलाकर किया होगा, या जिन्होंने एलोपेसिया में पारिजात के बीजों का लेप करके रोग से मुक्ति पायी होगी

मुझे मालुम है कि आज आसमान में उड़ते हुये तमाम परिंदों ने जब उन्हें आमंत्रित करने वाले पारिजात को खेत में धराशायी देखा होगा तो वे कितने दुःखी हुये होंगे!

मुझे मालुम है कि मेरे मोहल्ले के बच्चों को पारिजात के भीनी ख़ुश्बू वाले नन्हें पुष्प चुनने का अवसर अब कभी नहीं मिलेगा ।   

मेरा आत्मीय मित्र पारिजात यानी परिंदों को आश्रय देने के लिए सदा तत्पर रहने वाला, हरसिंगार यानी विष्णु की पूजा और श्रंगार के लिये पुष्प देने वाला, नाइट ज़ास्मीन यानी रात में अपनी भीनी सुगंध से पूरे मोहल्ले को सराबोर कर देने वाला, निक्टेंथस अर्बोरट्रिस्टिस यानी रात में चुपके से नारंगी बिंदी वाले सफेद फूलों को धरती पर बिखेर देने वाला हम सबका प्रिय मित्र अब हमारे बीच नहीं रहा । मुझे नहीं पता कि विद्युत विभाग के कर्मचारियों को इस तरह की स्वेच्छाचारिता और किसी मेडीसिनल प्लांट की निर्मम हत्या कर देने की खुली छूट किसने दी है ? 

कल मेरे मित्र की हत्या की शोकसभा है । कल मैं अपने खेत पर अपने प्रिय मित्र के क्षत-विक्षत शरीर के पास बैठकर उसकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करूँगा । 


डार्क मैटर – महाशक्ति का अदृश्य भंडार

कोरोना विषाणु के सम्बंध में अभी तक जितनी भी जानकारियाँ विषय विशेषज्ञों द्वारा दुनिया को दी गयी हैं उनमें परिवर्तनशीलता के साथ-साथ विरोधाभासी तत्वों की बाहुल्यता रही है । अत्याधुनिक उपकरणों और संसाधनों से युक्त दुनिया भर की प्रयोगशालायें कोरोना के सम्बंध में अपनी ही खोजी हुयी सूचनाओं का अगले ही दिन खण्डन करती रही हैं । विज्ञान ही विज्ञान का खंडन करता रहा है, विज्ञान ही विज्ञान को नकारता रहा है । कोरोना के सत्य को प्रकाशित करने के स्थान पर विज्ञान ही जनमानस को दिग्भ्रमित करता रहा है । 

इस लेख का प्रतिपाद्य विषय कोरोना-विषाणु और डार्क-मैटर के प्रसंग में ज्ञान और विज्ञान के मूलभूत अंतर को समझना है ।   

ज्ञान व्यापक और सार्वकालिक होता है, विज्ञान संख्यादेशज और कालापेक्षी होता है । ज्ञान अपौरुषेय है, विज्ञान पौरुषेय है । ज्ञान तब भी था जब विज्ञान नहीं था । विज्ञान मानव सभ्यता के साथ उदित और अस्त होता है । ज्ञान पूर्ण है इसलिए उसे विकसित नहीं किया जा सकता जबकि विज्ञान अपूर्ण होने से विकसित किया जाता है । ज्ञान अपरिवर्तनीय है इसलिये क्षरित नहीं होता । विज्ञान परिवर्तनीय है इसलिये क्षरण स्वभाव वाला होता है । ज्ञान भौतिक प्रमाणों से परे का विषय है जबकि विज्ञान भौतिक प्रमाणों के सहारे ही आगे बढ़ता है ।   

ईश्वर का कोई भौतिक प्रमाण नहीं है इसलिए विज्ञानवादी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । किंतु आश्चर्यजनकरूप से डार्क-मैटर और डार्क-एनर्ज़ी का भी अभी तक कोई भौतिक प्रमाण नहीं पाया गया है तथापि विज्ञानवादी उसकी सत्ता को स्वीकार करते हैं ।

विज्ञानवादियों के अनुसार ईश्वर एक काल्पनिक विषय है जिसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता । डार्क-मैटर और डार्क-एनर्ज़ी भी काल्पनिक विषय हैं तथापि विज्ञानवादी उसके वास्तविक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं ।

