रविवार, 27 फ़रवरी 2022

सन्निकट विश्वयुद्ध?

             ज्योतिषीय गणनायें तृतीय विश्वयुद्ध का संकेत दे रही हैं । यदि यूक्रेन और रूस के बीच बात नहीं बनी तो अप्रैल 2022 तक का समय पूरे विश्व के लिये हिंसा और अशांति से भरा रह सकता है ।

प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अमेरिका और सोवियत संघ जैसे मित्र रहे देश आज आपस में एक-दूसरे के शत्रु हो गये हैं और एक-दूसरे के शत्रु रहे ज़र्मनी और अमेरिका जैसे देश आपस में मित्र हो गये हैं । दुनिया इसी तरह चलती है । शत्रुता और मित्रता के सिद्धांत अपने-अपने हितों के टकराव या उनकी रक्षा को लेकर होने वाली गतिविधियों पर विकसित होते हैं । यहाँ कोई किसी का न तो स्थायी मित्र होता है और न स्थायी शत्रु । याद कीजिये, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय एक ओर थे धुरी राष्ट्र- ज़र्मनी, इटली, जापान, और ऑस्ट्रिया आदि, जबकि दूसरी ओर थे मित्र राष्ट्र ब्रिटेन, फ़्रांस, सोवियत संघ और अमेरिका आदि ।

ज़र्मनी, इटली, जापान और ऑस्ट्रिया तो पहले भी सोवियत संघ के शत्रु रह चुके हैं किंतु ब्रिटेन, फ़्रांस, और अमेरिका ने तो सोवियत संघ के साथ मिलकर द्वितीय विश्वयुद्ध लड़ा था । आज स्थिति बदल गयी है, अब सारे पश्चिमी देश अपनी आपसी शत्रुता भुलाकर रूस के विरुद्ध उठकर खड़े हो गये हैं ।

रूस को यह नहीं भूलना चाहिये कि जिस पश्चिमी राष्ट्रवाद को दुनिया भर के वामपंथी लोग कोसते नहीं थकते उसके जन्म के कारण थे वे अर्थिक दण्ड और प्रतिबंध जो 1943 में पराजित हुये ज़र्मनी पर वार्सेल्स की संधि में थोपे गये थे । यह भी याद कीजिये कि इसी संधि में ज़र्मनी पर एक लाख टन सोने के मूल्य के बराबर आर्थिक दण्ड भी लगाया गया था जिसे चुकाने में ज़र्मनी को 91 साल लग गये । पश्चिम का राष्ट्रवाद अस्तित्व संरक्षण के लिये की गयी एक प्रतिक्रियात्मक वैचारिक क्रांति थी जिसके बाद ही खण्डित कर दिये गये ज़र्मनी का पुनः एकीकरण हो सका । 

पिछले दो दिनों से यूक्रेन में भी वैसा ही राष्ट्रवाद देखा जा रहा है । मैं इसे प्रतिक्रियात्मक राष्ट्रवाद कहता हूँ और इसे किसी भी देश के अस्तित्व के लिये आवश्यक मानता हूँ । कोई नहीं जानता कि रूस-यूक्रेन युद्ध का परिणाम क्या होगा, किंतु यदि परिणाम रूस के पक्ष में गये और रूस ने वार्सेल्स संधि जैसी शर्तें यूक्रेन पर थोपने का प्रयास किया तो क्या यूक्रेन में प्रतिक्रियात्मक राष्ट्रवाद के उदय को रोका जा सकेगा!

स्मरण कीजिये, सन् 1939 से प्रारम्भ होकर सन् 1945 तक, विश्व के सबसे लम्बे समय तक चलने वाले विश्वयुद्ध में लगभग 8.5 करोड़ लोग मारे गये जबकि लाखों लोग अपंग हो गये थे । इस युद्ध से दुनिया को मिली थी भुखमरी, गरीबी, महँगाई और अभाव । किसी भी युद्ध में सम्पत्ति नागरिकों और उद्योगपतियों की नष्ट होती है, मृत्यु सैनिकों और सामान्य नागरिकों की होती है जबकि हितलाभ सत्ताधीशों के हिस्से में जाते हैं ।

अमेरिका द्वारा जापान के दो बड़े शहरों पर परमाणुबम गिराने के बाद सितम्बर 1945 में जापान को अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा और इस तरह जापान सहित दुनिया के कई देशों की भारी क्षति के बाद समाप्त हुआ था द्वितीय विश्वयुद्ध । जो संधि और वार्ता आप युद्ध की समाप्ति के बाद करना चाहते हैं उसे पहले ही क्यों नहीं कर लेते!

जहाँ तक भारत की बात है तो भारत के पास दो-दो विश्वयुद्ध लड़ने और विजयी होने का गौरवशाली अनुभव रहा है । भारत ने एक पराधीन देश के रूप में ब्रिटेन के लिये प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में न केवल भाग लिया बल्कि ब्रिटेन के पक्ष में जीत भी प्राप्त की थी ।

बात ही करनी होगी

         यूक्रेन को एक बार फिर चने के झाड़ पर चढ़ाने के लिये पश्चिमी देश आगे आने लगे हैं; कोई यूक्रेन को तेल दे रहा है, कोई पैसे दे रहा है तो कोई हथियार । युद्ध और बढ़े, विनाश और हो... इसके लिये लोग लामबंद होने लगे हैं । कोई नहीं चाहता कि युद्ध यथाशीघ्र समाप्त हो ।

कीव में स्ट्रीट फ़ाइट

ज़ेलेंस्की ने रूसी सेना का सामना करने के लिये कीव के नागरिकों से आह्वान किया है कि वे अपने घरों की खिड़कियों से ही रूसी सैनिकों पर आक्रमण करें । भावनात्मक दृष्टि से यह बात अच्छी लग सकती है किंतु सामरिक दृष्टि से यह आत्मघाती आह्वान रूसी सैनिकों को यूक्रेनी घरों पर आक्रमण के लिये आमंत्रित करने वाला है । युद्ध में हठ का नहीं अवसर का महत्व होता है । स्ट्रीट फ़ाइट से ऐसे युद्ध नहीं जीते जाते ।

नाटो देशों ने प्रारम्भ से ही युद्ध की आग को धधकाने का काम किया है, और अब नाटो देशों द्वारा यूक्रेन को हथियार देकर युद्ध को समाप्त करने की अपेक्षा उसे और भी विनाशक बनाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी गयी है ।

किंतु हर युद्ध को कभी तो समाप्त होना ही होता है, वार्ता फिर भी करनी ही होगी । अभी तक कोई सार्थक वार्ता नहीं हो सकी इसलिये युद्ध हुआ, युद्ध से वार्ता की स्थितियाँ निर्मित की जा रही हैं । यानी, युद्ध एक दबाव है कि वैसे नहीं तो ऐसे ही वार्ता करो । क्या युद्ध के अतिरिक्त और कोई दबाव ऐसा नहीं हो सकता जिससे दोनों देश वार्ता के लिये तैयार हो जायँ! आज भारत सहित अन्य गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गयी है । युद्ध तुरंत समाप्त होना चाहिये ।

War is not the solution; it was never and would be never. Ultimately you have to come on the table of peace for dialogs. Peace can never be enforced through war and destruction.

Please! Stop the war for innocent lives, not only of humans but of birds, animals and other innocent small creatures too.

