शुक्रवार, 31 मई 2024

क्या मोदी संविधान को समाप्त कर देंगे?

               कई वर्ष पूर्व शिलॉन्ग के एक साहित्यिक कार्यक्रम में “भयवाद” के लेखक देशसुब्बासँग से भेंट हुयी थी। उन्होंने सत्ता, शासन और अनुशासन के मूल में स्थित भयवाद पर गहन चिंतन करने के बाद अपने विचारों को पुस्तक में सँजोया है। नेपाली मूल के देशसुब्बासँग मानते हैं कि सत्ता की जड़ें “भय” में समायी हुयी रहती हैं। भयभीत होने और भयभीत करने से इन जड़ों का पोषण होता है जिससे सत्ता की आवश्यकता और फिर उसकी स्थापना होती है।

देशसुब्बा की बात को आज हम सब संसदीय चुनाव प्रचार में प्रमाणित होता हुआ देख रहे हैं। “भयवाद” सत्ता का मूल है पर इसका बहुत विकृत स्वरूप आज हम सब भारत में देख पा रहे हैं। राजनीतिक दलों के प्रत्याशी एक दूसरे के विरुद्ध इस प्रकार का प्रचार करने लगे हैं जिससे मतदाताओं में भय व्याप्त हो। प्रत्याशी इस भय से मुक्ति दिलाने का आश्वासन दे कर मतदाता को लुभाने का प्रयास करते हैं। संक्षेप में समझा जाय तो देशसुब्बासँग का यही भयवाद का दर्शन (फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ फ़ियरिसज़्म) है।

भारत की जनता को भयभीत किया जा रहा है कि मोदी संविधान को समाप्त कर देंगे। यदि मोदी जीते तो यह भारत का अंतिम चुनाव होगा।

भय उत्पन्न करने वाले राजनेता और प्रवक्तागण यह नहीं बताते कि पिछले दस वर्षों में मोदी ने कितनी बार इस तरह के प्रयास किये हैं? जबकि वास्तविकता यह है कि इस तरह का आरोप लगाने वाले लोग स्वयं कई बार “इवोल्यूशनके नाम पर संविधान की आत्मा को कलंकित करने का प्रयास करते रहे हैं।

संविधान में कांग्रेस द्वारा पहले से ही किये जा चुके एक परिवर्तन को मोदी ने २०१४ में समाप्त कर उसे पूर्ववत् करने का प्रयास किया पर सफल नहीं हो सके। सरल शब्दों में कहें तो संविधान में की गयी छेड़छाड़ को समाप्त करने का प्रयास मोदी सरकार द्वारा किया गया था। कांग्रेस ने जो काँटा संविधान में चुभा दिया था मोदी सरकार द्वारा उसे निकालने के प्रयास को क्या कहा कहा जाना चाहिये? यह भारत की जनता को तय करना होगा। यह काँटा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से सम्बंधित उस नियम में चुभाया गया था जो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों में संतुलन स्थापित करने के लिये संविधान सभा द्वारा निर्णीत था। कॉलेजियम प्रणाली से सम्बंधित इस काँटे ने “विचार-विमर्श” के स्थान पर “सहमति” शब्द जोड़ते हुये असंतुलन उत्पन्न किया और न्यायपालिका को सर्वोच्च शक्ति से सम्पन्न कर दिया।

वर्ष २०१४ में मोदी सरकार की स्थापना से पहले ही संविधान में ९८ बार कांग्रेस शासन काल में किये गये संशोधन यह संकेत करते हैं कि या तो हमारा संविधान पूर्ण और पर्याप्त नहीं था, या फिर राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिये संविधान में संशोधन किये। आज का विपक्ष चाहता है कि संविधान में संशोधन के अधिकार केवल उनके पास ही सुरक्षित रहने चाहिये, मोदी के पास नहीं। इस एकाधिकार को क्या कहा जाना चाहिये? यह भारत की जनता को तय करना होगा।    

सही अर्थों में विचार-विमर्शकी व्याख्या सहमतिकरते हुये संविधान से छेड़छाड़ तो स्वयं न्यायपालिका ने ही की है। कांग्रेस शासनकाल में ही विधायिका ने भी २००४ में मुसलमानों को अनुसूचित जाति की सूची में जोड़ने के उद्देश्य से रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन किया और अनुसूचितजाति-अनुसूचितजनजाति के प्रकरणों के समाधान का अधिकार राष्ट्रपति से छीनकर अपने पास रख लिया।

इन दोनों प्रकरणों में न्यायपालिका एवं विधायिका द्वारा अपनी शक्तियों से परे जाते हुये संविधानप्रदत्त शक्ति-संतुलन को पहले ही विकृत किया जा चुका है, मोदी इस शक्तिसंतुलन को संविधान में पुनः स्थापित करना चाहते हैं। यह संविधान को समाप्त करना या परिवर्तन करना नहीं, बल्कि संविधान में किये गये परिवर्तनों को समाप्त कर संविधान की मूल आत्मा को पुनर्जीवित करना है।    

 

संविधान बचाओ

        संविधान के जन्म की कहानी लगभग आठ सौ वर्ष पुरानी है। यानी आठ सौ वर्ष पहले किसी भी देश का कोई संविधान नहीं हुआ करता था। दुनिया का पहला संविधान ब्रिटेन में लिखा गया और १५ जून सन् १२१५ को तत्कालीन राजा द्वारा जनता के हित में लागू किया गया। संविधान का अर्थ है एक ऐसा अभिलेख जो किसी भी देश के शासक और वहाँ की जनता के बीच बनी सहमति से लिखा और लागू किया जाता है। भारत का संविधान संविधानसभा के सदस्यों के बीच बनी आपसी सहमति का अभिलेख है।

        भारतीय संविधान को बचाने की बात की जा रही है। कैसे बचेगा संविधान, यह किसी ने नहीं बताया। सब एक ही बात कहते हैं कि संविधान बचाने के लिये मोदी को भगाओ और मुझे प्रधानमंत्री बनाओ। झोली फैलाये राजनेता प्रधानमंत्री का पद माँग रहे हैं। उनका अश्वासन है कि वे इसके बदले में संविधान को बचा लेंगे।

        क्या इससे पहले कभी संविधान को बचाया किसी ने? सन् २०१४ से पहले तक संविधान में ९८ बार संशोधन किये जा चुके थे, तब तो किसी ने नहीं बचाया था संविधान को। संविधान की आत्मा को तोड़ा-मरोड़ जाता रहा, उसमें लिखे शब्दों की ग़लत व्याख्यायें की जाती रहीं, व्यक्तिगत हित में संविधान के साथ छेड़छाड़ की जाती रही और उसकी आत्मा को ठेस पहुँचायी जाती रही तब किसी को संविधान बचाने की चिंता क्यों नहीं हुयी?

        संविधान बचाने का अर्थ है संविधान को यथावत् उसके मूल रूप में बनाये रखना, न कि व्यक्तिगत हित के लिये उसमें परिवर्तन करना!