संख्या का भी स्वयं में कोई अस्तित्व नहीं होता किंतु दृश्य जगत की गणना के लिए संख्या की हाइपोथेटिकल मध्यस्थता अनिवार्य है । संख्याओं के सहारे की गयी गणना से ही वैज्ञानिकों को डार्क-मैटर और डार्क-एनर्ज़ी के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए प्रमाण उपलब्ध हो सके हैं यानी सकल ब्रह्माण्ड के 95 भाग की उपस्थिति का प्रमाण अनुमान पर आधारित है ।

हाइपोथीसिसि एक मानसिक रचना प्रक्रिया है जिसके अभाव में किसी भी वैज्ञानिक गतिविधि का प्रारम्भ ही असम्भव है । यह सकल ब्रह्माण्ड भी ब्रह्म की मानस रचना है, एकोऽस्मि बहुस्यामः, एक हूँ बहुत हो जाऊँ  ...अ हाइपोथेटिकल क्रिएशन । फ़्रॉम वन टु मल्टी, अद्वैत से द्वैत ...यहाँ भी गणीतीय संख्यायें हमें चमत्कृत करती हैं ।

भौतिक प्रमाणों के सहारे आगे बढ़ने वाले आधुनिक विज्ञानवादियों द्वारा दृष्टव्य से परे अदृष्टव्य की सत्ता को सैद्धांतिकरूप से स्वीकार करना यानी दृश्य ब्रह्माण्ड (ऑब्ज़रवेबल मैटर एण्ड एनर्जी) से परे अदृश्य ब्रह्माण्ड (नॉनऑब्ज़रवेबल मैटर एण्ड एनर्ज़ी) की सत्ता को सत्य मान लेना कितना विरोधाभासी और आश्चर्यजनक है !

हम उस अदृश्य डार्क-मैटर और डार्क-एनर्ज़ी की बात कर रहे हैं जो सकल ब्रह्माण्ड का 95 प्रतिशत भाग बनाते हैं और जिनकी उपस्थिति की व्याख्या वर्तमान पैरामीटर्स और सिद्धान्तों से नहीं की जा सकती । इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फ़ील्ड्स और डार्क मैटर्स का एक-दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं होता इसलिए इन्हें भौतिक संसाधनों से डिटेक्ट कर पाना भी सम्भव नहीं होता ।  

एस्ट्रोफ़िज़िकल ऑब्ज़रवेशंस के द्वारा डिस्क शेप आकाशगंगाओं के इलिप्टिकल विस्तार का प्रमाण मिलता है । गैलेक्सी के रोटेशन कर्व से अनुमान किया जाता है कि वहाँ आकर्षण-विकर्षण और अवरोध उत्पन्न करने वाली कोई अदृश्य सत्ता उपस्थित होनी चाहिये, भले ही वह सत्ता अभी तक डिटेक्टेबल नहीं हो सकी है । अनुमान है कि इस अदृश्य सत्ता के घटक सब-एटॉमिक पार्टिकल्स हो सकते हैं । कदाचित ये वीकली इंटरएक्टिंग मास्सिव पार्टिकल्स हैं जो गैलेक्सी रोटेशन कर्व के लिये उत्तरदायी हो सकते हैं । अनुमान है कि आकाशगंगाओं का यह विस्तार उस अदृश्य मैटर के कारण ही सम्भव है जिसे डार्क-मैटर की संज्ञा दी गयी है ।

ब्रह्माण्ड की कुल मास-एनर्ज़ी के घटकों में सम्मिलित हैं – 5% सामान्य मैटर और ऊर्जा; 27% डार्क-मैटर एवं 68% डार्क-एनर्ज़ी । इस तरह डार्क-मैटर ब्रह्माण्ड के कुल मास का 85% भाग है जबकि कुल मास-इनर्ज़ी में डार्क-इनर्ज़ी एवं डार्क-मैटर की सहभागिता 95% है ।

विज्ञानवादी स्वीकार करते हैं कि ब्रह्माण्ड का 95 प्रतिशत भाग अदृश्य है और अनुमान एवं गणितीय तथा एस्ट्रोफ़िज़िकल ऑब्ज़रवेशंस पर आधारित है । ये तथ्य परिवर्तनशील हैं । ईश्वर भी अदृष्य और अनुमान प्रमाण पर आधारित एक नियामक सत्ता है ...और यह तथ्य परिवर्तनशील नहीं है ।

सब-एटॉमिक पार्टिकल्स से लेकर विराट दृश्य जगत और फिर अदृश्य जगत के घटक डार्क-मैटर एवं डार्क-एनर्ज़ी के होने एवं संचालित होने की आश्चर्यजनक सुव्यवस्था का कोई व्यवस्थापक तो होना ही चाहिये न!