प्रवासी छात्रों को लाने का दातित्व

             मेरा कोई दायित्व नहीं, सब कुछ मोदी करे

विचित्र बात है, आपके बच्चे यूक्रेन में पढ़ रहे हैं, आपकी कोई ज़िम्मेदारी क्यों नहीं है? आप यूक्रेन की बात मानते रहे किंतु अपने विवेक से इतना नहीं सोच सके कि जब युद्ध की आशंकायें हों तो प्रवासियों को सबसे पहले अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिये । समय रहते अपने बच्चों को यूक्रेन से वापस लाने के लिये आपको किसने रोका था ? मेडिकल की पढ़ायी कर रहे प्रवासी छात्र परिस्थितियों को देखकर भी यदि पहले से कोई अनुमान नहीं कर सके तो वे किसी रोगी को देखकर उसकी डायग्नोसिसऔर प्रॉग्नोसिस कैसे कर सकेंगे? हर बात के लिये सरकार को उत्तरदायी ठहराने की प्रवृत्ति मानसिक पक्षाघात को आमंत्रित करती है । छोड़ो बाबू ! डॉक्टरी आपके बस की नहीं । कल आपके पास कोई इनफ़र्टिलिटी का केस आयेगा तब उसके लिये भी तुम मोदी का ही मुँह ताकते रहोगे । 

विघ्नसंतोषियों का तर्क है कि प्रवासी छात्रों को वापस लाकर “फेकूमोदी” कोई अहसान नहीं कर रहा, दुनिया भर की सरकारों ने बहुत पहले ही अपने नागरिकों को यूक्रेन से निकाल लिया था । अतिबुद्धिमान कुतार्किक जी! फिर पाकिस्तानी और अमेरिकी छात्र वहाँ क्या कर रहे हैं अभी तक? भारतीय तिरंगा लेकर यूक्रेन से रोमानिया पहुँचे पाकिस्तानी छात्रों को वहाँ से आगे क्यों नहीं ले गयी इमरान सरकार? माना कि मोदी संगठित अपराधियों का दुश्मन है, किंतु अच्छे कार्यों के लिये दुश्मन की भी प्रशंसा की जानी चाहिये अन्यथा फिर आप अपने ऊपर लगे राष्ट्र्द्रोही के ठप्पे से कभी मुक्त नहीं हो सकेंगे ।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

जोकर, ज़ेलेंस्की और राष्ट्रनायक

मेरा नाम जोकर... 

“आप मुझे अंतिम बार जीवित देख पा रहे हैं” –ज़ेलेंस्की ।

“मैं कीव छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा, और अंतिम क्षणों तक रूस का सामना करूँगा”- ज़ेलेंस्की ।

युद्ध की पल-पल बदलती परिस्थितियों में आज हम भारत के चिरशत्रु पाकिस्तान के समर्थक रहे यूक्रेन के राष्ट्रपति की प्रशंसा करने से स्वयं को नहीं रोक पा रहे हैं । राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की का यह कहकर परिहास किया जाता रहा कि एक कॉमेडियन को राष्ट्रपति बनाने का परिणाम यूक्रेन की जनता को भोगना पड़ रहा है ।

मैं मानता हूँ कि एक कॉमेडियन अन्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक सच्चा, संवेदनशील और गम्भीर होता है; वह संवेदनशीलता, गम्भीरता, पीड़ा और विकृतियों का हास्यानुवाद करने में दक्ष होता है । उसकी यह दक्षता ही उसे अन्य लोगों से विशेष बनाती है । कल तक, जब ज़ेलेंस्की आम नागरिकों से रूस की प्रशिक्षित सेना के विरुद्ध हथियार उठाने का आह्वान कर रहे थे तो मुझे भी बहुत अज़ीब सा लगा था किंतु जब चने के झाड़ पर चढ़ने के बाद कॉमेडियन ज़ेलेंस्की को अपने पीछे कहीं कोई दिखायी नहीं दिया तो उनका पौरुष जाग्रत हुआ । आज जब “आल टाइम” विश्वासघाती अमेरिका ने कहा कि वह यूक्रेनी राष्ट्रपति को कीव से सुरक्षित बाहर निकालने के लिये तैयार है तो राष्ट्रपति ने चने के झाड़ से नीचे उतर कर वाइडन को जो उत्तर दिया वह एक गम्भीर और संबेदनशील नायक ही दे सकता है । भारत के प्रति यूक्रेन का व्यवहार कभी मित्रता का नहीं रहा किंतु आज हम यूक्रेनी राष्ट्रपति की प्रशंसा करने के लिये बाध्य हुये हैं । राष्ट्रनायक के रूप में ज़ेलेंस्की ने विश्व इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया है ।    

यूकेन में भारतीय छात्र                        

यूक्रेन में फँसे छात्रों को निकालने के लिये भारत सरकार की ओर से टाटा समूह की इण्डियन एयर लाइंस को हनुमान बनाया गया है, वहीं यूक्रेन में अध्ययनरत एक भारतीय छात्र ने यह बताते हुये कि भारतीय फ़्लाइट्स छात्रों से तीन-चार गुना अधिक किराया ले रही हैं, मोदी से अनुरोध किया है कि सरकार छात्रों से केवल सामान्य उचित किराया ही ले, उससे अधिक नहीं ।

भारत सरकार बारम्बार कह रही है कि यूक्रेन में फँसे सभी छात्रों को भारत लाने का पूरा खर्चा भारत सरकार वहन करेगी और छात्रों से कोई किराया नहीं लिया जा रहा है । मोदी विरोधियों ने यह अवसर लपक लिया और बोले – देखा! हम तो कब से कह रहे हैं कि मोदी झूठा और फेकू है ।

बिच्छू के प्राण संकट में हैं, बाबा ने उसे पानी के भँवर से बाहर निकाला, बाहर आते ही बिच्छू ने स्वभाववश बाबा को डंक मार दिया । भारतीय सनातन परम्परा कहती है कि जब बिच्छू अपना स्वभाव नहीं छोड़ता तो संत क्यों छोड़े! संकट में फँसा मोदी विरोधी छात्र भी दंश मारने से नहीं चूकता जबकि वह चाहता है कि मोदी उसे सुरक्षित वापस निकाल कर उसके घर तक पहुँचाये । दादागीरी हो तो ऐसी ।

कोई किसी का नहीं है बंदे

लगे हाथ ताइवान पर आक्रमण के लिये चीन का भी मूड बन रहा है । तवा गरम है, यह सोचकर भारत के विरुद्ध कोई बड़ा षड्यंत्र करने के लिये पाकिस्तान का भी मूड बन रहा है ।

भारत की जनता ने सोशल मीडिया पर मोदी को संदेसा भेजा है– कोई किसी का नहीं है बंदे, लगे हाथ तू ले ले पीओके ।

न नाटो किसी का, न अमेरिका किसी का, सब मतलब के साथी हैं ।        

यही तो रीत है, पतझड़ के मौसम में सारे पुराने पत्ते झड़ जाते हैं, फिर निकलती हैं नयी कोपलें ।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

शक्ति के लिये युद्ध

       नहीं माने, लड़ पड़े दोनों

          हमें यूक्रेन से सहानुभूति है पर हमें तटस्थ रहना होगा । साम्यवादी चीन साम्यवादी रूस के पक्ष में है और स्वयंभू चौधरी को पटकनी देने के लिये ताक में है । यदि अमेरिका यूक्रेन और रूस के बीच में कूदता है तो चीन भी सामने आयेगा और तब विश्वयुद्ध तय है । सैद्धांतिक रूप से हम रूस के विरोध में खड़े नहीं हो सकते, अन्यथा भारत की अलगाववादी शक्तियों का दुस्साहस बढ़ेगा ।