        संविधान निर्माण के समय संविधानसभा के सदस्यों द्वारा यह अपेक्षा की गयी थी कि सभा में निर्णीत सभी विषयों और अनुबंधों को विधायिका, न्यायपालिक और कार्यपालिका द्वारा यथावत् माना जायेगा और संविधान में अभिलिखित विषयों पर न कभी पुनर्विचार किया जायेगा और न उसमें काट-छाँट की जायेगी। किंतु ऐसा नहीं हुआ, संविधान में लिखित रामराज्य की अवधारणा की धज्जियाँ उड़ायी जाती रहीं, सर्वधर्मसमभाव के स्थान पर “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को स्थान दे दिया गया और निर्धारित समयावधि के लिये लागू किये गये आरक्षण को स्थायी बना दिया गया जिससे आरक्षण का मूलउद्देश्य ही समात हो गया।

        अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों की स्थिति का अध्ययन करने के बहाने संविधान के विरुद्ध जाकर देश में धार्मिक और भाषायी भेदभाव के द्वारा समाज को खंडित करने के लिये वर्ष २००४ में तत्कालीन सरकार द्वारा रंगनाथ आयोग का गठन किया गया। सरकार इतने से ही संतुष्ट नहीं हुयी इसलिये बाद में उसने मुस्लिमों और ईसाइयों की कुछ जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में सम्मिलित करने की जाँच का दायित्व भी आयोग को सौंप दिया। आयोग के प्रतिवेदन के आधार पर मनमोहन सिंह की सरकार ने उसे लागू करने की अनुशंसा भी कर दी किंतु बढ़ते विरोधों और विवादों के कारण यह स्वीकार नहीं किया जा सका।

        कांग्रेस सरकार मुसलमानों और ईसाइयों की कुछ जातियों को संविधान के विरुद्ध जाकर अनुसूचित जाति में सम्मिलित करना चाहती थी। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विवादित प्रकरणों के समाधान के लिये संविधान के अनुच्छेद ३३८ में राष्ट्रपति द्वारा एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है। कांग्रेस सरकार ने संविधान में संशोधन करते हुये “अधिकारी की नियुक्ति” को अनुसूचितजाति-जनजाति “आयोग के गठन” में स्थानापन्न कर दिया। संविधान बचाने की गुहार लगाने वाले लोग तो संविधान को खेत की मूली समझ कर मनमाने ढंग से अपने लिये प्रयुक्त करते रहे, आज उन्हें संविधान की चिंता हो रही है!     

गुरुवार, 30 मई 2024

गांधी का प्रबल विरोधी होता

         भारत में ही नहीं, विदेशों में भी मोहनदास करमचंद गांधी को विश्वनायक के रूप में अतिसम्मानजनक स्थान प्राप्त है। तथापि, गांधी की नीतियों, आदर्शों और आचरण के प्रशंसक एवं उपदेशक स्वयं उनकी नीतियों और आचरण का अनुसरण नहीं करते। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि गांधी की अधिकांश नीतियाँ, आदर्श और आचरण व्यावहारिक नहीं थे!

वर्धा के सेवाग्राम में गांधी के बाद उनके पदचिन्हों पर जैसे-तैसे चलने का प्रयास किया जा रहा है। गांधी की स्वावलम्बनमुखी शिक्षा प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था की ही तरह थी जो बहुत व्यावहारिक हो सकती थी यदि गांधी के अनुयायियों ने उसे उसी रूप में समझकर अपना लिया होता। गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहर लाल जानते थे कि स्वावलम्बनमुखी शिक्षा वास्तव में शिक्षा से अधिक व्यावसायिक दक्षता है जो वंशपरम्परा के साथ आगे बढ़ती और निखरती है। प्राचीन और मध्यकालीन भारत में उत्कृष्ट कुटीर उद्योगों की सफलता के पीछे उत्तराधिकार से प्राप्त व्यावसायिक दक्षता ही थी जिसने भारत को सोने की चिड़िया बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जवाहर लाल पारिवारिक कुटीर उद्योगों के स्थान पर बड़े और अत्याधुनिक उद्योगों के पक्षधर थे। इस व्यवस्था में उद्योग का स्वामित्व कुलीन वर्ग को मिलता है और श्रम का दायित्व उद्योग में दक्ष व्यक्ति को दिया जाता है। इस व्यवस्था के बाद कुटीर उद्योगों के स्वामी श्रमिक बन गये और जिससे उत्पाद की गुणवत्ता प्रभावित हुयी। भारत के कुटीर उद्योगों को समाप्त करने में पहले अंग्रेजों और फिर जवाहरलाल की औद्योगिक नीतियों ने अपनी सारी शक्ति लगा दी थी।

जवाहरलाल और मोहनदास में कई विषयों पर मतैक्य नहीं हो पाता था फिर भी मोहनदास उन्हें भारत का सारथी बनाने के हठ पर अड़े रहे और अंततः भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के लिये जवाहरलाल का मार्ग प्रशस्त करने में सफल रहे। कई प्रकार की मानवीय दुर्बलताओं से ग्रस्त और हठी गांधी जीवन भर महानता के कवच में लिपटे आत्मसंतुष्टि के बोध से भरे रहे और अंततः भारत को दुर्बल हाथों में सौंप कर चले गये।

गांधी को पता था कि अंग्रेज उन्हें किसी भी स्थिति में आमरण अनशन से मरने नहीं देंगे। गांधी को यह भी अच्छी तरह पता था कि भारत की पराधीन जनता से निपटने के साथ-साथ देशी राजाओं और उनकी प्रजा से निपटने के लिये भी ब्रिटिश सत्ता को गांधी की बहुत आवश्यकता थी। गांधी अंग्रेजों के लिये स्वैच्छिकप्रस्तुत कवच की तरह थे जो भारतीय क्रांतिकारियों के उतने ही प्रबलविरोधी थे जितने कि अंग्रेज। गांधी जीवन भर भारत की शोषित प्रजा को अपने शोषण के विरुद्ध उग्र और हिंसक होने से रोकते रहे, अंग्रेजों को निष्कंटक राज्य करने के लिये भला और क्या चाहिये था!   

जॉर्ज ऑरवेल ने अपने एक पत्र में लिखा है कि “गांधी बीस सालों से ब्रिटिश शासन के दाहिने हाथ बने रहे। गांधी का आत्मबल एक तरह की रणनीति थी जिससे ब्रिटिशर्स को भारत पर शासन करने में आसानी हुयी”।

स्वाभिमान को पीड़ित करने वाली विदेशी दासता और पराधीनता से गांधी को कोई आपत्ति नहीं थी। यही कारण था कि वे आजीवन मुगल शासन के प्रशंसक और दीर्घकाल तक ब्रिटिश शासन के सहयोगी बने रहे। दीर्घकाल तक भारत में उनके आंदोलनों का उद्देश्य ब्रिटिश शासन व्यवस्था में सुधार और सत्ता में भारतीयों की सहभागिता की माँग ही हुआ करती थी न कि पूर्णस्वराज्य की माँग! वह बात अलग है कि अंग्रेजों के बढ़ते उत्पीड़न और क्रांतिकारियों एवं भारतीयों के दबाव के कारण परिवर्तित हुयी परिस्थितियों ने गांधी को पूर्ण स्वराज्य की माँग के लिये विवश कर दिया था।   

रोमिला थापर जैसे छद्म इतिहासकारों की तरह गांधी भी औरंगजेब को महिमामंडित करने और भारतीय इतिहास को विकृत करने में कभी पीछ नहीं रहे।

मोहनदास गांधी मानते थे कि “भारत में अंग्रेजों से पहले का समय भारतीयों के लिये दासता का समय नहीं था। मुगल शासन में हमें एक तरह का स्वराज्य प्राप्त था। अकबर के समय में महाराणा प्रताप का जन्म लेना सम्भव था और औरंगजेब के समय शिवाजी फल-फूल सकते थे, लेकिन एक सौ पचास वर्षों के ब्रिटिश शासन ने क्या एक भी प्रताप और शिवाजी को जन्म दिया है? कुछ सामंती राजा अवश्य हैं पर सब के सब अंग्रेजों के सामने घुटने टेक देते हैं और अपनी दासता स्वीकार करते हैं। ...क्या आज के शासकों के दरबार में बीरबल जैसा कोई मुँहफट और निर्भीक हो सकता है”? – कटक में २१ मार्च १९२१ को गांधी के सार्वजनिक भाषण का अंश।