ब्रह्माण्ड की सुव्यवस्था अपरिवर्तनीय है, जो अपरिवर्तनीय है वही शुद्ध ज्ञान है ।

कोरोना वायरस से सम्बंधित अभी तक खोजे गये तथ्य परिवर्तनीय हैं, जो परिवर्तनीय है वही विज्ञान है ।       


रविवार, 18 अक्टूबर 2020

एक पिटीशन, नो रिलीजन...

मोतीहारी वाले मिसिर जी इंसानी दुनिया के सभी लौकिक धर्मों को समाप्त कर दिये जाने के पक्ष में हैं । यह पहली बार नहीं है जब इस विषय पर उनसे हमारी गम्भीर चर्चा हुयी है । गोरखपुर वाले ओझा जी भी सदा की तरह उन्हीं के साथ खड़े दिखायी देते हैं । बल्कि आज तो उन्होंने एक कदम और आगे बढ़कर यहाँ तक कह दिया कि यदि आप शांति, स्वास्थ्य और सुख चाहते हैं तो आपको दुनिया के समस्त अत्याधुनिक संसाधनों से विरत होना ही होगा । मैंने जानना चाहा कि क्या वे विज्ञान और अत्याधुनिक तकनीकी उपकरणों को समाप्त कर दिये जाने की ओर संकेत कर रहे हैं, तो उन्होंने कहा – “हाँ! मैं चाहता हूँ कि मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता समाप्त हो और वह आत्मनिर्भर एवं पुरुषार्थी बने । हम एक नकारात्मक और पंगु सभ्यता के विकास की होड़ में लगे हुये हैं” ।

धर्म के वर्चस्व को लेकर दुनिया भर में पहले भी विनाशकारी युद्ध होते रहे हैं । आज हम पुनः आर्मीनिया और अज़रबैजान के रूप में क्रिश्चियनिज़्म और इस्लामिज़्म को आमने-सामने एक-दूसरे को तबाह करते हुये देख रहे हैं । धर्म की सुप्रीमेसी को लेकर होने वाले विवादों और युद्धों में धार्मिक ध्रुवीकरण होना इस बात का प्रतीक है कि हम किसी भी “इज़्म” को लेकर कितने दुराग्रही हैं । इस्लामिज़्म के पक्ष मे टर्की, पाकिस्तान और ईरान आदि देश अज़रबैजान के साथ खड़े हो चुके हैं । नागोर्नो-क़ाराबाख़ में कुछ मोर्चों पर आर्मीनियाई सेना को पीछे हटना पड़ा है । युद्ध के नियमों के विरुद्ध दोनों देश एक-दूसरे की बस्तियों पर घातक आक्रमण कर रहे हैं जिससे बड़ी संख्या में दोनों ओर के निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं । अज़रबैजान के सैनिक तो आर्मीनियाई सैनिकों के कटे हुये सिर लेकर वीडियो भी बना रहे हैं । यह धार्मिक उन्माद की क्रूर पराकाष्ठा है ।

मोतीहारी वाले मिसिर जी पहले भी कह चुके हैं कि – “कोई भी लौकिक धर्म कितना ही अच्छा क्यों न हो अपने जन्म के साथ ही विकृति की ओर चल पड़ता है । यह उसी तरह है जैसे कोई जीव जन्म लेने के बाद निरंतर बुढ़ापे और अनिवार्य मृत्यु की दिशा में यात्रा प्रारम्भ कर दिया करता है । भारत में भी धार्मिक उन्माद और धार्मिक वर्चस्व की होड़ एक विनाशकारी पथ पर निरंतर आगे की ओर बढ़ती जा रही है । इसे रोकना होगा अन्यथा महाविनाश को कोई भी रोक नहीं सकेगा ...और इसे रोकने का एक ही मार्ग है – सभी लौकिक धर्मों का अंत” ।

हमने मिसिर जी से पूछा कि क्या वे चीन का अनुसरण करने की बात कह रहे हैं तो उन्होंने कहा- “नहीं, हम स्केण्डेनेवियन कंट्रीज़ के नागरिकों की लौकिक धर्मों पर निर्भरता को अस्वीकार करने वाली सोच की बात कर रहे हैं” ।

शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

आंदोलन – विकास के लिए नहीं, पिछड़ने के लिए...