अमेरिका का इतिहास स्वार्थ, विश्वासघात और अवसरवादिता से भरा रहा है, वह किसी का भला नहीं  चाहता । शायद, यह युद्ध कुछ घंटों से अधिक नहीं चल सकेगा।

हर युद्ध का सबसे बड़ा ख़ामियाजा बच्चों और स्त्रियों को भोगना पड़ता है। ईश्वर से प्रार्थना है कि यह विनाशक युद्ध यथाशीघ्र समाप्त हो ।

युद्ध और पत्रकारिता

युद्ध की एक्सक्ल्यूसिव तस्वीरें पहली बार आपके लिये सिर्फ़ हमारे चैनल पर । युद्ध की पल-पल की ख़बर सबसे पहले हमारे चैनल पर... “।

पीड़ादायक समाचार पढ़ने का तरीका भी ऐसा गोया क्रिकेट की कमेंण्ट्री ।

युद्ध की विनाशक घटनाओं को तमाशे की तरह परोसने वाली मीडिया से मुझे सख़्त ऐतराज है । विनाश के प्रति इतनी असंवेदनशीलता हमारे नैतिक और सांवेदनिक पतन की पराकाष्ठा है । यूक्रेन और रूस एक-दूसरी की तबाही के लिये आमने-सामने हैं, युद्ध की तबाही का काला धुआँ महँगाई बनकर पूरी दुनिया पर छाने लगा है और तुम बिल्कुल भी गम्भीर नहीं हो पा रहे हो? यह कैसी पत्रकारिता है?

समाचार कितना भी दुःखद और विनाशक क्यों न हो, उसे सनसनी बनाकर परोसने वाली पत्रकारिता क्यों नहीं प्रतिबंधित की जानी चाहिये? ऐसी पत्रकारिता से चौथे स्तम्भ का कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होता बल्कि अराजकता और निरंकुशता को ही बल मिलता है ।

अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन

हल्ला है कि रूस ने यूक्रेन में प्रवेश करके अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन किया है ।

जो शक्तिशाली होते हैं वे नियम बनाते हैं, जो दुस्साहसी होते हैं वे नियमों को तोड़ते हैं, और जो बहुत शक्तिशाली होते हैं वे नियमों को तोड़कर नये नियम बनाते हैं । नियमों को तोड़ना नियमों को चुनौती देना है । मानव सभ्यता का यही इतिहास रहा है ।

जब कोई अपराध करता है तो वह नियमों को चुनौती तो देता है किंतु कोई नया नियम नहीं बनाता । चुनौती की तीव्रता और उद्देश्य से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनौती छोटी है या बड़ी और उसकी मारक क्षमता कहाँ तक हो सकती है ।

परम्परा कुछ ऐसी बन गयी है कि चौथ वसूलने वाला गुण्डा कहलाता है और टैक्स वसूलने वाला राजा । अंतर केवल स्तर और क्षमता का है ।

पाकिस्तान ने बलूचिस्तान और कश्मीर घाटी पर कब्जा कर लिया, यह भी अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन था । तालिबान ने अफगानिस्तान की चुनी हुयी सरकार को भगा कर अपनी सरकार बना ली, यह भी नियमों का उल्लंघन था । मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश इण्डिया के विभाजन का हठ किया और पाकिस्तान बना लिया, इसके बाद भी आज तक भारत का गला नहीं छोड़ा, इसे आप क्या कहेंगे?

बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का कब्ज़ा है, कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर पाकिस्तान का कब्ज़ा है, कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील पर चीन का कब्ज़ा है, तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा है । जहाँ शक्ति है वहाँ सत्ता है, जहाँ दुर्बलता है वहाँ दासता और शोषण है । सामाजिक व्यवस्था के नाम पर बनाये जाने वाले नियम-कानून दुर्बलों पर शासन करने के हथियार बन जाते हैं और कोई कुछ नहीं कर पाता ।

माओज़ेदांग एक सिपाही से चीन का चेयरमैन बन जाता है, लेनिन और स्टालिन शक्ति के बल पर एक विराट राष्ट्र का निर्माण कर लेते हैं और आजीवन उसके राजा बने रहते हैं । भारत में अपराधियों की एक बड़ी संख्या विधायिका की अधिकारी हो जाती है । सब शक्ति का खेल है, उस शक्ति का जिसका एक रूप है हिंसा ।

उठो! जागो!! और आगे बढ़ो ...जब तक कि तुम राजा न हो जाओ । 

अपराधी और वसुदेव

शातिर और दबंग अपराधी अपनी तुलना वसुदेव से करने लगे हैं जिन्हें बिना किसी अपराध के कंस ने कारागार में डाल दिया था । वर्षों पहले किसी नेता ने ग़िरफ़्तार होने पर पूरी निर्लज्जता से कहा था कि कारागार तो उसके लिये पुण्यभूमि है । मैं इस अधोपतन और निर्लज्जता का सबसे बड़ा कारण उस मूर्ख प्रजा को मानता हूँ जो अपराधियों का गुणगान करने में स्वयं को धन्य मानती है और उन्हें अपना जनप्रतिनिधि चुनकर सदन में भेजती है ।

निर्लज्जता में नवाब मलिक ने तो लालू को भी पीछे छोड़ दिया है । हिरास्त में लिए जाते समय नवाब मलिक के चेहरे पर शर्म के स्थान पर ऐसा भाव था जैसे कि वह कोई किला फ़तह करके आया हो । हुंकार, धता और निरंकुशता की विजय के प्रति आश्वस्त नवाब मलिक की मुखमुद्रा लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या करती हुयी सी नहीं लगती आपको! नेताओं का यह आचरण समाज में अपराधियों के हौसले बुलंद करने के लिये नैतिक सम्बल प्रदान करता है । यह पहली बार नहीं है, हमने ग़िरफ़्तार होने वाले सभी नेताओं को ग़िरफ़्तार होते समय परम प्रसन्न मुद्रा और विजयी भाव में ही देखा है ।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

मोतीहारी वाले मिसिर जी

            एक दिन सुना कि क्वाण्टम फ़िज़िक्स और वैशेषिक दर्शन के रसिक मिसिर जी अब मोतीहारी में नहीं रहते बल्कि अपनी भेड़ों के साथ बुग्यालों में बंजारा बनकर घूमते रहते हैं । पता चला कि हिमालय जाकर उन्हें देवदार से प्रेम हो गया । भेड़ें चराते हुये जहाँ कहीं देवदार के पेड़ मिल जाते तो उनसे बतियाये बिना मिसिर जी का आगे बढ़ना सम्भव नहीं होता । पान खाना उन्होंने उसी दिन छोड़ दिया था जिस दिन वे मोतीहारी छोड़कर बंजारा बन गये थे । अब वे थुनेर की नमकीन चाय पीते हैं जिसमें उन्हीं की भेंड़ों के दूध का मक्खन होता है ।