यानी गांधी मानते थे कि महाराणा प्रताप, शिवाजी और बीरबल का जन्म लेकर जीवित रहना मुगलों की कृपा के कारण ही सम्भव हो सका। उनकी दृष्टि में भारतीय क्रांतिकारियों की वीरता और निर्भीकता का कोई मूल्य नहीं था। गांधी द्वारा भारतीय क्रांतिकारियों का यह अवमूल्यन अपमानजनक और सम्पूर्ण भारत के लिये लज्जाजनक है।   

औरंगजेब को सादगी और श्रमनिष्ठा का प्रतीक मानने वाले मोहनदास गांधी सार्वजनिक सभाओं में भी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। मोहनदास को भारतीय इतिहास में कोई ऐसा स्वदेशी उदाहरण नहीं मिला जिसकी वे प्रशंसा कर सकते। यदि अफ़्रीका में ब्रिटिशर्स द्वारा उनके साथ उत्पीड़न की घटनायें न हुयी होतीं तो वे अंग्रेजों के भी प्रशंसक और आजीवन सहयोगी बने रहते।

मुस्लिम शासकों की प्रशंसा के आगे उन्होंने हिंदूकुश के नरसंहार की पीड़ा को भी महत्व नहीं दिया। भारत में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा ढहाये गये मंदिरों, मुस्लिमसैनिकों द्वारा किये गये यौन-उत्पीड़नों, जजिया कर, बलात् धर्मांतरण और विश्वविद्यालयों को जलाकर राख कर देने की ऐतिहासिक घटनाओं ने भी मोहनदास गांधी को कभी पीड़ित नहीं किया। मोहनदास ने बंदा बैरागी और गुरु गोविंद सिंह जी को दी गयी प्रताड़नाओं को भी महत्व नहीं दिया। वे अपने भाषण में कहते हैं – “अंग्रेजों से पहले भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगों के इतने अधिक उदाहरण नहीं मिलते जितने कि आज। औरंगजेब के शासनकाल में हमें (हिन्दू-मुस्लिम दंगों का) कोई उल्लेख नहीं मिलता”। –एक नवम्बर १९३१ को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पेम्ब्रोक कॉलेज में मोहनदास के भाषण का अंश।

मोहनदास की दृष्टि में भारतीय आदर्शों का मूल्यांकन, हिन्दुओं की सहिष्णुता और समावेशी प्रवृत्ति का कोई अर्थ नहीं था। गांधी के हृदय की गहराई में हिन्दूविचारों की अपेक्षा मुस्लिमविचारों के प्रति आदरपूर्ण आग्रह के दर्शन होते हैं। उनका यह पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण भारत के हिन्दुओं के लिये बारबार घातक सिद्ध होता रहा पर मोहनदास को इससे कभी कोई प्रयोजन नहीं रहा।    

भारत की स्वतंत्रता के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाली क्रांतिकारी अजीजन बाई, जद्दन बाई, राजेश्वरी बाई, गौहर जान आदि महिलाओं को मोहनदास “कोठेवालियाँ” होने के कारण “नैतिकरूप से पतित” मानकर घृणा करते थे जिसके कारण उनका व्यवहार इन महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण हुआ करता था। मोहनदास गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उनके द्वारा प्रस्तावित आर्थिक सहयोग राशि को ठुकरा दिया था। कोठेवालियों के प्रति मोहनदास के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण एक अधिवेशन में पहुँची आमंत्रित कोठेवाली को पृथक से भोजन परोसा गया। गांधी अपने विचारों, दृष्टिकोणों और तरीकों को सर्वश्रेष्ठ मानते थे यही कारण है कि वे अपने साथियों को अपनी हर बात मनवाने के लिये अनशन का सहारा लेकर उन्हें विवश कर दिया करते थे। अहिंसा के पुजारी के रूप में प्रचारित किये गये मोहनदास की यह प्रवृत्ति क्या वैचारिक हिंसा नहीं थी?

मोहनदास और जवाहरलाल के समकालीन आदर्श व्यक्तियों में सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और अजीजन बाई जैसे लोगों का स्थान हर भारतीय के लिये कहीं अधिक आदर्श और आदरणीय है। यदि मैं मोहनदास गांधी के काल में रहा होता तो उनका प्रबल विरोधी होता। 

बुधवार, 29 मई 2024

शक्ति और शासन

- सतोगुण के बिना तप नहीं, रजोगुण के बिना शासन नहीं। यही व्यावहारिक सत्य है।        

- शक्तिविहीन शासकों को सत्ता से अपदस्थ होना पड़ता है, यही नियम है।

- भारत की पराधीनता के इतिहास से गांधी ने कोई पाठ नहीं पढ़ा, बल्कि वे जीवन भर नये आदर्श और नयी परिभाषायें थोपने के हठ में व्यस्त रहे और अंततः भारत को निर्बल हाथों में सौंप कर चले गये।

- गांधी के विरुद्ध टिप्पणी करने वाली साध्वी प्रज्ञा सिंह से कुपित रहने वाले नरेंद्र भाई मोदी ने भी इतिहास से वह नहीं सीखा जिसे सीखकर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी सत्ताधीशों के चंगुल से भारत को बचाया जा सकता।

- जवाहर लाल की निर्बलता ने नेपाल और भूटान को भारत संघ में सम्मिलित होने से रोका, कश्मीर का एक बड़ा भाग खोया ही नहीं बल्कि उसकी समस्या को स्थायी बना दिया, वीटो पॉवर लेने से मना ही नहीं किया बल्कि भारत के स्थान पर चीन को देने की अनुशंसा की, और सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा पर कभी ध्यान नहीं दिया जिससे अलगाववाद को प्रोत्साहन मिलता रहा।

- भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशी शासकों ने पाया कि “भारत में युद्ध शक्तिप्रदर्शन के लिये लड़े जाते हैं, आरपार के लिये नहीं”। वे भारतीय युद्ध परम्परा को देखकर विस्मित हुये और कहने लगे कि ऐसे युद्ध का क्या औचित्य जिसमें विजय के अवसरों को युद्धनीति के नाम पर हाथ से निकल जाने दिया जाता है। उन्होंने भारतीयों की शक्ति के इस स्वरूप को अपने हित में पहचान कर लाभ उठाया और उनसे सत्ता छीन ली। 

- भारतीय युद्धनीति के अनुसार सूर्य डूबने के बाद युद्ध बंद कर दिया जाता था, बिना चेतावनी के अनायास आक्रमण नहीं किया जाता था, स्त्रियों, बच्चों, निर्बलों और पीठ दिखाने वालों पर आक्रमण नहीं किया जाता था। शत्रुपक्ष के घायल हुये योद्धाओं की भी चिकित्सा की जाती थी। युद्ध में शत्रु को दिये गये वचनों का हर स्थिति में पालन किया जाता था। रात्रि में अचानक धोखे से आक्रमण करने वाले विदेशियों की दृष्टि में इस तरह की युद्ध नीति मूर्खतापूर्ण थी। भारत की पराधीनता में यह भी एक बहुत बड़ा कारण था।

- आधुनिक भारत की संघीय व्यवस्था में पश्चिम बंगाल और दिल्ली की प्रजा वहाँ के निरंकुश शासन का दंड भोग रही है। निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन का यह एक सफल प्रयोग है जिसके जनक लालू प्रसाद यादव जाने जाते हैं।