आंदोलन होते हैं, आग लगायी जाती है, चक्का जाम किया जाता है, मारपीट होती है, गोलियाँ चलती हैं ...आंदोलनकारियों की माँग़ होती है कि उन्हें भी पिछड़ा, दलित, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया जाना चाहिये ..क्योंकि आगे न बढ़कर केवल पीछे जाना उनका अधिकार है । कोपीनधारी और भिक्षुकवृत्ति विप्र विस्मित है ...जाट, गुर्जर, यदु जैसे न जाने कितने राजवंश के लोग आरक्षित होना चाहते हैं, सरकार की बैसाखियों पर चलने के लिए अपनी टाँगें लोड़ देने की गुहार कर रहे हैं ...उन्हें हर हाल में आरक्षण चाहिये । 

स्वाधीन भारत में आंदोलन होते हैं क्योंकि जाटों को आरक्षण चाहिये, पटेलों को आरक्षण चाहिये, गुर्जरों को आरक्षण चाहिये... सबको आरक्षण चाहिये । आंदोलन में क्रांति की धुन होती है, जनधन की हानि होती है, हम आगे बढ़ने के लिए नहीं बल्कि पीछे जाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं । हमें आरक्षण के बल पर सरकारी नौकरी चाहिये, कर्ज़ माफ़ी चाहिये, मुकदमे हटाये जाने चाहिये ...हमें सारी सुविधायें चाहिये ...आरक्षण की योग्यता पर ।

भरतपुर के नीरज गुर्जर शिक्षित नेता हैं, कैमरे के सामने अंग्रेज़ी में बोलकर अपनी योग्यता को फ़ोर्टीफ़ाइड करके पेश करने में दक्ष हैं और चाहते हैं कि सरकार उनके ऊपर पिछड़े होने की मोहर लगा दे । भारत के लोग अद्भुत हैं । राजवंश के लोग प्रजावंश के उत्तराधिकारी बन जाने के लिए अधीर हो रहे हैं । उन्हें संसद और विधान सभा की आरक्षण वाली सीट से टिकट भी चाहिये ....यानी राजवंश के लोगों को राजवंश में पुनः प्रवेश के लिए आरक्षण की बैसाखी चाहिये ।  

सरकार आरक्षण समाप्त नहीं कर सकती किंतु सरकारी संस्थान समाप्त कर सकती है । मोतीहारी वाले मिसिर जी सरकारी संस्थानों के निजीकरण का समर्थन करने लगे हैं ....क्योंकि इससे उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ने की सुनिश्चितता है ....और इसलिए भी कि तब सरकारी नौकरियों के अवसर और भी कम हो जायेंगे और निजी संस्थानों में नौकरियों के लिए लोगों को आरक्षण की योग्यता से मोहभंग हो जायेगा ।

 

सरकारी कम्पनियों का निजीकरण...

बस्तर में भी निजीकरण का विरोध हो रहा है क्योंकि नगरनार प्लांट से सरकार अपनी हिस्सेदारी समाप्त कर रही है ।

कई सरकारी बैंक निजी किए जा चुके हैं । मुम्बई का एक पोर्ट अदाणी समूह ने ख़रीद लिया है और रेलवे में निजी क्षेत्रों की हिस्सेदारी बढ़ रही है । अव्यवस्था और घाटे के केंद्र बन चुके सरकारी संस्थान समाप्त होने की चर्चा से ही आरक्षणप्रेमी लोग परेशान होने लगते हैं, वे चाहते हैं कि घाटे में रहने वाले सभी सरकारी संस्थान बने रहने चाहिये ।

सरकारी कम्पनियों के शेयर्स से दूर रहने की सलाह पर शेयर मार्केट के दलालों की मोहर सरकारी कार्यप्रणाली की वह जन्मकुण्डली है जिसका अध्ययन हमें दुःखी और निराश करता है ।

पाकिस्तान के डेढ़ सौ फ़ाइटर जेट तबाही मचायेंगे आर्मीनिया में...