बाँसुरी को सुर में बजाने की उनकी बड़ी इच्छा हुआ करती थी किंतु दुर्भाग्य से वे कभी ऐसा नहीं कर सके, क्योंकि उन्हें बाँसुरी बजाना आता ही नहीं था । मिसिर जी अपनी युवावस्था में राजा विक्रमादित्य बनने का स्वप्न देखते रहे किंतु दुर्भाग्य से उनका स्वप्न कभी सच नहीं हो सका, क्योंकि उन्हें कोई राजनीतिक गुरु मिल ही नहीं सका ।  

अधिकांश लोगों को लगता है कि मिसिर जी नास्तिक व्यक्ति हैं, किंतु बहुत थोड़े से लोगों का मानना है कि वे आस्तिक हैं । उनके बारे में लोगों के विरोधाभासी दृष्टिकोण मिसिर जी के व्यक्तित्व को जटिल और विवादास्पद बनाते हैं, किंतु एक बात तो तय है कि मिसिर जी किसी एक वैचारिक खूँटे से बँधकर रहने वाले लोगों में से नहीं हैं ।

मिसिर जी बताया करते थे – “किसी वैचारिक खूँटे से बँध कर रहने का अर्थ है चिंतन और परिष्करण जैसी अनिवार्य और सतत चलने वाली प्रक्रियाओं पर पूर्णविराम लगाकर सीमित हो जाना । वैदिक वर्णाश्रम धर्म किसी खूँटे से बँधा हुआ नहीं है । यह तो अपने आसपास के बुग्यालों में विचरने वाले स्वतंत्र मृगों की तरह है । प्राणिमात्र के लिये कल्याणकारी विचारों को लेकर जिनका आचरण समावेशी होता है वे ही आर्य होते हैं इसीलिये वे तत्कालीन विभिन्न विचारों और मतों को अपने में समाहित कर सके, द्वैत को भी अद्वैत को भी”।

यह सच है कि मोतीहारी वाले मिसिर जी वैदिक वर्णाश्रम धर्म के प्रखर समर्थक हैं, किंतु यदि आप सोचते हैं कि वे भाजपाई होंगे तो आपका अनुमान सही नहीं है । यह सच है कि मिसिर जी “मेरा ईश्वर, तेरा ईश्वर” को स्वार्थी और महत्वाकांक्षी लोगों की रचना मानते हैं और लोकतंत्र को अलोकतांत्रिक लोगों की व्यूह रचना किंतु यदि आप सोचते हैं कि वे साम्यवादी कामरेड हैं तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । वे कांग्रेसी, समाजवादी, आपी, लोकदली, या अन्य ढेरों दलों में से भी किसी के समर्थक नहीं हैं । मिसिर जी भारत के किसी भी राजनीतिक दल के चरित्र के अनुरूप स्वयं को ढाल सकने में पूरी तरह असफल रहे हैं । सच बात तो यह है कि मिसिर जी का कोई रंग ही नहीं है, इसलिये कोई भी व्यक्ति उन्हें अपने कैनवास में कभी उतार ही नहीं सका, और इसीलिये वे रंगों की दुनिया के लिये सदा ही एक कुपात्र व्यक्ति बने रहे । भला रंगीन संसार में किसी रंगहीन की क्या आवश्यकता!

धर्म और युद्ध

        - रूस और यूक्रेन नहीं, रूस और अमेरिका कहिये, यूक्रेन तो केवल रणक्षेत्र है । अच्छी बात यह है कि आशंकित युद्ध में धर्मविशेष को कोई घटक नहीं बनाया गया है । भारत विभाजन के लिये धर्मविशेष को घटक बनाया गया था, विभाजन हुआ, भारी हिंसा हुयी किंतु धर्मविशेष की समस्या जस की तस बनी रही । वास्तव में, युद्ध तो केवल स्वार्थों के बीच होता है, धर्मविशेष को तो अपने-अपने समूहों को बाँधने के लिये एक रस्सी की तरह प्रयुक्त किया जाता है ।

-      “हित अनहित पशु पच्छिउ जाना”, पशु-पक्षियों को अपने मित्रों और शत्रुओं के बारे में पता होता है । उन्हें किसी ने बताया या पढ़ाया नहीं, अंतर्दृष्टि से उन्हें सब कुछ पता होता है ।

-      पशु-पक्षियों की जातिगत विशेषतायें हैं, उन्होंने अपने शत्रुओं और मित्रों को पहचान लिया है । मनुष्य की भी जातिगत विशेषतायें हैं और वह अभी तक पहचान बनाने और बदलने में लगा हुआ है ।

-      जब तक मनुष्य केवल मनुष्य था, तब तक उसके व्यक्तिगत नामविशेष की कोई आवश्यकता नहीं थी । जब तक धर्म केवल धर्म था, तब तक उसके किसी समूहगत नामविशेष की कोई आवश्यकता नहीं थी ।

-      समय के साथ, मनुष्य पहले तो समूह बना फिर व्यक्ति हो गया । अब उनके कबीले थे, उनके नाम थे, उनकी पहचान थी, पृथक अस्तित्व थे, महत्वाकांक्षायें थीं, प्रतिस्पर्धा थी और पारस्परिक संघर्ष थे । मनुष्य की यात्रा कई विशेषताओं के साथ आगे बढ़ने लगी, इन विशेषताओं ने उनकी व्यक्तिगत पहचान को उकेरा । भाषा का विकास हुआ तो समूहों को एक और पहचान मिली । मनुष्य की भाषा, परिवेश, आवश्यकताओं, प्रवृत्तियों, उद्देश्यों और व्यक्तिगत क्षमताओं ने मनुष्य की व्यक्तिगत पहचान को इतना उकेरा कि हर व्यक्ति कुछ न कुछ विशेषता के साथ अलग प्रदर्शित होने लगा ।

-      जैसे-जैसे मानव समाज का विकास होता गया, उनके पारस्परिक संघर्ष बढ़ते गये । पहचान को और भी विशेष बनाने की आवश्यकता हुयी तो आचरणगत विशेषताओं ने मानवसमूहों को पंथों की परिधि प्रदान कर दी । पूरी धरती पर मनावसमूहों की जीवनशैली के कई पंथ विकसित होते गये । मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा वह याज्ञवल्क्य, जोसेफ़, रूज़वेल्ट या असलम हो गया । धर्म अब धर्म नहीं रहा उसे हिन्दू, यहूदी, जरथ्रुस्ट ख्रीस्त और इस्लाम जैसे कई परिधानों में सजा दिया गया । सागर अब सागर नहीं रहा, वह हिंदमहासागर या अरब महासागर जैसी सीमाओं में बँधकर बँटता चला गया ।

-      सागर को बाँटा नहीं जा सकता, पर हमने बाँट दिया । धर्म को बाँटा नहीं जा सकता, पर हमने बाँट दिया । क्या सचमुच सागर बँट गया, धर्म बँट गया! फिर वह क्या है जिसे हम बँटा हुआ देखते और पहचानते हैं?