- भारत के प्राचीन इतिहास में दुष्ट एवं अत्याचारी राजाओं के उल्लेख मिलते रहे हैं, ऐसे उल्लेख भी मिलते रहे हैं कि अंततः उनका संहार करके ही समाज में शांति स्थापित की जा सकी।

- गांधी ने सत्ता और शासन के लिये अहिंसा का जो राग अलापा यह उसी का प्रभाव है कि अहिंसा ने प्रजा को निर्बल और सत्ताधीशों को निरंकुश बनने के लिये प्रोत्साहित किया।

- धर्मविहीन लोकतांत्रिक सत्ता व्यवस्थाओं में सत्ताधीशों को ऐसे विपक्ष की ऐषणा रहती है जो लोकहितकारी न हो। यही कारण है कि फ़ारुख़ अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती, ममता बनर्जी, सोनिया माइनो, रौल विंची, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और तेजस्वी यादव जैसे अयोग्य लोगों को राजनीति में बनाये रखने के लिये उनके आपराधिक कृत्यों के विरुद्ध चल रही किसी विधिक कार्यवाही को निर्णायक स्थिति तक पहुँचने ही नहीं दिया जाता।

- निर्बल और अयोग्य विपक्ष वैक्सीन बनाने के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले एटेनुएटेड विषाणु की तरह होता है जो अंततः सत्ता व्यवस्था का एक ऐसा वैरिएंट निर्मित कर देती है जो निरंकुश होती है। यही कारण है कि विपक्ष को मोदी के निरंकुश हो जाने का भय सताने लगा है।

- भारत का विपक्ष लोकहितकारी शासन व्यवस्था में अपनी रचनात्मक भूमिका से विमुख हो चुका है, उसका पूरा ध्यान एन-केन प्रकारेण सत्ता छीनने में ही लगा रहता है। तहर्रुश गेमिया की तरह सत्ता की छीन-झपट को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

-औद्योगिक और आर्थिक विकास के बाद भी भारतीय राजनीति अपने पतन की ओर निरंतर उन्मुख होती जा रही है। इस पतन के लिये जितने उत्तरदायी राजनेता हैं उससे भी अधिक उत्तरदायी वह जनता है जो राजनीति के अपराधीकरण में स्वयं को साधन के रूप में प्रयुक्त होने देती है।       

शुक्रवार, 24 मई 2024

करे कोई, भरे कोई

            जातियाँ तुम बनाओ, गालियाँ ब्राह्मणों और मनुस्मृति को दो।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से अब तक कई बार सत्ताधीशों द्वारा जातियों और उनके वर्गीकरणों में परिवर्तन किये जाते रहे हैं। सन् २०१६ में दरकोट (मुंश्यारी) के एक वयोवृद्ध ने मुझे बताया कि वह क्षत्रिय है पर सरकार ने उन्हें जनजातीय समुदाय का सदस्य घोषित कर दिया। संविधानप्रदत्त आरक्षण के लालच में कुछ जातीय समुदाय भी अपने समूह को अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, पिछड़ा वर्ग या दलित वर्ग में घोषित करने के लिये आंदोलन करने लगे हैं। आरक्षण के लालच में ये लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य नहीं बनना चाहते (वह बात अलग है कि अनुसूचित वर्ग के लोग अपने उपनामों में ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के उपनाम यथा – तिवारी, पांडे, तोमर, सेंगर, अग्रवाल और जैन आदि लिखने लगे हैं जिससे कि सवर्णों में आसानी से विवाह किये जा सकें)।

संविधान की यह कैसी दूरदर्शिता और श्रेष्ठता है जो समाज को आगे बढ़ने के स्थान पर पीछे जाने के लिये प्रोत्साहित कर रहा है? जातीय वर्गीकरण को कोसने वाले लोग जातीय वर्गीकरण में अपने आप को नीचे-और नीचे रखे जाने की माँग करने लगे हैं, फिर भी जातिवाद के लिये गालियाँ सत्ताधीशों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों और मनुस्मृति को ही देते हैं। ब्राह्मण गालियाँ सुन-सुन कर अपमानित होते हैं क्योंकि उन्हें वास्तव में सामाजिक रूप से दलित बना दिया गया है।

जातिनिर्माण और जातीय वर्गीकरण का यह क्रम आज तक चला आ रहा है। सरकार आयोग बनाती है, और आयोग के अधिकारी समाज का वर्गीकरण करते हैं। समाज को बाँटने का यह घृणित षड्यंत्र समाज के उत्थान के लिये नहीं, उसके पतन के लिये है। सत्ताधीश यहीं नहीं रुके, उन्होंने मुस्लिम समुदाय को भी आरक्षण का लाभ देने के लिए उनका जातीय वर्गीकरण करना प्रारम्भ कर दिया (इस सम्बंध में कोलकाता उच्चन्यायालय ने ममता बनर्जी सरकार के निर्णय को विधिसम्मत स्वीकार नहीं किया जिसके बिरोध में ममता ने हुंकार भर दी है – कोर्ट का निर्णय आमी मानबो ना)। स्मरण कीजिये, शाहबानो प्रकरण में भी सत्ता (कांग्रेस) ने न्यायालय के निर्णय को पलट दिया था। क्या इस तरह के सामाजिक और जातीय विभाजन के लिये ब्राह्मणों को दोष देना उचित है? क्या इसके लिये वेदों और मनुस्मृति को दोष देना उचित है?

कोपीनधारी ब्राह्मण तो भिक्षावृत्ति से ही संतुष्ट रहा है, तथापि उसका चिंतन व्यापक और लोकहितकारी रहा है। सुदामा की निर्धनता ही उसके बौद्धिक स्तर को श्रेष्ठ बनाती है। वास्तविकता तो यह है कि ब्राह्मण तभी तक ब्राह्मणत्व से सम्पन्न है जब तक वह धन और पद से दूर है। धन और पद मिलते ही फिर वह ब्राह्मण नहीं रह पाता। धन, ऐश्वर्य, भोग और पद में ब्राह्मण ही नहीं, किसी को भी पथभ्रष्ट कर सकने की क्षमता होती है।

जहाँ आर्थिक दरिद्रता है वहाँ सामाजिक दलन और उत्पीड़न है। इस दृष्टि से तो ब्राह्मण वास्तव में एक दलित समुदाय रहा है, आज भी है। प्रगतिशील साहित्यकार, जिनमें ब्राह्मण और क्षत्रिय भी हैं, पानी पी-पी कर मनुस्मृति और ब्राह्मणों को भारतीय कुरीतियों के लिये कोसते रहे हैं, आज भी कोसते हैं।

मनुस्मृतिकार ने वर्णों का उल्लेख किया है पर जातियों का नहीं। वर्ण वह शास्वत सत्य है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता। यह एक वैज्ञानिक वर्गीकरण है जो पूरी तरह गुणात्मक स्तर पर स्वनिर्धारित होता है। मैं इस विषय पर किसी से भी (विशेषकर प्रगतिशील और वामपंथी ब्राह्मणों से) विमर्श के लिये तैयार हूँ, बशर्ते आप गालियाँ न बकने लगें और तर्कपूर्ण तरीके से अपना पक्ष रखें।   