टर्की, पाकिस्तान और ईरान वह तिकड़ी है जो केवल इस्लाम के नाम पर एकजुट होकर आर्मीनिया को तबाह कर देने के लिए परमाणुशक्ति का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकने वाली । भारत के जम्मू-काश्मीर को नागोर्नो-क़ाराबाख़ बना देने के लिए व्याकुल फ़ारुख़ अब्दुल्ला नामक एक आदमी तो पहले ही कह चुका है कि पाकिस्तान ने एटम बम ईद पर चलाने के लिए नहीं बना रखे हैं ।           


गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

गांधी जी की आत्मा के नाम एक खुला पत्र...

हे स्वर्गीय मोहनदास करमचंद गांधी जी !

खेद है कि मैं आपको नमस्ते या राम-राम नहीं लिख सकूँगा क्योंकि भारत में अभिवादन के ये शब्द भगवावाद और फासीवाद के प्रतीक हो गये हैं किंतु अस्सलाम वालेकुम या सलाम जैसे शब्द भी नहीं लिख सकूँगा क्योंकि हमारी भाषा में अभिवादन के भावसमृद्ध शब्दों का लेश भी अभाव नहीं है । अस्तु, मैं सीधे-सीधे अपनी बात लिख रहा हूँ, बुरा मत मानियेगा ।

यह सच है कि हमारी पीढ़ी ने उस समय तक जन्म न होने के कारण स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं दिया किंतु उस समय बोई गयी व्यवस्थायें पल्लवित-पुष्पित होकर आज हमें यह सोचने के लिए विवश करने लगी हैं कि किसी नागरिक के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में स्वतंत्रता का औचित्य क्या है ?

आपने अपने युग में हुये धार्मिक दंगों में नृशंस हिंसा का तांडव देखा है, हम अपने युग में होने वाले धार्मिक दंगों की हिंसा से उत्पीड़ित हो रहे हैं । यह एक सुस्थापित तथ्य है कि विदेशी आक्रमणकारी शासक बनकर भारत की सनातन संस्कृति को नष्ट करने के हर तरह के उपाय करते रहे हैं किंतु स्वतंत्रता के बाद भी इस प्रक्रिया पर विराम नहीं लग सका । उन्हीं विदेशी आक्रमणकारियों के वंशजों द्वारा भारत की सनातन संस्कृति को नष्ट करने और भारत की रही सही डेमोग्राफ़ी को पूरी तरह बदल देने के षड्यंत्र भारत में आज भी फलीभूत हो रहे हैं ।

हे गांधी जी की आत्मा जी ! हम आपको सूचित करना चाहते हैं कि आज की पीढ़ी को विरासत में जो भारत मिला है वहाँ (असम में) सरकारी सहयोग से चलने वाले दीनी तालीम वाले मदरसों को सामान्य स्कूलों में रूपांतरित किए जाने, क़ाफ़िर की लड़की को प्रेमजाल में फाँसकर धर्मांतरण किये जाने की घटनाओं का विरोध किये जाने और मुस्लिम शासन में मंदिरों को ढहा कर उनके स्थान पर बनायी गयी मस्ज़िदों को पूर्ववत सनातनी आराधना स्थल बनाये जाने की माँग करने से भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और सेक्युलरिज़्म के संकटग्रस्त हो जाने के हो-हल्ला से परेशान होकर मुझे प्रायः आपकी याद आती रहती है । भारत में इस्लामिक हुक़ूमत लाने, पूरे भारत को धर्मांतरित करने और क़ाफ़िरों को काटकर फेक देने जैसी भयभीत करने वाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर खुलेआम मिलने वाली धमकियों ने हमारा जीना दुर्लभ कर दिया है ।