-      वह हमारी प्रक्षेपित भूख है जो काल्पनिक और अस्तित्वहीन रेखायें खींचकर सब कुछ बाँट देने में लगी हुयी है ।

-      मानव सभ्यता विकसित होती गयी और अहंकार में डूबा मनुष्य क्रूर और विवेकहीन होता गया । यूक्रेन के रण में रूस और अमेरिका के बीच युद्ध के बादल मँडराने लगे हैं । तुम कहते हो कि तुम सभ्य और विकसित होते गये, ईश्वर कहता है कि तुम असभ्य और अविकसित होते गये हो । महायुद्ध की आशंकाओं के बीच शांति नहीं “अ-युद्ध” की सम्भावनाओं की चर्चा भी की जा रही है किंतु पहले पीछे कौन हटे यह विवाद तो तब तक बना ही रहेगा जब तक युद्ध प्रारम्भ नहीं हो जाता और अंत में युद्ध सामग्री समाप्त नहीं हो जाती । महाविनाश के बाद शांति की बात करना हर पक्ष की विवशता होगी ।

-      हिजाब, अबाया, बुरका, पगड़ी, चूड़ी, बिंदी, सिंदूर और मंगलसूत्र का विवाद अब भारत से बाहर निकलकर यूरोप और अमेरिका तक पहुँच गया है । किताब से पहले पहचान की तलब हिलोरें मारने लगी है । पहचान की ढाल को सामने अड़ाकर ज्ञान पाने की शर्त रख दी गयी है । पहले पहचान फिर किताब । पहचान नहीं तो किताब नहीं ।

-      मनुष्य अपनी समूहगत पहचानों में खो गया है जिन्हें तुमने रचा है, धर्म उन पंथी परिधानों में खो गया है जिन्हें तुमने सिला है ।

-      चलो, हम भीड़ में मनुष्य को पहचानें । चलो, हम पंथों में धर्म को पहचानें ।

-      तमिलनाडु के तिरुपत्तूर की पैंतीस वर्षीया स्नेहा ने पाँच फरवरी 2019 को भारत का पहला नो कास्ट, नो रिलीज़नवाला प्रमाणपत्र प्राप्त कर अपनी तत्कालीन जातिगत और धार्मिक पहचान से मुक्ति पा ली है । वे किसी जाति और धर्म से मुक्त होकर केवल मनुष्य बनी रहना चाहती हैं, किंतु उन्होंने अपनी तीनों बेटियों - आधिरइ नसरीन, आधिला इरेन और आरिफ़ा जेस्सी के नामों में दो धर्मों की पहचान को सम्मिलित कर लिया । पहचान से मुक्ति के उपक्रम में दो धर्मों की पहचान का सम्मिश्रण भीड़ में और खो जाने जैसा है । हिन्दू प्रतीकों के मूल्य पर इस्लामिक और ईसाई प्रतीकों के वरण से उनकी बेटियों की पहचान और भी जटिल हो गयी है ।

-      स्नेहा और उनके परिवार के सदस्य शायद अब दीवाली नहीं मनाते होंगे, या वे दीवाली, ईद और एक्समस तीनों मनाते होंगे । इतना तो निश्चित है कि बिना गीत गाये, बिना नृत्य किये, बिना कोई पर्व मनाये जीवन जी पाना बहुत जटिल होगा ।

-      मनुष्य अपनी रची जटिलताओं में बुरी तरह उलझ चुका है । नाम और धर्म के बिना सांसारिक यात्रा की कल्पना इतनी असम्भव सी क्यों लगने लगी है!

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

धर्म की धार्मिक पहचान

             युवा भेड़िये ने बूढ़े शेर के सामने सफेद, काली, और चितकबरी बकरियों को खड़ा करके पूछा – बताओ, तुम इनमें से किस रंग की बकरी हो? जंगल की सत्ता भेड़िये के हाथ में थी इसलिये इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न का उत्तर देना शेर की बाध्यता थी । उसने कहा – मैं तो शेर हूँ, मैं अपना परिचय किसी बकरी के रूप में नहीं दे सकता । सत्ता ने शक्ति का प्रयोग करते हुये कठोरता से कहा – तुम्हारे सामने तीन प्रकार की बकरियाँ हैं, किसी भी पशु के परिचय के लिये इन तीन बकरियों को ही पूरे जंगल का स्टैण्डर्ड पैरामीटर बनाया गया है । जंगल के सभी पशुओं की पहचान सफेद, काली और चितकबरी बकरी में से ही कोई एक हो सकती है, इनसे परे किसी पशु की कोई पहचान हो ही नहीं सकती, यही मॉडर्न एनीमल कल्चर है ।     

मैं यह समझ पाने में असफल रहा हूँ कि जिस धर्म का कोई लिखित अस्तित्व ही नहीं है उसे स्वतंत्र भारत में मान्यता ही क्यों दी गयी ? क्या “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” को जानबूझकर विलोपित कर एक ऐसे नये शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका वास्तव में कोई प्रामाणिक और व्यावहारिक अस्तित्व ही नहीं है?

इस्लाम या ईसाइयत जैसे अर्थों में “हिन्दू धर्म” जैसा कुछ है ही नहीं । तब आख़िर क्या है भारत के लोगों का परम्परागत धर्म? वह धर्म जिसे लाखों वर्षों की साधना के अनंतर उन्होंने पहचाना, क्या है उस धर्म की पहचान? क्या है भारत के निवासियों की परम्परागत धार्मिक पहचान? धर्म से मनुष्य की पहचान होती है या मनुष्य से धर्म की पहचान होती है? भारत में क्राइस्ट और इस्लाम के प्रवेश के ठीक पूर्व धर्म जैसा कोई तत्व था भी या नहीं? ये सब तात्विक विमर्श के विषय हैं ।

लाखों वर्ष पूर्व जब मानव तो था किंतु मानव सभ्यता जैसी कोई बात नहीं थी, क्या तब भी धर्म जैसा कोई तत्व था ? मैं धर्म को विभिन्न संदर्भों में समझना चाहता हूँ । मैं सूर्य के प्रकाश में विभिन्न दृष्टव्य वस्तुओं को उनके वास्तविक स्वरूप में देखना चाहता हूँ । नदी, पर्वत, वन, वन में खड़े विभिन्न वृक्ष... ये सभी चीजें एक ही नहीं हैं, इनकी विविधताओं और विशेषताओं को देखने-समझने के लिये सूर्य के प्रकाश का होना हमारी प्रथम और अपरिहार्य आवश्यकता है । मैं धर्म को उसके तात्विक रूप में इसी तरह देखने-समझने का प्रयास करता हूँ ।

आदिम युग के उन दिनों में जब कि मानवसमाज जैसा कुछ भी नहीं था, यहाँ तक कि लोगों के नाम भी नहीं थे, उन्हें केवल उनके चेहरों और व्यवहार से ही पहचाना जाता था, धर्म का क्या स्वरूप रहा होगा?

भारतीय मनीषा ने प्रकृतिधर्म, पशुधर्म, वृक्षधर्म, मानवधर्म... आदि का सूक्ष्मता से अवलोकन-अध्ययन किया और इन सबको एक वृहद धर्म के रूप में समझने का प्रयास किया, मैं इस वृहद धर्म को ही “सनातनधर्म” के रूप में समझ सका हूँ । प्यास को पानी से ही बुझाया जा सकता है, पिपासा का यह एक सर्वमान्य और वैज्ञानिक धर्म है । भूख को किसी भक्ष्य वस्तु के सेवन से ही शांत किया जा सकता है, भूख का यह एक सर्वमान्य और वैज्ञानिक धर्म है । सनातनधर्म के इस तत्व को हम कितना समझ पा रहे हैं और उसमें कितने किंतु-परंतु खड़े कर विकल्प खोज रहे हैं, इस पर चर्चा होनी ही चाहिये ।

यदि आप सनातनधर्म के मौलिक तत्व से पृथक अपने व्यक्तिगत, सामाजिक या समूहगत किसी धर्म की पहचान के लिये युद्धरत हैं तो यह एक ऐसा युद्ध है जिसका धर्म के तत्वों से कोई लेना देना नहीं है । धर्म एक ऐसा मूल्य है जिसमें बहुलता और विविधता का कोई स्थान हो ही नहीं सकता ।