बुधवार, 22 मई 2024

स्वर्ग के द्वार पर नर्क का पहरा

             शायद कुछ गिर गया है जिसे वह उठाने का प्रयास कर रहा है ...वेरी स्लो मोशन में... यह प्रयास घण्टों तक चलता रहता है । उधर एक युवक कचरे के ढेर पर बहुत देर से एक ही मुद्रा में मूर्तिवत खड़ा है। इधर एक वृद्ध व्यक्ति बहुत देर से आगे और पार्श्व की ओर विचित्र किंतु कष्टकारी मुद्रा में बैठा हुआ है। पता नहीं, यह लड़की सोने की चेष्टा कर रही है या जागने की, वह युवक उठकर खड़े होने की चेष्टा कर रहा है या बैठने की ...। इस दुनिया से अपरिचित लोगों के लिये इन विचित्र मुद्राओं से कुछ अनुमान लगा पाना सरल नहीं है। यह एक अद्भुत दुनिया है जहाँ मनुष्य की देह में कुछ अज्ञात से जीव बसेरा करते हैं ...और इन मनुष्यों का अपना कोई बसेरा नहीं होता।

फ़िलाडेल्फ़िया (यानी भाई का प्रेम) की केन्सिंग्टन-एव में कुछ ऐसी बस्तियाँ हैं जो वास्तव में बस्तियाँ नहीं होतीं और जिन्हें देखकर चेतना काँप उठती है। बस्तीनुमा इन बसाहटों को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि तालिबान जैसे संगठनों के पास इतना अथाह पैसा कहाँ से आता है! यह हर किसी को पता है कि आतंकी संगठनों के अनैतिक और विनाशकारी उत्पादों के उद्योग दुनिया भर में फैले हुये हैं, फिर भी वह कौन सी विवशता है कि बड़े-बड़े सत्ताधीश इन पर अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं!

आज किसी और शहर चलने से पहले मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या आपने किसी शहर की सड़कों पर समंदरों के गाँव देखे हैं कभी, …व्हेयर एवरी ओशन कंटेन्स द सलाइन वाटर ऑफ़ आल द ओशंस ऑफ़ दिस अर्थ?

क्या फ़िलाडेल्फ़िया और लास एंजेलेस की उस दुनिया को स्टिग्मा ऑन द फ़ेस ऑफ़ सिविलायजेशनकहना उचित नहीं होगा? मैं ड्रग्स की बात कर रहा हूँ और बहुत सोच-विचार के बाद भी यह तय नहीं कर सका कि ड्रग्स एडिक्ट्स की दुनिया स्टिग्मा है या वह दुनिया स्टिग्मा है जो ड्रग्स का व्यापार करती है?

जॉम्बी-ड्रग मनुष्य को मूर्ति की तरह निर्विकार और संवेदनशून्य बना देती है। यह वह संसार है जो सुख की खोज में भटकते-भटकते दुःखों की प्रतिमूर्ति हो गया है।

अफ़गानिस्तान, बहमास, बोलीविया, कोस्टारिका, हैती, मेक्सिको, कोलम्बिया और वेनेजुएला जैसे देशों में मृत-जीवन जी रही एक विचित्र दुनिया के सामने सारी सृष्टि सिमट कर अदृश्य हो गयी है।  

एफ़टीआई से पढ़कर निकलने वाले लड़के-लड़कियाँ अक्सर एक ख़ूबसूरत सा सपना देखा करते हैं जिसमें एक ख़ूबसूरत सा शहर होता है, जहाँ बड़े बजट वाली ख़ूबसूरत फ़िल्में बनायी जाती हैं ...और जहाँ डॉलर्स की वारिश होती है। पिछले साल अचिंत्य ने जब अपने सपने के बारे में मुझे बताया तो मैं ख़ुश होने के स्थान पर भयभीत हो गया था, उसने मेरी आँखों को पढ़ा और बोला– “बी पॉज़िटिव... देयर इज़ हेल ...बट बिलीव ...देयर इज़ हैवेन टू। अचिंत्य का सपना मुझे आज भी भयभीत करता है। उस शहर में जाने वाले हर लड़के-लड़की के पास प्रारम्भ में पॉज़िटिव विज़न ही हुआ करता है किंतु वहाँ जाने के बाद वह विज़न कब धराशायी हो जाता है किसी को कानो कान ख़बर नहीं लगती ...और जब लगती है तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता है।

मैंने कहा – “हाँ! एक ख़ूबसूरत शहर ...जो अपनी ख़ूबसूरती से भी ज़्यादा बदसूरती लिये हुये नकली मुस्कान ओढ़े खड़ा रहता है। अचिंत्य ने कहा – “ओह नो...दीज़ आर सम डर्टी पैचेज़ ...ऐज़ इन कोलकाता एण्ड मुम्बई, द रियल ब्यूटी इज़ इनसाइड द काउन्टी... डोन्ट गो टुवर्ड्स डाउन टाउन ऑफ़ द लॉस एंजेलेस

जी हाँ ...लॉस एंजेलेस”, यही है वह शहर जहाँ सारी सीमाओं को पार कर दर्द के समंदर अपने में समाये कुछ लोग न जाने कैसे हिलते-डुलते रहते हैं। मैं उन्हें मृत नहीं कह सकता, जीवित भी नहीं कह सकता। मनुष्य जैसे दिखने वाले इन लोगों को मैं समंदर कहना चाहता हूँ। ख़ूबसूरत शहर की सड़कों के किनारों पर रहने वाले इन हजारों लोगों के पास घर नहीं होता। बर्फ़ीली सर्दी और वर्षा से बचने के लिये इन्होंने पॉलीथिन से घोसले बना लिये हैं कुछ-कुछ इग्लू जैसे। इन लोगों में कुछ शिक्षित हैं, कुछ अशिक्षित हैं, कुछ अपराधी हैं, कुछ अपने आप में खोये हुये हैं, कुछ भिखारी हैं, कुछ भिखारी न होते हुये भी भीख पर निर्भर हैं ... तो कुछ ऐसे भी हैं जो कचरे के डिब्बों में से खाने-पीने की चीजें खोजते हुये दिखायी दे जाया करते हैं। यह एक अलग ही दुनिया है जहाँ केंसिंग्टन-एव की तरह ड्रग-एडिक्ट्स की भरमार है। दे लिव इन वेरी अनहाइजेनिक कंडीशंस, मोस्ट ऑफ़ देम आर सफ़रिंग फ़्रॉम वेरी सीरियस डिस-ऑर्डर्स ।

उनके पास भोजन के लिये पैसे नहीं होते लेकिन उनमें से कई लोगों के पास हेरोइन, हशीश या कोकीन के लिये पैसे होते हैं। ड्रग्स के लिये ये लोग कुछ भी कर सकते हैं, पुरुष अपराध कर सकते हैं और लड़कियाँ वेश्यावृत्ति। ड्रग्स की आवश्यकता पूरी करने के लिये इनके पास ये ही दो सहज उपाय हुआ करते हैं।

मुम्बई की धारावी, लॉस एंजेलेस की इस घोसला बस्ती से लाख गुना अच्छी है। स्वर्ग के दरवाजे पर नर्क का पहरा देखना हो तो एक बार फ़िलाडेल्फ़िया या लॉस-एंजेलेस चले जाइये। बेहद बदनुमा दाग लिये इस बेहद ख़ूबसूरत शहर में डॉलर्स की वारिश होती है। महँगी कारें इन घोसलों के पास आकर रुकती हैं, कार से उतरने वाले व्यक्ति के हाथ में भोजन के पैकेट्स होते हैं ...घोसला बस्ती के लोगों को देने के लिये।