हे गांधी जी की आत्मा जी ! यशपाल की मानें तो साल 1947 में बँटवारे के समय लाहौर में सिखों की लड़कियों के साथ होने वाले दुष्कर्मों की घटनाओं पर दिल्ली में शरणार्थी शिविरों के सिख प्रतिनिधि मण्डल को दी गयी आपकी सलाह मुझे भयभीत करती है इसलिए हम आपसे यह नहीं पूछेंगे कि भारत के सनातनी लोगों को अपनी प्राणरक्षा और सम्मान को बचाने के लिए क्या करना होगा ।

सम्प्रति, हम सनातनी लोग इस्लामिक स्कॉलर्स, मौलवियों, इस्लामिक एक्टिविस्ट्स और भारत विरोधी राजनेताओं द्वारा अपने ऊपर थोपे गये जिन विचारों और व्यवस्थाओं को मानने और स्वीकार करने के लिए विवश किये जा रहे हैं उनके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं – 

-      भारतीय मदरसों में दीनी तालीम दिया जाना सेक्युलरिज़्म है किंतु भारत में कुम्भ का आयोजन भगवावाद, संघवाद, फासीवाद और हिटलरशाही है ।

-      मुस्लिम युवक का किसी क़ाफ़िर को दुश्मन मानना किंतु उसकी लड़की से प्रेम करके उसका धर्मांतरण करना और उससे निक़ाह करना शरीयत के अनुसार ज़ायज़ है किंतु किसी हिंदू युवक का किसी मुसलमान की लड़के से प्रेम करना सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ है ।

-      भारत में हजारों मंदिरों को ध्वस्त कर उनके ऊपर मस्ज़िद का निर्माण ज़ायज़ है जबकि इस तरह की मस्ज़िदों को पूर्ववत् मंदिर में रूपांतरित करने की माँग़ करना सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ है ।

यदि सेक्युलरिज़्म और गंगा-जमुनी तहज़ीब का यही अर्थ और उद्देश्य है तो निस्संदेह भारत की संस्कृति और सभ्यता को बचाये रख पाना असम्भव है, और हम इस तरह की किसी व्यवस्था के विरुद्ध वैचारिक क्रांति करने के लिए बाध्य हैं ।

स्वाधीन भारत में संविधान और क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते वक्तव्य...

इण्डिया में इण्डियन पीनल कोड की धारा 124-ए के विरुद्ध खुलेआम सार्वजनिक वक्तव्यों पर आमजनता, प्रबुद्धजनता, नेता, अभिनेता, साहित्यकार, अतिबुद्धिजीवियों और माननीय सुप्रीम कोर्ट की अद्भुत् ख़ामोशी मुझे हैरान नहीं, परेशान करती है । मुझे नहीं मालुम, इन वक्तव्यों पर आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी –

1-   “चीन के सहयोग से लद्दाख को भारत से खाली करवाया जाय”। – दिनांक 15.10.2020 को जी.न्यूज़ कार्यक्रम में पीडीपी के नेता मोहित भान का आह्वान ।

2-   “जम्मू-कश्मीर में धारा 370 फिर से बहाल करने के लिए चीन से सहयोग लेना चाहिये” । - दिनांक 12.10.2020 को जी.न्यूज़ के एक कार्यक्रम में डॉ. फ़ारुख़ अब्दुल्ला का वीडियो संदेश ।

 

-      हम हैं स्वतंत्र भारत के भयभीत सनातनी नागरिक       

सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

संविधान की शपथ लेकर संविधान पर वार...

आतंकवादी बनकर भारत पर हमला करने के कई ख़तरे हैं लेकिन बिना किसी ख़तरे के ...बल्कि भारत की शाही सुविधाओं का उपभोग करते हुये भारत के विरुद्ध षड्यंत्र करने और भारतीय संविधान से विश्वासघात करने का एक शाही तरीका भी कुछ लोगों ने ईज़ाद कर लिया है । यह एक क़माल का तरीका है जिसमें शिकार ख़ुद अपने शिकारी की रक्षा करने के लिए विवश होता है और बारम्बार शिकार होता रहता है । इस तरीके को स्तेमाल करने के लिए किसी भी तरह भारत की संसद में सदस्य की हैसियत पाना होता है या महज़ एक अलगाववादी नेता बनना होता है । भारतीय संसद का सदस्य बनने के बाद भारतीयों की कमाई से शाही ज़िंदगी जीते हुये और भारत सरकार द्वारा उपलब्ध करायी गयी सुरक्षा सुविधाओं का उपभोग करते हुये पाकिस्तान जाकर भारत की सरकार को गिराने के लिए निवेदन करने या कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए चीन की मदद लेने की इच्छा प्रकट की जा सकती है ।