 

हिन्दू धर्म का आविष्कार  

            क्या सचमुच हिन्दूधर्म का आविष्कार बीसवीं शताब्दी में, यानी मात्र एक सौ साल पहले ही हुआ था? कौन थे वे लोग जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में हिन्दूधर्म का आविष्कार किया था? यह एक गम्भीर विमर्श का विषय है  

आई.आई.टी. दिल्ली में दर्शन शास्त्र पढ़ाने वाली प्रोफ़ेसर दिव्या द्विवेदी मानती हैं कि हिन्दू धर्म का आविष्कार बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इण्डिया की निम्नजाति के लोगों को दबाने के लिये किया गया था।

एक प्रश्न यह भी है कि जब वैदिक साहित्य में “हिन्दूधर्म” के नाम से किसी धर्म विशेष का उल्लेख ही नहीं है, तो “हिन्दूधर्म” को लेकर इतने विवाद की क्या आवश्यकता?  

क्या सचमुच भारत में “हिन्दूधर्म” का कोई अस्तित्व नहीं है? दुनिया में प्रचलित कई धर्मों के बारे में उनके धार्मिक ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं जो उनके अस्तित्व के भौतिक प्रमाण हैं।

जो लिखा गया है उसके अस्तित्व को मानना बाध्यकारी है किंतु जो लिखा नहीं गया, क्या वास्तव में उसका कोई अस्तित्व नहीं हो सकता? सभ्यता के आदिकाल में, जब कोई लिखने वाला नहीं था, जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, क्या यह माना जाय कि उस समय किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं था?   

वैदिक साहित्य में “धर्म” शब्द का प्रयोग किया गया है और कुछ संदर्भों में “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” का उल्लेख मिलता है जिसे परवर्तीकाल में भारतीयों के बीच “सनातनधर्म” के नाम से जाना जाता रहा । तत्कालीन ऋषियों ने मानव मात्र के लिये आचरणीय धर्म के लिये किसी विशेषण की आवश्यकता ही नहीं समझी । उन दिनों में धर्म खण्डित नहीं था और न उसकी कोई खण्डित पहचान थी । कोई मनुष्य या तो धर्म का आचरण करता था या फिर नहीं करता था । मानव या तो धार्मिक था या फिर अधार्मिक । तब पूरे विश्व के लिये धर्म का अर्थ ही सर्वकल्याणकारी आचरण हुआ करता था ।

आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी समस्या वह “पहचान” है जिसके वर्चस्व के लिये कोई कुछ भी करने के लिये तैयार रहता है । क्या, जब तक सूर्य को सूर्य के नाम से चिन्हित कर उसे आपका बनाया पहचानपत्र नहीं दे दिया जायेगा, तब तक सूर्य धरती को अपना प्रकाश नहीं देगा?  

विभिन्न भाषाओं में सूर्य के कई नाम और पर्याय तो हो सकते हैं किंतु मानवसमुदायों के संदर्भ में उसका कोई विशेषण नहीं हो सकता । इस्लामी सूर्य या वैदिक सूर्य जैसे शब्दों का कोई औचित्य नहीं है, यह ईश्वर की तरह सूर्य को भी बाँटने जैसा है -मेरा ईश्वर, तेरा ईश्वर, मेरा सूरज, तेरा सूरज । मानव जैसे-जैसे समुदायों में बँटता गया, वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ, और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पारस्परिक संघर्ष बढ़ते गये । धरती, आकाश और जल को बाँटा नहीं जा सकता, किंतु मानव समुदायों ने अपनी आवश्यकताओं के लिये उन्हें बाँट लिया । धरती बँटी देश बन गये, नदियाँ बँट गयीं, आकाश और समुद्र की सीमायें बँट गयीं । धरती, आकाश और जल को मेरे-तेरे में सीमित कर दिया गया, ईश्वर को मेरे-तेरे में सीमित कर दिया गया, धर्म को मेरे-तेरे में सीमित कर दिया गया । ईश्वर ने तो धरती को एक ही बनाया था, देश तो नहीं बनाये थे । उसी तरह धर्म एक ही था, एक ही है, अनेक हो ही नहीं सकते । स्वार्थी और दुष्ट लोगों ने अपनी आवश्यकता के लिये ईश्वर और धर्म को भी बाँट लिया ।

 

धर्म का बँटवारा 

विचारधारायें और जीवनशैली तो अनेक हो सकती हैं किंतु वास्तव में मानवधर्म अनेक नहीं हो सकते, सम्भव ही नहीं है । “धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्”॥

धर्म के इन दश लक्षणों में ऐसा कौन सा है जो मानवमात्र के लिये अनुपयुक्त है! मानवमात्र के लिये कल्याणकारी होने से धर्म को बाँटने की न तो कोई आवश्यकता थी और न कभी भारतीय ऋषियों ने वैदिक साहित्य में ऐसा कोई उल्लेख किया । यही कारण है कि वैदिक साहित्य में धर्म का उल्लेख तो है किंतु “हिन्दूधर्म” का कोई उल्लेख नहीं है । वास्तव में शासकीय-प्रशासकीय उद्देश्यों के अतिरिक्त हिन्दूधर्म का कोई अस्तित्व नहीं है, जिसका अस्तित्व है वह “धर्म” है । ज्यूज़सूर्य, पर्शियनसूर्य या हिन्दूसूर्य जैसे काल्पनिक सूर्यों का कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है, जिसका अस्तित्व है वह “सूर्य” है ।

समस्या तब उत्पन्न हुयी जब लोगों ने प्रकृति की न बाँटी जा सकने योग्य चीजों को भी बाँट दिया । बँटवारे से कभी कोई संतुष्ट नहीं होता, हर पक्ष को जो चाहिये वह सम्पूर्ण चाहिये, खण्डित नहीं । विचित्र स्थिति है, हम बाँटना भी चाहते हैं किंतु सम्पूर्ण भी चाहते हैं । कहने को तो मेरा देश, तेरा देश हो गया किंतु धरती हर पक्ष को पूरी चाहिये । विवाद यही है, संघर्ष यहीं से प्रारम्भ होता है ।

जिस तरह धरती को देशों में बाँट दिया गया उसी तरह धर्म को भी विशेषणों के साथ बाँट लिया गया । देश की पृथक पहचान के लिये ध्वजा चाहिये, धर्म की पृथक पहचान के लिये विभिन्न प्रतीक चाहिये । इन प्रतीकों में वसुधा खो गयी, धर्म खो गया, मिथ्या पहचानों के साथ हम सब अपने-अपने वर्चस्वों के लिये जूझने लगे, अपने-अपने धर्म विशेष के लिये रक्तपात करने लगे, “धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः धीर्विद्या सत्यमक्रोधः” का इस रक्तपात में कोई स्थान नहीं । वास्तव में, दुनिया के सामने जिन अर्थों में ईसाई और इस्लाम विशेषणों के साथ धर्म नाम की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया, उसकी “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” या “सनातन धर्म” से किसी भी प्रकार की कोई तुलना नहीं की जा सकती ।  

