कई वर्ष पूर्व शिलॉन्ग के एक साहित्यिक कार्यक्रम में “भयवाद” के लेखक देशसुब्बासँग से भेंट हुयी थी। उन्होंने सत्ता, शासन और अनुशासन के मूल में स्थित भयवाद पर गहन चिंतन करने के बाद अपने विचारों को पुस्तक में सँजोया है। नेपाली मूल के देशसुब्बासँग मानते हैं कि सत्ता की जड़ें “भय” में समायी हुयी रहती हैं। भयभीत होने और भयभीत करने से इन जड़ों का पोषण होता है जिससे सत्ता की आवश्यकता और फिर उसकी स्थापना होती है।
देशसुब्बा की बात को आज हम सब संसदीय चुनाव प्रचार में प्रमाणित होता हुआ देख रहे हैं। “भयवाद” सत्ता का मूल है पर इसका बहुत विकृत स्वरूप आज हम सब भारत में देख पा रहे हैं। राजनीतिक दलों के प्रत्याशी एक दूसरे के विरुद्ध इस प्रकार का प्रचार करने लगे हैं जिससे मतदाताओं में भय व्याप्त हो। प्रत्याशी इस भय से मुक्ति दिलाने का आश्वासन दे कर मतदाता को लुभाने का प्रयास करते हैं। संक्षेप में समझा जाय तो देशसुब्बासँग का यही भयवाद का दर्शन (फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ फ़ियरिसज़्म) है।
भारत की जनता को भयभीत किया जा
रहा है कि मोदी संविधान को समाप्त कर देंगे। यदि मोदी जीते तो यह भारत का अंतिम
चुनाव होगा।
भय उत्पन्न करने वाले राजनेता
और प्रवक्तागण यह नहीं बताते कि पिछले दस वर्षों में मोदी ने कितनी बार इस तरह के
प्रयास किये हैं? जबकि वास्तविकता यह है कि इस तरह का आरोप लगाने
वाले लोग स्वयं कई बार “इवोल्यूशन” के नाम पर संविधान की
आत्मा को कलंकित करने का प्रयास करते रहे हैं।
संविधान में कांग्रेस द्वारा
पहले से ही किये जा चुके एक परिवर्तन को मोदी ने २०१४ में समाप्त कर उसे पूर्ववत्
करने का प्रयास किया पर सफल नहीं हो सके। सरल शब्दों में कहें तो संविधान में की
गयी छेड़छाड़ को समाप्त करने का प्रयास मोदी सरकार द्वारा किया गया था। कांग्रेस ने
जो काँटा संविधान में चुभा दिया था मोदी सरकार द्वारा उसे निकालने के प्रयास को
क्या कहा कहा जाना चाहिये? यह
भारत की जनता को तय करना होगा। यह काँटा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में
न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से सम्बंधित उस नियम में चुभाया गया था जो
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों में
संतुलन स्थापित करने के लिये संविधान सभा द्वारा निर्णीत था। कॉलेजियम प्रणाली से
सम्बंधित इस काँटे ने “विचार-विमर्श” के स्थान पर “सहमति” शब्द जोड़ते हुये असंतुलन
उत्पन्न किया और न्यायपालिका को सर्वोच्च शक्ति से सम्पन्न कर दिया।
वर्ष २०१४ में मोदी सरकार की स्थापना से पहले ही संविधान में ९८
बार कांग्रेस शासन काल में किये गये संशोधन यह संकेत करते हैं कि या तो हमारा
संविधान पूर्ण और पर्याप्त नहीं था, या
फिर राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिये संविधान में संशोधन किये। आज का विपक्ष
चाहता है कि संविधान में संशोधन के अधिकार केवल उनके पास ही सुरक्षित रहने चाहिये,
मोदी के पास नहीं। इस एकाधिकार को क्या कहा जाना चाहिये? यह भारत की जनता को तय करना होगा।
सही अर्थों में “विचार-विमर्श” की व्याख्या
“सहमति” करते हुये संविधान से छेड़छाड़
तो स्वयं न्यायपालिका ने ही की है। कांग्रेस शासनकाल में ही विधायिका ने भी २००४ में
मुसलमानों को अनुसूचित जाति की सूची में जोड़ने के उद्देश्य से रंगनाथ मिश्र आयोग
का गठन किया और अनुसूचितजाति-अनुसूचितजनजाति के प्रकरणों के समाधान का अधिकार
राष्ट्रपति से छीनकर अपने पास रख लिया।
इन दोनों प्रकरणों में
न्यायपालिका एवं विधायिका द्वारा अपनी शक्तियों से परे जाते हुये संविधानप्रदत्त
शक्ति-संतुलन को पहले ही विकृत किया जा चुका है, मोदी इस शक्तिसंतुलन को संविधान में पुनः स्थापित करना चाहते हैं। यह
संविधान को समाप्त करना या परिवर्तन करना नहीं, बल्कि
संविधान में किये गये परिवर्तनों को समाप्त कर संविधान की मूल आत्मा को पुनर्जीवित
करना है।