एक सांसद रहते हुये डॉक्टर फ़ारुख़ अब्दुल्ला का चरित्र हमेशा ही भारत विरोधी रहा है । यह आदमी भारत की संसद में भारत के एक संसदीय क्षेत्र का सम्माननीय प्रतिनिधि है किंतु भारत की संसद द्वारा लायी गयी एक व्यवस्था के विरुद्ध चीन का सहयोग लेने की बात करता है और जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करके एक अलग रियासत बनाने के लिए पाँच अगस्त 2020 को लंदन या वाशिंगटन में भारतीय दूतावास के सामने विरोध प्रदर्शन में सम्मिलित न हो पाने से दुःखी होता है । यह आदमी भारत की संसद का सदस्य है किंतु केवल अपनी मज़लूम क़ौम के लिए चिंतित होने की बात कहता है भारत के लिए नहीं । यह आदमी डॉक्टर है और उसका मानना है कि उसकी “मज़लूम क़ौम के लोगों ने अल्लाह को छोड़कर शैतान को पकड़ लिया है”, उन लोगों का “अल्लाह में पक्का ईमान नहीं है” । यह आदमी “अल्लाह का दामन थामकर” अपनी “क़ौम को मुश्किल से निकालना” चाहता है । भारत का नमक खाने वाले इस आदमी का ख़याल है कि जम्मू-कश्मीर को भारत की मुख्य धारा से जोड़ने की नयी व्यवस्था से उसकी मज़लूम क़ौम मुश्किल में आ गयी है ।      

और सबसे क़माल की बात तो यह है कि डॉक्टर फ़ारुख़ अब्दुल्ला नामक ज़हरीले आदमी के भारतविरोधी कृत्यों को देशद्रोह मानना एक ग़ुस्ताख़ी है,यूँ वह बात अलग है कि पाकिस्तान में पूर्व प्रधानमंत्री और पी.ओ.के. के वज़ीर के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला दर्ज़ करवा देना वहाँ की सियासत के लिए बहुत मामूली सी बात है ।

          ...तो मैं ख़ुशी-ख़ुशी यह ग़ुस्ताख़ी करना चाहता हूँ और भारत के एक ज़िम्मेदार नागरिक की हैसियत से डॉक्टर फ़ारुख़ अब्दुल्ला नामक आदमी पर सांसद रहते हुये भारत के विरुद्ध चीन की मदद लेने का मंसूबा रखने के ज़ुर्म में देशद्रोह का मुकदमा दर्ज़ करने की माँग़ करता हूँ ।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

धर्म-युद्ध का तेरहवाँ दिन...

उठाकर अपना सिर

देखता है एक बच्चा

आसमान में उड़ते युद्धक विमान ।  

भर जाता है गर्व से

भूख से बिलबिलाता छोटा सा बच्चा

सोचता है  

कर ली है कितनी तरक्की

उसके मुल्क ने!

 

होते ही विमान के ओझल

वह फिर माँगने लगता है

भीख

फैलाकर अपने नन्हें हाथ

दे दाता के नाम तुझको अल्ला रक्खे...।

युद्ध

जिस दिन होगा

मर जायेगा यह बच्चा

उड़ जायेंगे हवा में

ज़िस्म के कतरे कतरे 

किसी क्लस्टर बम के गिरने से ।

मर जायेंगे

बहुत से सैनिक

बहुत से परिंदे,

रहेंगे जीवित 

केवल वे

जिन्होंने शुरू की थी जंग ।

बैठेंगे फिर

एक ही टेबल पर

करेंगे 

एक समझौता वार्ता  

और फिर करेंगे हुक़ूमत

अपनी-अपनी रियाया पर ।

2-

महासंहारक हथियारों के

इस ज़ख़ीरे पर

इतराते समय

कितने बेशर्म

और ग़ुस्ताख़ हो जाया करते हो तुम

धूर्त!  

मेरे ख़ून-पसीने की ताक़त को

कितनी चतुरायी से

छिपा लिया है तुमने

इस ज़ख़ीरे के भीतर ।