जब अँधेरा ही अँधेरा हो तो प्रकाश के लिये उद्यम तो करना होगा । धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः धीर्विद्या सत्यमक्रोधःके लिये कोई तो उद्यम करना होगा । यह उद्यम उन उद्यमियों को पृथकतावादी भीड़ से पृथक करता है और उन्हें एक नयी पहचान देता है । इस नयी पहचान को तत्कालीन भारतीय समाज ने “हिन्दुकहकर सम्बोधित किया । हजारों वर्ष पूर्व रचित “बृहस्पति आगम” वैदिकोत्तर साहित्य है जिसमें भारतीय मनीषियों ने हिंदुस्थान को परिभाषित किया है – “हिमालयात् समारभ्य यावत् इंदु सरोवरम् । तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते”॥ हिमालय से लेकर इंदु सरोवर (हिन्द महासागर) तक विस्तृत एवं देवताओं द्वारा निर्मित देश का नाम हिन्दुस्थान है जहाँ के लोग हिन्दु नाम से जाने जाते हैं । इस देश में रहने वाले उन सभी लोगों को हिन्दू माना गया जो “हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरितः” का आचरण करते थे । इस देश के निवासियों की कुछ और भी विशेषतायें हुआ करती थीं – “ॐकार मूलमंत्राढ्यः पुनर्जन्म दृढ़ाशयः । गोभक्तो भारतगुरुः हिन्दुर्हिंसनदूषकः” ॥ कालांतर में विदेशियों की दृष्टि में हिन्दुओं की यही आचरणगत विशेषतायें उनकी पृथक पहचान बन गयीं । 

मेरे-तेरे धर्म के बँटवारे के बाद प्रश्न उठता है कि हिमालयात् समारभ्य यावत् इंदु सरोवरम् तक विस्तृत क्षेत्र वाले “प्राचीन हिन्दुस्थान” में रहने वाले हिन्दुओं का धर्म क्या था ? तत्व की बात तो यह है कि इस प्रश्न का कोई औचित्य ही नहीं है किंतु वर्तमान संदर्भों में जहाँ मेरे-तेरे का भाव प्रचण्डता के साथ हवा में उछाला जा रहा हो तो अनौचित्यपूर्ण प्रश्नों का भी उत्तर देना ही होगा, यह हमारी बाध्यता है । इस प्रश्न का तात्विक उत्तर होना चाहिये– “प्राचीन हिन्दुस्थान में रहने वाले लोगों का धर्म “धर्म” था । प्रश्नकर्ता को यह उत्तर पसंद नहीं है, उसे उत्तर में विशेषण चाहिये । तब अगला उत्तर होगा – “प्राचीन हिन्दुस्थान में रहने वाले लोगों का धर्म “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” या “सनातन धर्म” हुआ करता था । प्रश्नकर्ता को यही उत्तर चाहिये था । इस उत्तर में प्रयुक्त “वर्णाश्रम” शब्द को भारतीय सभ्यता का घृणित और निकृष्ट पक्ष बताकर दुष्प्रचारित किया जाने लगा । दुष्प्रचार इतना किया गया कि हिन्दुओं को अपनी वैज्ञानिक वर्णाश्रम व्यवस्था से आत्मग्लानि होने लगी । यह एक सांस्कृतिक-कूटनीतिक आक्रमण था जिसका सामना तत्कालीन हिन्दू नहीं कर सके । अ-धार्मिक धर्मोन्मादियों ने धर्म के नाम पर अपनी पृथक पहचान स्थापित कर ली और जो वास्तव में “धर्म” है वह धीरे-धीरे तिरोहित होने लगा । जब होली में हर कोई रंगों से पुता हो तो हर किसी की व्यक्तिगत पहचान छिप जाती है । व्यक्तिगत पहचान के लिये हर किसी को अपना नाम बताना पड़ता है । जब दो सेनाओं के बीच युद्ध हो रहा हो तो दोनों पक्षों के सैनिकों की वेशभूषा और ध्वज में समानता नहीं रखी जा सकती । यहाँ पृथक पहचान का महत्व युद्धनीति की दृष्टि से अनिवार्य है । जब धर्म के तत्व मानव आचरण से तिरोहित होने लगें तो अपनी व्यक्तिगत पहचान के लिये हर किसी के सामने अपने प्रतीकों का बखान करने की बाध्यता हो जाती है ।    

स्वतंत्र भारत के शासकीय राजकाज में “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” या “सनातनधर्म” को किसी धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, बल्कि इस्लाम और ख्रीस्त की तरह ही हिन्दू धर्म को स्थान दिया गया है । यह एक विचित्र और विरोधाभासी स्तिति है, धर्म नाम से कई विचारधाराओं के अस्तित्व को तो स्वीकार कर लिया गया किंतु देश की शासकीय व्यवस्था को धर्मनिरपेक्ष बना दिया गया । यह बहुत बड़ा वैचारिक घालमेल है जिसमें सत्य को अस्वीकार करते हुये असत्य को सत्य परिभाषित कर दिया गया है । हमें “हिन्दू धर्म” की इस बलात ओढ़ाई गयी पहचान के साथ ही “वैदिक वर्णाश्रम धर्म” जो कि सनातन है, की पुनर्स्थापना के लिये संघर्ष करना होगा । शेर को अपने अस्तित्व के लिये सफेद, काली या चितकबरी बकरी में से किसी एक पहचान के साथ ही अपनी वास्तविक पहचान के लिये आगे बढ़ना होगा

सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

वेनेज़ुएला की राह पर भारत

         फ़्री की सुविधाओं, कर्ज़माफ़ी, भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन से जनता को सुख पहुँचाने वाला अमीर देश वेनेज़ुएला अब कंगाल हो चुका है । भारत के लोगों को भी फ़्री लैपटॉप, फ़्री साइकिल, फ़्री शादी, फ़्री मकान, फ़्री गैस, फ़्री यात्रा-पास, फ़्री वैक्सीन, फ़्री अनाज, फ़्री गुड़, फ़्री साड़ी-कम्बल, फ़्री की एक पाव दारू, सबसिडी और कर्ज़माफ़ी की लत पड़ चुकी है । भारत की प्रजा इस तरह की फ़्री सुविधाओं से ख़ुश है । बधाई हो, भारत भी वेनेज़ुएला हो जाने की दिशा में निरंतर अग्रसर है ।

हम लोग जुगाड़ू हैं, जिस दिन हम भी वेनेज़ुएला की तरह कंगाल हो जायेंगे उसी दिन या तो हम मैक्सिको बन जायेंगे या फिर अफ़गानिस्तान । दोनों देशों में बहुत से ग़रीब लोग ड्रग्स के सहारे जिये जा रहे हैं । हम अफ़गानियों की तरह अपने घर के पीछे अफ़ीम बोयेंगे, हमेशा पिन्नक में पड़े रहेंगे, रोटी के लिये अपने बच्चों को बेच देंगे, मौज ही मौज होगी । हमें कुटीर उद्योग नहीं, सरकारी नौकरी चाहिये । हमें मेहनत की रोटी नहीं, फ़्री में सब कुछ चाहिये । हमने पिछले कई दशकों से निकम्मेपन की फसलें बोयी हैं, ज़ल्दी ही हम फसल काटेंगे... वेनेज़ुएला की तरह ।

भारत की प्रजा को ऐसा राजा चाहिये जो उसे सब कुछ फ़्री में देता रहे । इन विषाक्त सुविधाओं के मोह से भारत की प्रजा को मुक्त होने की तनिक भी इच्छा नहीं है । फ़्री सुविधाओं के विरोध में किसी जन-आंदोलन की बात तो सोची भी नहीं जा सकती । मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ उस दिन की जिस दिन कोई हिज़ाब वाली इस देश की प्रधानमंत्री बनेगी और भारत में चारो ओर जन्नत ही जन्नत ही होगी ।