इन बस्तियों में हर उम्र के लोग रहते हैं, लड़कियाँ भी ...और वे स्त्रियाँ भी जिनका फ़र्टाइल पीरियड अभी समाप्त नहीं हुआ है ...और जिन्हें हर महीने मेंस्ट्रुएशन की एक विशिष्ट फ़िज़ियोलॉजिकल सायक्लिक कण्डीशन से हो कर गुजरना होता है। इन घोसलों में गर्भवती भी हैं और प्रसूतायें भी। इन स्त्रियों का नर्क, हर महीने कुछ दिनों के लिये कुछ और अधिक हो जाया करता है।

इस अधर्ममूलक विकास ने हमें एक आदमखोर सभ्यता की ओर ढकेल दिया है ...जहाँ या तो केवल अतिसम्पन्न लोग रहते हैं या फिर अतिनिर्धन। पश्चिमी देशों में संसाधनों, अवसरों और सम्पत्ति के ध्रुव बन जाया करते हैं जो आगे चलकर रक्तक्रांतियों को आमंत्रित करते हैं। आम आदमी की दृष्टि में घोसला बस्ती के लोगों की समाज के लिये कोई उपयोगिता नहीं होती सिवाय इसके कि वे ड्रग्स व्यापार की एक पहत्वपूर्ण कड़ी हुआ करते हैं। इस दृष्टि से देखा जाय तो वर्ल्ड-इकोनॉमी में उनकी भागीदारी भी कोई कम नहीं होती। आख़िर आने वाले लम्बे समय तक अफ़गानिस्तान में भी तालिबान का सबसे प्रमुख आर्थिक स्रोत अफीम ही रहने वाला है। तो क्या लॉस एंजेलेस की घोसला बस्ती को जानबूझकर स्टिग्मा बनाये रखा गया है ...गोया बुरी नज़र से बचाने के लिये ख़ूबसूरत चेहरे पर काला टीका?

गुरुवार, 16 मई 2024

लड़की हूँ, लड़ नहीं सकती

        स्त्री शोषण के विरुद्ध किसी पीड़िता स्त्री को न्याय के लिये खुलकर सामने आने का भाषण देना कितना सरल होता है और सामने आना कितना दुश्कर, इसका ज्वलंत उदाहरण है “मुख्यमंत्री के राजप्रसाद में अपनी पिटायी पर स्वाति मालीवाल का मौन”।

        वैशाख शुक्ल सप्तमी, दिन मंगलवार को पुष्य नक्षत्र में जमानती मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के राजप्रासाद में उनकी उपस्थिति में ही महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान राज्यसभा सांसद स्वाति मालीवाल को बुरी तरह पीट दिया गया। पीटने वाले थे मुख्यमंत्री के मित्र निजी सचिव विभव कुमार।

           मालीवाल ने अपने उत्पीड़न को लेकर पुलिस को कोई परिवाद लिख कर नहीं दिया। केजरीवाल भी अभी तक मौन ही हैं। कल केजरीवाल के मित्र सांसद संजय सिंह ने पत्रकारवार्ता में घटना होने की पुष्टि की किंतु किसी भी पक्ष से कोई पहल नहीं की गयी। घटना के बाद से अभी तक स्वातिमालीवाल अपने दोनों घरों से अनुपस्थित हैं। स्वतः संज्ञान लेने वाले किसी मीलॉर्ड ने भी कोई संज्ञान नहीं लिया। अब लाख टके का प्रश्न यह उठता है कि पीड़ित स्त्रियों को न्याय पाने के लिये पुलिस थाने जाकर परिवाद लिखवाने और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये प्रोत्साहित करने वाली स्वाति मालीवाल स्वयं अपने उत्पीड़न पर मौन क्यों हो गयीं?

            इसके उत्तर में दो अनुमान लगाये जा सकते हैं, एक तो यह कि स्वाति मालीवाल ने केजरीवाल और उनके मित्र विभव कुमार को इतना शक्तिशाली स्वीकार कर लिया है कि उन्हें मुँह खोलने के दुष्परिणामों की आशंका है जिसके कारण भयभीत मालीवाल ने मौन धारण करना ही अधिक उचित समझ लिया है। दूसरा यह, कि मालीवाल को वर्तमान व्यवस्था में संघर्ष करना व्यर्थ प्रतीत होता है और उन्हें अपने स्तर पर केजरीवाल से निपटने में अधिक विश्वास है। जो भी हो, दोनों ही बातें लोकतंत्र की निरर्थकता को प्रमाणित करने वाली हैं। प्रधानमंत्री को तानाशाह बताते हुये न थकने वाला मुख्यमंत्री स्वयं इतन बड़ा तानाशाह है कि सिटिंग सांसद भी उनके आगे अन्याय को स्वीकार करने के लिये विवश है। और यदि मालीवाल स्वयं अपने स्तर पर केजरीवाल से निपटने का मन बना चुकी हैं तो यह न्याय व्यवस्था की निरर्थकता को रेखांकित करने वाला और जनसामान्य को अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये हतोत्साहित करने वाला है।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष को राजनीतिक खाद की तरह प्रयुक्त करने वाले केजरीवाल का मौन उसके पापों की ओर संकेत करता है। भारतीय राजनीति को बहुत से नेताओं ने कलंकित किया है पर इतना कलंकित आज तक किसी ने नहीं किया जितना कि निर्लज्ज अरविंद केजरीवाल ने किया है।           

आज लखनऊ में केजरीवाल और अखिलेश यादव एक पत्रकारवार्ता में एक साथ दिखायी दिये तो पत्रकारों ने स्वाति मालीवाल की पिटायी के सम्बंध में केजरीवाल से प्रश्न पूछने प्रारम्भ कर दिये। केजरीवाल निस्पृह भाव से बैठे रहे जबकि स्वस्फूर्त चेतना से अखिलेश यादव ने इस प्रश्न का तुरंत उत्तर दिया – “स्वाति मालीवाल की पिटायी से भी अधिक महत्वपूर्ण कई विषय हैं। मैं लिखकर लाया हूँ। ये भाजपायी किसी के सगे नहीं हैं। ये नेताओं पर झूठे मुकदमे करने वाला गैंग है।“ अखिलेश यादव का यह उत्तर भारत के जन-जन को स्मरण रखना चाहिये।     

चाइना गर्ल और अमेरिका का नर्क

        एल.ए. और फ़िलाडेल्फ़िया संयुक्त राज्य अमेरिका के विख्यात महानगर हैं जो अपनी कई विशेषताओं के बाद भी अमेरिका के नर्क को अपने भीतर समेटे हुये हैं। इस नर्क का नाम है “जॉम्बी ड्रग महामारी”। इस महामारी के उत्पन्न होने में जितना योगदान वैज्ञानिकों और उच्च-शिक्षितों का है उतना ही स्थानीय शासन-प्रशासन का भी रहा है।

        कुछ दशक पहले परड्यू फ़ार्मेसी के मालिक रिचर्ड सैकलर ने पीड़ा-निवारण के लिए सिंथेटिक ऑपियोइड से Oxicodone नामक एक औषधि बनायी जो बाद में OxyContin एवं Roxicodone के ब्रांड नाम से बाजार में प्रस्तुत की गयी। रिसर्च ट्रायल में 82% लोगों को इसके कई साइड-इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ा जिसे फ़ार्मेसी के मालिकों और वैज्ञानिकों द्वारा छिपाया ही नहीं गया बल्कि इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की गयी। बाजार में उतारने के लिए प्रारम्भ में 500 डॉक्टर्स के साथ फार्मेसी के लोगों द्वारा मीटिंग की गयी जिसमें से केवल 380 डॉक्टर्स ही इसे प्रिस्क्राइब करने के लिए तैयार हुए, पर शीघ्र ही इस औषधि ने बाजार में अपने पैर पसार लिए। यह बहुत ही हानिकारक पीड़ाशामक सिद्ध हुयी क्योंकि इसके सेवन से लोग इसके अभ्यस्त होने लगे थे।

        आगे चलकर जब इस औषधि पर प्रतिबंध लगाया गया तो इसके अभ्यस्त हो चुके लोगों ने हेरोइन और मॉर्फ़ीन लेना प्रारम्भ कर दिया। फ़िर आयी ज़ाइलाज़िन जिसके बाद तो लॉस-एंजेल्स और फ़िलाडेल्फ़िया के लोग झुके हुये स्टेच्यू होने लगे। जॉम्बी-ड्रग-महामारी इसी ज़ाइलाज़िन का परिणाम है।   

        सिंथेटिक ओपियोइड बनाने में अग्रणी चीन ने चाइना गर्ल के नाम से फ़ेंटानिल का उत्पादन किया जिसे अमेरिकी लोगों ने पसंद किया। चाइना गर्ल इस ओपियोइड का छद्म नाम है जो मॉर्फ़ीन से एक-सौ गुना और हेरोइन से पचास गुना अधिक मादक होता है। भारत में भी युवाओं को नर्क में धकेलने के लिए मारीजुआना और कोकीन का प्रचलन रहा है। उड़ता पञ्जाब अफीम और सुरा के लिये कुख्यात रहा है जबकि तेलंगाना में अल्प्राज़ोलम वहाँ के युवाओं की पसंद मानी जाती है।

        तुरंत प्रभाव के लिये जिस पीड़ाशामक औषधि की खोज की गयी उसने निर्माताओं और डॉक्टर्स को मालामाल किया किंतु युवाओं को नर्क में धकेल दिया। अब तनिक बाबा रामदेव प्रकरण में मीलॉर्ड के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी विचार कर लिया जाय। मीलॉर्ड मानते हैं कि कई रोगों का चिकित्सा जगत में कोई उपचार नहीं है जबकि बाबा उनके उपचार का आश्वासन देते हैं, यह बाबा का भ्रामक प्रचार है जिसके लिये चार बार क्षमायाचना करने पर भी मीलॉर्ड ने उन्हें क्षमा का पात्र नहीं माना। मीलॉर्ड जी! आप तो एलोपैथी और आयुर्वेद के विद्वान हैं, पर आपने वही स्वीकार किया जो एलोपैथी वालों ने आपको बताया है। एलोपैथी वालों ने अमेरिका को यह बता कर कि ऑक्सीकोन्टिन बहुत अच्छी और प्रभावकारी पीड़ाशामक औषधि है, युवाओं को जॉम्बी-ड्रग-महामारी में धकेल दिया। जबकि आयुर्वेद का तो सिद्धांत ही है “प्रयोगः शमेद् व्याधिं योऽन्यमन्यमुदीर्येत्” अर्थात् वही चिकित्सा प्रशस्त है जो व्याधि का तो शमन करे पर किसी अन्य व्याधि को उत्पन्न न करे।

अर्ध-मूर्च्छित समाज व्यवस्था

        राजतंत्र बहुत अच्छा हो सकता है या फिर बहुत बुरा, जबकि लोकतंत्र न तो बहुत अच्छा होता है और न बहुत बुरा। साम्यवादी क्रांतियों में धनसम्पन्न लोगों की क्रूरतापूर्वक हत्या और उसके बाद की सत्ताव्यवस्था से दुनिया ने बहुत कुछ सीखा है। चीन के साम्यवादी शासन में वैयक्तिक स्वतंत्रता की प्रतिदिन किसी न किसी रूप में हत्या कर दी जाती है, सोवियत संघ का विघटन हम देख ही चुके हैं। भारत और अमेरिका जैसे देशों के सत्ताधीश इन क्रांतियों से भयभीत हैं और इनकी पुनरावृत्ति नहीं चाहते।

        रक्तसंघर्ष से बचने के लिए शासनव्यवस्था को बहुत अच्छा बनाना होगा जो राजतंत्र में तो सम्भव है पर लोकतंत्र में बिल्कुल भी नहीं। तो क्या अमेरिका और भारत का जन-असंतोष किसी रक्तक्रांति का कारक हो सकता है!

        भारत जैसे लोकतंत्र में साम्प्रदायिक हिंसा तो हो सकती है पर रक्तसंघर्ष नहीं। बोल्शेविक क्रांति के परिणामों से डरते हुये लोकतांत्रिक देशों के सत्ताधीशों ने एक ऐसी क्रूर व्यवस्था विकसित कर ली है जिसमें वे गण को न जीने देते हैं, न मरने देते हैं। यह व्यवस्था अपनी प्रजा को अर्धमूर्छित बनाये रखने में विश्वास रखती है, इसके लिए अमेरिका के सत्ताधीशों ने अपनी प्रजा को ज़ाइलाज़िन और फ़ेंटालिन जैसी औषधियों के मादक प्रभाव का अभ्यस्त और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देकर अकर्मण्य बनाया तो भारत के सत्ताधीशों ने आरक्षण, कर्ज माफ़ी, दानवितरण और सुरा के माध्यम से अपनी प्रजा को अर्धमूर्छित कर दिया है। जनता इस मूर्छना की अभ्यस्त हो चुकी है और अब इसे बदलने की बात सोचना भी जन-असंतोष उत्पन्न कर सकता है। भारत के सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत रहते हैं कि सत्ता में बने रहने के लिए गण को अर्धमूर्छित अवस्था में बनाये रहना आवश्यक है। लोकतंत्र वास्तव में एक प्रतिस्पर्धा-तंत्र है जहाँ हर किसी को अपनी आसुरी या दैवीय शक्तियों के साथ अपने-अपने वर्चस्व के लिये संघर्ष करते रहना होता है। भारत की प्रजा इस प्रतिस्पर्धा में पराजित हो चुकी है, एलिट क्लास और सत्ताधीश बिजयी होते जा रहे हैं।   

        आरक्षण और दान-वितरण किसी भी समाज को अपंग बनाने के लिये मीठे विष की तरह प्रभावकारी होते हैं । आरक्षण से प्रतिभाओं की हत्या की जाती है और दान-वितरण से लोगों को अकर्मण्य बना दिया जाता है। अब संसाधनों की लूटमार के स्थान पर उत्पादों की लूटमार होने लगी है। उपभोक्ता वस्तुओं का दान-वितरण एक तरह से साम्यवादी सिद्धांतों वाली लूटमार है जिसे कुछ कर्मठ लोगों से छीनकर अकर्मण्य लोगों में बाँट दिया जाता है। बची-खुची कमी कर्जमाफ़ी से पूरी कर दी जाती है। ये वे स्थितियाँ हैं जो कर्मठता, प्रतिस्पर्धा और कुशलता को अपने पास भी नहीं आने देतीं। भारत में निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थान और उद्योग न होते तो अब तक यह देश पूर्ण अपंगों का देश हो चुका होता।

        भारत में लोक अर्धमूर्छित है और सत्ता लोक को अर्धमूर्छित बनाये रखने के उपायों के लिए सजग है । यह सब इसलिए क्योंकि हमने पश्चिम की देखा-देखी धर्म के अंकुश को अपने जीवन के सभी क्षेत्रों से निकालकर बाहर फेक दिया है। धर्म को पूजा-पाठ से जोड़ दिया और धर्म से सामाजिक शुचिता और मानवीय मूल्यों को अलग कर राजनीति से जोड़ दिया जिसका कोई अर्थ ही नहीं है।  