लूट सके जो लूट

भारत को कोई भी लूटकर विदेश भाग सकता है, बहुत मुश्किल नहीं है यह काम । यहाँ की बैंक्स बिना पर्याप्त गारंटी के बहुत अमीर लोगों को कर्ज़ा देने में कुशल हैं । बैंक लुटेरे विजय माल्या और नीरव मोदी के बाद अब एक और एबीजी. शिपिंग कम्पनी ने कुछ बैंक्स को बुरी तरह लूट लिया । हजारों करोड़ की लूट का यह काँड सन 2012 से 2017 तक चलता रहा जिसके विरुद्ध 2022 में रिपोर्ट दर्ज़ की गयी । रिपोर्ट पर जाँच संस्थित की जायेगी जो तब तक चलेगी जब तक कर्ज़दार मर नहीं जायेंगे, इस बीच कुछ नयी पीढ़ियाँ जन्म ले चुकी होंगी जिन्हें कभी कुछ पता नहीं चलेगा ।

बैंक में ग़रीब आदमी पैसा रखता है, अमीर आदमी अपना पैसा धंधे में लगाता है, यानी बैंक्स ने गरीबों का पैसा अमीरों को दे दिया । ऐसी घटनायें बारम्बार होती हैं, किसी पर कोई नियंत्रण नहीं । चूँकि कोई बैंक इन अमीर कर्ज़दारों से कोई गारण्टी नहीं लेता इसलिये कोई बैंक किसी ग़रीब आदमी को भी बैंक में जमा उसके पैसे की कोई गारण्टी नहीं देता । अब अपना पैसा बैंक में रखना ख़तरनाक हो गया है, धंधे में लगाओ या फिर जमीन में गाड़कर रखो, पुराने सेठों और राजाओं की तरह ।

सावधान! बैंक्स आपकी जमाराशि के लिये उत्तरदायी नहीं हैं । बाकी आपकी इच्छा ।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2022

वर्ज्य साहित्य के गर्भ में

         विप्र जी साहित्यकार हैं इसलिये अपने परिवेश की समस्याओं से निरपेक्ष होकर केवल प्रेम की कविता लिखते हैं जिसमें अरबी-फ़ारसी में पिरोये कुछ शब्दों के साथ रंगीन फूलों का एक गुलदस्ता अवश्य होता है । उनका हठ होता है कि वे जो प्रतिबिम्बित कर रहे होते हैं, या प्रतिबिम्बित करेंगे उसे ही साहित्य माना जाय । वे निर्लिप्त भाव से “भावों में डूबी” कविता लिखते हैं, …बहुत सँभलकर ...कहीं कोई ऐसी बात कविता में न आ जाय जिससे समाज का वास्तविक प्रतिबिम्ब लोग देख लें । प्रतिबिम्ब में केवल ग़ुलाब के फूल ही होने चाहिये, भूल से भी काँटे न आ जाएँ इतनी सावधानी रखनी होगी । पौधे पर गुलाब न खिला हो तो कागज का बनाकर वहाँ हिलगाया जा सकता है ।

वे राजा को प्रसन्न करना चाहते हैं, स्वयं को आधुनिक सिद्ध करना चाहते हैं और इसलिये “हिन्दू” शब्द से जुड़ी किसी भी बात के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते । हिन्दू शब्द से जुड़ी हर बात को पचड़ा मानने वाला यह वर्ग स्वयं को प्रगतिवादी सिद्ध करने के लिये आयातित धर्मों और उनकी परम्पराओं की प्रशंसा करते नहीं थकता । धर्मों में केवल हिन्दू धर्म को ही “धर्म” की श्रेणी से बाहर मान लिया गया है इसलिये उसकी दुर्दशा पर सोचना भी उनके लिये एक वर्ज्य विषय है । साहित्य के ये मठाधीश हिन्दू धर्म, भारतीय संस्कृति और भारत के प्राचीन गौरव पर कविता लिखने वालों का कठोरतापूर्वक बहिष्कार कर दिया करते हैं । भारत के इस वर्तमान परिदृश्य में एक और अफ़्रीका की आहट स्पष्ट सुनायी दे रही है, क्या आप उस आहट को सुन पा रहे हैं ?

अफ़्रीका में पवित्र ग्रंथ

उन्हें न प्रेम मिलान मन की शांति मिली, न रोटी मिलीमिला तो केवल युद्ध ।

इन्होंने उनका दिया एक-एक कम्बल ओढ़ा और अपने ही भीड़ में खो गये । उस समय सर्दी नहीं थी, किंतु उन्हें ओढ़ने के लिये कम्बल दे दिये गये । पूरे अफ़्रीका ने कम्बल ओढ़ लिये और अपने ही लोगों के बीच खोते चले गये, …और अब वे आपस में ही एक-दूसरे के लहू के प्यासे हो गये हैं ।

उनकी अपनी हजारों साल पुरानी वनवासी परम्परायें थीं और आस्थायें थीं । कुछ लोग बाहर से आये, स्थानीय लोगों को प्रेम और शांति का स्वप्न दिखाया और उनके हाथों में एक पवित्र ग्रंथ थमा दिया । कुछ साल बाद कुछ और लोग आये और उन्होंने उन्हें बहत्तर हूरों के साथ अंगूर की शराब का सपना दिखाया और उनके हाथों में एक अन्य पवित्र ग्रंथ थमा दिया । बुरुण्डी के 91.3 प्रतिशत लोग प्रभु की शरण में चले गये, 2.1 प्रतिशत लोग अल्लाह की शरण में चले गये । बुरुण्डी के गाँवों में भूख है, कुपोषित बच्चे हैं, फटे कपड़े पहने लोग हैं ...वे अब अफ़्रीका के वनवासी नहीं, ईसाई या मुसलमान हैं । वयोवृद्ध पूछते हैं, कि उन्हें क्या मिला ?

उन्हें पवित्र ग्रंथ मिले जिसके बदले में उन्होंने कब अपने सारे संसाधन विदेशियों को सौंप दिये, उन्हें पता ही नहीं चला ।

टिग्रे के लोग उत्तेजित हैं और उन्होंने इत्योपिया में अपनी ही सरकार के विरुद्ध हिंसक युद्ध प्रारम्भ कर दिया है । इरिट्रिया में रक्तपात हो रहा है । अफ़्रीका के बहुत से देश भूख और आपसी विद्रोह के शिकार हो रहे हैं । नाइज़ीरिया जैसे देश अपराध में डूबते जा रहे हैं । आज उनके पास विदेशियों के दिये हुये पवित्र ग्रंथ हैं, भूख है, अपराध की लहर है और रक्तपात है ।

नयी प्रगति यह है कि कर्नाटक के दो विद्यालयों में आर.एस.एस. की कुछ बेटियों ने नमाज पढ़ डाली । पहले उन्होंने प्राचार्य से अनुमति माँगी, अनुमति नहीं मिली तो स्वयं को अनुमति देते हुये उन्होंने कक्षा में ही नमाज पढ़ ली । पवित्र पुस्तक के सहारे भारत में तो प्रगति हो ही रही है, अफ़्रीका की अफ़्रीका जाने ।