मंगलवार, 14 मई 2024

लोकतांत्रिक हिंसा

        कल मंगलवार के दिन केजरीवाल के मित्र और निजी सचिव विभव कुमार ने जमानती मुख्यमंत्री के वैभवशाली राजप्रासाद में राज्यसभा सांसद स्वाति मालीवाल को पीट दिया। मंगलवार हनुमान जी का दिन माना जाता है, जेल से छूटने के बाद जमानती मुख्यमंत्री भोर होते ही हनुमान जी के दर्शन करने गये थे। आमआदमी के राजप्रासाद के लोग हनुमान भक्ति से ओतप्रोत हैं। केजरीवाल और विभव कुमार की मित्रता उस समय से है जब वे राजनीति में आये भी नहीं थे। राजमहल और लोकतंत्र पर विभव का अधिकार और प्रभाव इतना प्रचण्ड है कि वह राज्यसभा सांसद को उनके पदनाम से नहीं, बल्कि स्वाति नाम से पुकारता है। जमानती मुख्यमंत्री जी के निजी सचिव पहले भी दिल्ली के सचिव को पीट चुके हैं, तथापि बात-बात पर स्वतः संज्ञान लेने वाले मीलॉर्ड की दृष्टि में केजरीवाल का कभी कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा है।  

        महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान राज्यसभा सांसद के नश्वर शरीर पर हाथ-पाँव चलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रदर्शन के समय जमानती मुख्यमंत्री भी राजप्रासाद में उपस्थित थे। यदि यह प्रकरण किसी मीलॉर्ड के न्यायालय में कभी पहुँचा तो जमानती मुख्यमंत्री बड़े भोलेपन से कह देंगे कि राजप्रासाद इतना बड़ा है कि उन्हें तो कुछ पता ही नहीं किस कोने में कब क्या हो गया। मीलॉर्ड को इस उत्तर से संतुष्ट होना ही होगा, लोकतंत्र का यही नियम है। श्रीलाल शुक्ल ने रागदरबारी में शनीचरा की आह को यूँ ही नहीं गा दिया था, उन्होंने न जाने कितने शनीचरा लोगों को न्याय के लिये भटकते हुये देखा, तब जाकर रागदरबारी की उत्पत्ति हुयी। मीलॉर्ड लोगों को शनीचरा के किसी भी तर्क से संतुष्ट नहीं होना चाहिये, लोकतंत्र का यही नियम है। इसीलिये यशस्वी जमानती मुख्यमंत्री दहाड़ते हुये कहते हैं कि वे मोदी की तानाशाही का अंत करने और संविधान बचाने के लिए हनुमान जी की कृपा से जेल से छोड़े गये हैं। अस्तु! दिल्ली, पंजाब और हरियाणा के मतदाताओ! जमानती मुख्यमंत्री की पार्टी को भारी बहुमत से जिताइये और महिलाओं को राजप्रासाद में पीटे जाने का मार्ग प्रशस्त कीजिये।

*स्वतः संज्ञान में भी पक्षपात*

        राज्यसभा की महिला सांसद को मुख्यमंत्री निवास में मुख्यमंत्री की उपस्थिति में मुख्यमंत्री के मित्र व निजी सचिव द्वारा कल बुरी तरह पीट दिया गया। हम जानते हैं, तानाशाही मानसिकता और भ्रष्टआचरण वाले मुख्यमंत्री को जमानत देने वाले किसी मीलॉर्ड को अपने निर्णय पर ग्लानि नहीं हुयी होगी। यदि तनिक भी ग्लानि हुयी होती तो स्वाति मालीवाल की पिटायी पर अब तक उन्होंने स्व-संज्ञान ले लिया होता। स्वतः संज्ञान लेना मीलॉर्ड के विवेकाधिकार क्षेत्र में आता है, इसके लिये कोई सीमा नहीं है किंतु देश की जनता को नैतिकता और अनैतिकता की सीमाओं का बड़ा सूक्ष्मज्ञान होता है।   

        मीलॉर्ड लोग केजरीवाल को जमानत देने के लिये बड़े व्यथित थे। वे मानते थे कि अपनी हर प्रतिज्ञा को तोड़ देने में कुशल और हर आश्वासन के प्रतिकूल आचरण करने वाले मुख्यमंत्री का कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा है इसलिए उन्हें लोकसभा चुनावप्रचार के लिये जमानत दे दी जानी चाहिये। कुछ प्रतिबंधों के साथ उन्हें जमानत दे भी दी गयी। किन्तु किसी प्रतिबंध को ऐसे ढीठ लोग मानते ही कब हैं, लालू प्रसाद इसके प्रत्यक्ष उदाहरण रहे हैं!

        न्यायाधीश महोदय के प्रतिबंध की धज्जियाँ उड़ाते हुये जमानती मुख्यमंत्री ने पहला काम तो यह किया कि अपनी जमानत के बारे में तथ्यों को छिपाते हुये पूरा दारोमदार हनुमान जी की कृपा पर डाल दिया और संविधान पर संकट छा जाने के मिथ्या भय का दुष्प्रचार प्रारम्भ कर दिया। संविधान और लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाने वाला व्यक्ति संविधान बचाने, लोकतंत्र बचाने और तानाशाही समाप्त करने का दुष्प्रचार कर रहा है। यह सब देख-सुनकर मीलॉर्ड संतुष्ट हुये होंगे कि उन्होंने सचिव और महिला सांसद को पिटवाने वाले एक तानाशाह को जमानत देकर दिल्ली की जनता पर बहुत परोपकार किया है।

        देश की जनता भारत की न्यायालयीन व्यवस्था से असंतुष्ट और विकृत-न्याय से दुःखी रही है किंतु अब लोग आक्रोशित भी होने लगे हैं। दंडनायकों के प्रति जनता का बढ़ता अविश्वास, अश्रद्धा और आक्रोश चिंताजनक है। नीतिनिर्माताओं को अपारदर्शी हो चुके कॉलीजियम सिस्टम के औचित्य पर एक न एक दिन विचार करना ही होगा।      

रविवार, 12 मई 2024

मतदान

 आज मंथन गहन करने

फिर ये अवसर आ गया है ।

राष्ट्रहित में कठिन निर्णय

का ये अवसर आ गया है ॥

यह लोकसत्ता पंचवर्षी

हम किसे अर्पित करें ।

धर्म के औचित्य पर अब

हम पुनः निर्णय करें॥

विवश होकर देश में ही

क्यों देश शरणागत हुआ ।

कोई कैसे राष्ट्रद्रोही

राष्ट्र में निर्भय हुआ ॥

आग है हर ओर धधकी

दम धुयें से घुट रहा ।

रोटियाँ सिकती हैं उनकी

देश पूरा लुट रहा ॥

सारथी का स्वाँग रच

हैं राजमद वो सब पिये ।

क्या वो जानें हम गरल के

कुंड पीकर भी जिये ॥

नेतृत्व जयचंदों ने छीना

स्वप्न सब धूमिल हुये ।

देश की छल अस्मिता

जयचंद कब अपने हुए !!

आज निर्णय की घड़ी में

नेक निष्ठा ले के चलना ।

कंटकों की और सुमनों

की तनिक पहचान करना ॥

देश किसके हाथ में

है सौंपना, पहचान कर ले ।

हो न जाये चूक फिर से

हो सजग मतदान कर ले ॥

लोकसत्ता पंचवर्षी

हम जिसे अर्पित करें ।

ले चले जो रथ सुपथ पर

सारथी ऐसा चुनें ॥

भाग्य के हम ही विधाता

हैं आज पल भर के लिये ।

फिर न कहना, फिर छलेगा

पाँच वर्षों के लिये ॥